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09:50, 27 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण

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फ़ेसबुक पर भारतकोश (नई शुरुआत) भारतकोश
फ़ेसबुक पर आदित्य चौधरी आदित्य चौधरी

एक महान डाकू की शोक सभा -आदित्य चौधरी


Sea-pirate.jpg

एक 'महान' नेता, एक 'महान' डाकू की शोक सभा संबोधित कर रहे थे।-
        "वो एक महान डाकू थे। ऐसे ख़ानदानी और लगनशील डाकू अब देखने में नहीं आते। आज भी मुझे अच्छी तरह याद है... जब उन्होंने पहली डक़ैती डाली तो वो नवम्बर-दिसम्बर का महीना रहा होगा; दिवाली के आसपास की बात है। डक़ैती डाल कर वो सीधे मेरे पास आए और डक़ैती का पूरा क़िस्सा मुझे एक ही साँस में सुना डाला। हम दोनों की आँखों में खुशी के आँसू थे। बाद में हम दोनों गले मिलकर ख़ूब रोए।"
आगे कुछ बोलने से पहले उन्होंने वही किया जो नेता अक्सर भाषण देते हुए करते हैं-
        उन्होंने माइक को देखा और भावुक होकर दाएँ हाथ से उसे पकड़ लिया। बाएँ हाथ की चार उंगलियों को मोड़कर एक लाइन में लगाया और ग़ौर से नाखूनों को देखा। इसके बाद कुछ सोचने का अभिनय किया और साँस छोड़कर (जो कि खिंची हुई थी) दोनों हाथ पीछे बाँध लिए। एक बार एड़ियों पर उचक कर फिर से कहना शुरू किया-
        "वो ज़माना ही ऐसा था... उस ज़माने में डक़ैती डालने में एक लगन होती थी... एक रचनात्मक दृष्टिकोण होता था। जो आज बहुत ही कम देखने में आता है। मुझे भी कई बार मूलाजी के साथ डक़ैतियों पर जाने का अवसर मिला। आ हा हा! क्या डक़ैती डालते थे मूलाजी। कम से कम ख़र्च में एक सुंदर डक़ैती डालना उनके बाएँ हाथ का खेल था। बाद में वक़्त की माँग के अनुसार उन्होंने अपनी डक़ैतियों में बलात्कार को भी एक समुचित स्थान दिया किन्तु दुर्भाग्य ! कि उन्होंने जो डक़ैतियाँ डालीं... हत्याएँ कीं और बलात्कार किए... उसका पूरा श्रेय और बाद में लाभ ख़ुद उन्हीं को नहीं मिल पाया।"
        "...उनकी आदत हमेशा दूसरों को बढ़ावा देने की रही। वो तो मानो एक विश्वविद्यालय ही थे। नये लड़कों को जब वो अपने साथ डक़ैतियों में ले जाते थे तो उन्हीं को हमेशा हत्याएँ और बलात्कार करने का मौक़ा भी देते थे। जहाँ तक मुझे याद आता है, जब भी वो मुझे मिले, उनके साथ चार-पाँच नई उम्र के लड़के होते थे। आ हा हा! क्या दृश्य होता था... सभी लड़के नशे में धुत्त, मुँह में पान और अपनी-अपनी अन्टी में तरह-तरह के हथियार लगाए हुए। उन लड़कों में से... जो आज जीवित बचे हैं, उनके नाम और फ़ोटो अख़बारों में देखकर बेहद प्रसन्नता होती है। मूलाजी के 'सधाए' हुए लड़के आज कई पार्टियों में सम्मानित पदों पर हैं। उस त्यागमूर्ति का ध्यान आने से ही मैं भावुक हो जाता हूँ।"
-तालियाँ बजीं...
        "शुरुआत में छः-सात डक़ैतियाँ डालने के बाद ही वो काफ़ी प्रसिद्धी पा गए थे लेकिन आप तो जानते ही हैं कि पुलिस ने हमेशा उनके साथ सौतेला व्यवहार ही किया। कई डक़ैतियाँ ऐसी थीं जो उन्होंने अपने बल-बूते पर ही डाली थीं, लेकिन पुलिस रिकार्ड से उनका नाम ग़ायब ही रहा और उन डक़ैतियों का श्रेय उन्हें नहीं मिल पाया। असल में उस समय जो पुलिस कप्तान था वो अपनी जाति के एक साधारण से डाकू को प्रमोट करने के चक्कर में रहता था। जिसमें कि बाद में वो सफल भी रहा।"
        ...
        "स्वर्गीय श्री मूलशंकर जी; जिन्हें हम "मूला डाकू" के नाम से जानते हैं, एक ज़बर्दस्त पक्षपात पूर्ण रवैए का शिकार हुए। पाँच अच्छी डक़ैतियाँ डालने के बाद मुश्किल से एक डक़ैती में मूला जी का नाम आ पाता था। इससे उनका प्रमोशन रुक गया। वो अपने डाकू कैरियर की अगली सीढ़ी को पाने में असफल रहे याने नेता नहीं बन पाए।"
-वे भावुक हुए-
        "दोस्तों आप तो जानते हैं कि कौन अपनी पसंद से डाकू बनता है ?... कोई नहीं ! ये तो मजबूरी है दोस्तों... मजबूरी ! अगर मूलशंकर जी ने नेता बनने का सपना नहीं देखा होता तो बेचारे क्यों डाकू बनते। वो भी किसी सरकारी दफ़्तर में नौकरी करके डाकुओं से ज़्यादा नहीं कमा रहे होते ?
-वे और भावुक हुए-
        "... आप को पता ही है कि किसी पार्टी ने उन्हें चुनाव में टिकिट नहीं दिया और वो साधारण सा डाकू जो वास्तव में डाकू था ही नहीं, पिछली बार के चुनाव में लगातार तीसरी बार पार्टी की टिकिट पर जीता है। एस. पी. ने पक्षपात करके उसे डाकू बनाया। उसके सिर पर दो लाख का बिल्कुल झूठा इनाम रखवाया।" वे दहाड़े- "वो भोला-भाला डाकू चुनाव में टिकिट पा जाता है और मूला जी जैसे ख़तरनाक़ डाकू समाज सेवा से वंचित रह जाते हैं...? क्या यही लोकतंत्र है ?"
यह कहकर उन्होंने सिर झुका लिया। यह मुद्रा तालियों की अपेक्षा में बनाई गयी थी लेकिन तालियों की बजाय सन्नाटा भांपकर वो फ़ौरन गला साफ़ करके बोले-
        "मैं किसी का भी नाम नहीं लेना चाहता क्योंकि आप स्वयं ही ऐसे साधारण डाकुओं के नामों से परिचित हैं। इस तरह अचानक इनाम बढ़ा कर किसी को भी रातों-रात डाकू बनाया जा सकता है... इससे तो हर ऐरा-ग़ैरा डाकू टिकिट का दावेदार बन जाएगा। वो दिन दूर नहीं जब लोग पुलिस को रिश्वत देकर बिना डक़ैती डाले ही अपना नाम डक़ैतियों में लिखवा लेंगे और डक़ैती-संस्कृति का सत्यानाश हो जाएगा।"
        "हमारे देश के डक़ैतों में अब जातीय भावना उत्पन्न होने लगी है। जो धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही है। डक़ैतियाँ अब जाति के आधार पर डाली जा रही हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी जाति के डाकू को बढ़ावा देने में लगा है। पार्टियों में भी जाति के आधार पर डाकुओं को वरीयता दी जाती है। अभी पिछले दिनों एक सज्जन के यहाँ एक 'शानदार डक़ैती' पड़ी। वो जानते थे... कि डक़ैती किसने डाली है... लेकिन उन्होंने डक़ैती में नाम लिखवाना अपनी ही जाति के एक ऐसे डाकू का... जो उस समय इलाक़े में था ही नहीं... इस जातिवादी डाकू-तन्त्र को रोकना होगा... अन्यथा इसके परिणाम बहुत बुरे होंगे। इससे योग्य डाकू पिछड़ जायेंगे।"
        "मैंने अनेक बार देखा है कि टिकिट प्राप्त करने की लालसा में बहुत से डाकुओं ने डक़ैती डालना कम करके दूसरे तरीक़ों से जल्दी प्रगति करनी चाही है। जैसे कुछ डक़ैतों ने शराब के ठेके लिए, कुछ ने जुए-सट्टे का कारोबार खोल लिया और कुछ ने अपहरण का धन्धा अपना लिया। ये तो ठीक है कि इस बदलाव से टिकिट पाने में आसानी हो जाती है, लेकिन डक़ैती की परम्परा को बेहद नुक़सान होता है।
        वे क्रोधित होकर दहाड़े, "क्या सिर्फ़ टिकिट पाने के लिए ही हम भू-माफ़िया बन जाएँ, शराब के ठेके लें, अपहरण करवाएँ और जुए-सट्टे का कारोबार करें... क्या सिर्फ़ डक़ैती डालने से ही टिकिट के लिए हमारी योग्यता सिद्ध नहीं हो जाती?"
        तभी एक नौजवान डाकू बीच में बोला, "आजकल तो भू-माफियाओं का ज़माना है। पूछता कौन है डाकुओं को...डाकुओं से ज़्यादा इज़्ज़त तो राजनीति में अब दलालों को मिलती है !... अब गया ज़माना डाकुओं का !..."
        "भू-माफ़िया ! क्या है भू-माफ़िया हमारे सामने ?... कुछ भी नहीं... ज़्यादा से ज़्यादा चार-छ: मर्डर... बस !... और उसके बाद राजनीति में ट्रांसफ़र... उसके बाद क्या ? बताइए ?... राजनीति में स्थापित होने के बाद तो हमारी ही ज़रूरत पड़ती है
ना ? अरे ! ख़ुद कहाँ करते हैं ये क़त्ल ? ये तो हमसे करवाते हैं ना ? इसमें सारी ग़लती किसकी है... आपकी। आपने ही यह छूट दी है। मैं पूछता हूँ कि जान जाने का ख़तरा सबसे ज़्यादा किसमें है... सिर्फ़ डक़ैती में! इसलिए सबसे ज़्यादा बहादुरी का काम डाकू बनना ही है, बाक़ी सारी चीज़ें कम बहादुरी की हैं, फिर भी डक़ैतों की मान्यता कम होती जा रही है। मान्यता ही कम नहीं हो रही है, बल्कि उनका मूल्यांकन भी ग़लत तरीक़े से होता है। इसका कारण है एकता की कमी। मेरे प्यारे डाकुओं एक हो जाओ और फिर से छा जाओ राजनीति पर..."
वक्तव्य ख़त्म करने के इशारे को समझ कर भी अनजान बनकर वे घड़ी देखकर बोले-
        "काफ़ी समय हो गया... मुझे एक डाकू-शाला के उद्घाटन में भी जाना है इसलिए मैं यह कह कर अपनी बात समाप्त करना चाहता हूँ कि हम सब एक मिलकर रहें तो हर एक पार्टी हमारे महत्व को और ज़्यादा समझेंगी और फिर से मूला जी का दर्द भरा इतिहास नहीं दोहराया जाएगा। मेरे साथ नारा लगाइए...डाकू नेता भाई-भाई, और क़ौम कहाँ से आई"
सभी मिल कर डाकू-गान गाते हैं

जितने डाकू उतने पद
गिन ले जनता ध्यान से
हारेगी वो हर बाज़ी
सब डाकू हों मैदान में
आओ
आ जाऽऽऽओ
हर पद पे
छा जाऽऽऽ ओ
जी जान से
हेऽऽऽ
जी जान से

आइए इस शोक सभा से अब वापस चलें

        जिस तरह हर चीज़ का ज़माना होता है वैसे ही 'चम्बल-ब्रांड' डाकुओं का भी एक 'ज़माना' था। जनता का हाल ये रहता था कि लोग, डाकुओं के घोड़ों की टापों से उड़ती धूल को टल्कम पाउडर से कम नहीं समझते थे। फ़िल्मों के लिए भी 'डाकू' एक हिट विषय रहा है। डाकू को नायक बनाया जाय या खलनायक, डाकू अक्सर हिट ही होता है। जैसे- 
जिस देश में गंगा बहती है का 'राका' (प्राण- खलनायक)
गंगा जमना का 'गंगा' (दिलीप कुमार- नायक)
मुझे जीने दो का 'जरनैल सिंह' (सुनील दत्त- नायक)
मेरा गाँव मेरा देश का 'जब्बर' (विनोद खन्ना- खलनायक)
शोले का 'गब्बर' (अमजद ख़ान- खलनायक)
बिंदिया और बंदूक़ का 'रंगा' (जोगिन्दर- खलनायक)
बैंडिट क्वीन की 'फूलन' (सीमा बिस्वास- नायिका)
पान सिंह तौमर का 'पान सिंह' (इरफ़ान ख़ान- नायक)
आदि कई ऐसे चरित्र हैं जो फ़िल्मों में लोकप्रिय हुए हैं।

        इस सूची में एक 'पान सिंह तौमर' फ़िल्म ही ऐसी है जो मैंने अभी तक देखी नहीं है। वजह ये है कि थिएटर में फ़िल्म देखने में मेरा दम घुटता है और 'पाइरेटेड डीवीडी' देखने में मोज़रबेयर और टी सीरीज़ वालों का डर लगता है। वैसे भी 'भारतकोश' से समय बचता ही कहाँ है जो फ़िल्म देखूँ! सुना है कि अच्छी चली है, ख़ास तौर से वो संवाद कि "बीहड़ में बाग़ी होते हैं डक़ैत मिलते हैं पार्लियामेन्ट में", ख़ासा लोकप्रिय हुआ है।  
        असल ज़िन्दगी में भी डाकुओं के नाम बहुत प्रसिद्ध हुए। सुल्ताना डाकू, डाकू मान सिंह, पुतली बाई, पाना डाकू (पान सिंह), मोहर सिंह, माधो सिंह, मलखान सिंह, फूलन देवी आदि। बात क्या है डाकू हमें क्यों आकर्षित करते रहे हैं ? 
        हर एक जीव स्वभाव से कायर ही होता है चाहे वह जानवर हो या इंसान। बहादुर तो हमें समाज और संस्कृति बनाते है। जिसे हम बहादुरी या निडरता कहते हैं उसके मुख्य कारण दो ही होते हैं एक तो उस भय के प्रति पूरी अज्ञानता जैसे बच्चा सांप से नहीं डरता और दूसरा कारण है, अपने भय को छुपा जाना अर्थात यह ज़ाहिर न होने देना कि हम भयभीत हैं। जिन्हें हम साहसी और बहादुर मानते हैं। उन्होंने अपने भय को कभी किसी के सामने ज़ाहिर नहीं होने दिया, बस यही है बहादुरी। 
        जिस तरह हर एक साहस वीरता नहीं होता उसी तरह हर एक पलायन कायरता नहीं होता। इसीलिए बहादुरी और मूर्खता के बीच बहुत महीन सीमा रेखा होती है और यही महीन रेखा कायरता और बुद्धिमानी के बीच भी होती है। ग़लत निर्णय से आपकी बहादुरी मूर्खता में गिनी जा सकती है और समझदारी से किया गया पलायन भी बुद्धिमानी में शामिल हो जाता है। हमारा यही स्वभाव और इच्छाएँ हमें डाकू-फ़ॅन बना देती हैं। हमारे मित्र जानवरों में कुत्ता, घोड़ा, गाय आदि गिने जाते हैं लेकिन हर-कोई बनना 'शेर' ही चाहता है। घोड़ा या गाय बनने की कोई नहीं सोचता और कुत्ता बनने का तो सवाल ही नहीं है। हम ख़ुद को बहादुर और साहसी देखना और दिखाना चाहते हैं और इस और बहादुरी का जो जो ग्लॅमर शेर के पास है, वह दूसरों के पास कहाँ ? इसलिए डाकुओं को भी चम्बल का शेर कहा जाता है।
        यदि हम जल-दस्युओं के बारे में जानकरी करने के लिए गहरे में उतरें तो एक ज़बर्दस्त इतिहास और किंवदंतियों से भरी दुनिया हमें मिलती है। इनकी लोकप्रियता का अन्दाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि कॅप्टेन जॅक स्पॅरो के किरदार में 'जॉनी डेप' अभिनीत 'पाइराइट्स ऑफ़ कॅरेबियन' करोड़ों डॉलर का व्यापार कर रही है और इसके सीक्वल, ट्रायोलॉजी और क्वाड्रियोलॉजी बनते जा रहे हैं। इन समुद्री डाकुओं ने तो एक बहुत प्रभावी संस्कृति का प्रतिनिधित्व भी किया है। 
        डाकुओं, दस्युओं या लुटेरों से प्रभावित होने का कारण है हमारा उनकी दुनिया से अनभिज्ञ होना। इनका जीवन, जिससे कि लोग चमत्कृत हो जाते हैं, वास्तव में नारकीय जीवन होता है। समाज से कटे होने का दर्द इनके हृदय को हर समय कचोटता रहता है। आत्म समर्पण के बाद कुछ दिन ये लोग शो-पीस बने इधर-उधर घूमते रहते हैं फिर कोई घास नहीं डालता। सब की क़िस्मत फूलन जैसी नहीं होती कि सांसद बन जाय।

इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...

-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक


उल्लू की पंचायत -आदित्य चौधरी

न नई है न पुरानी है 
सच तो नहीं
ज़ाहिर है, कहानी है
एक जोड़ा हंस हंसिनी का
तैरता आसमान में
तभी हंसिनी को दिखा
एक उल्लू कहीं वीरान में

हंसिनी, हंस से बोली-
"कैसा अभागा मनहूस जन्म है उल्लू का
जहाँ बैठा
वहीं वीरान कर देता है
क्या उल्लू भी किसी को खुशी देता है?"
 
तेज़ कान थे उल्लू के भी
सुन लिया और बोला-
"अरे सुनो! उड़ने वालो !
शाम घिर आई 
ऐसी भी क्या जल्दी !
यहीं रुक लो भाई"
ऐसी आवाज़ सुन उल्लू की
उतर गए हंस हंसिनी
ख़ातिर की उल्लू ने
दोनों सो गए वहीं

सूरज निकला सुबह
चलने लगे दोनों तो...  
उल्लू ने हंसिनी को पकड़ लिया
"पागल है क्या ?
मेरी हंसिनी को कहाँ लिए जाता है ?
रात का मेहमान क्या बना ?
बीवी को ही भगाता है ?"

हंस को काटो तो ख़ून नहीं
झगड़ा बढ़ा
तो फिर पास के गाँव से नेता आए
अब उल्लू से झगड़ा करके
कौन अपना घर उजड़वाए !
उल्लू का क्या भरोसा ?
किसी नेता की छत पर ही बैठ जाए

तो फ़ैसला ये हुआ
कि हंसिनी पत्नी उल्लू की है
और हंस तो बस उल्लू ही है
नेता चले गए
बेचारा हंस भी चलने को हुआ
मगर उल्लू ने उसे रोका 
"हंस ! अपनी हंसिनी को तो ले जा
मगर इतना तो बता
कि उजाड़ कौन करवाता है ?
उल्लू या नेता ?" 




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