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बात का घाव -आदित्य चौधरी


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        ये कहानी ठीक वैसे ही शुरू होती है जैसे कि एक ज़माने में चंदामामा, नंदन और पराग में हुआ करती थी। एक गाँव में एक रघु नाम का लकड़हारा रहता था। जंगल से लकड़ियाँ काट कर लाता और गाँव में बेच कर अपने परिवार का पालन-पोषण करता। एक दिन जंगल में उसे किसी के कराहने की आवाज़ सुनाई दी, देखा तो एक बहुत तगड़ा शेर पैर में कील चुभ जाने के कारण दर्द से कराह रहा था।
रघु से शेर ने कहा-
"भाई मेरे! यह मत सोचो कि मैं शेर हूँ और तुमको कोई नुक़सान पहुँचाऊँगा। मेरी मदद करो, मैं तुम्हारा एहसान मानूंगा... सोचो मत! मेरे पैर से लोहे की कील निकाल दो... रहम करो मेरे भाई !"
रघु ने हिम्मत की और शेर के पैर से कील निकाल दी। शेर ने रघु को कृतज्ञता भरी दृष्टि से देखा और लंगड़ाता हुआ घने जंगल की ओर चला गया।

        रघु तो लगभग रोज़ाना ही जंगल में लकड़ियाँ लेने जाता था। तीन‌-चार दिन बाद उसे शेर मिला और उसके सामने दो हिरन मारकर डाल दिए और कहा- "इन हिरनों को बाज़ार में बेचकर तुमको अच्छे पैसे मिल जाएंगे।" बस फिर क्या था, ये एक सिलसिला ही बन गया, रघु जंगल में जाता और शेर उसे कई जानवर मारकर दे देता। रघु ने जानवर ढोने के लिए एक बैलगाड़ी भी ख़रीद ली और अपने परिवार के साथ बहुत आनंद से दिन गुज़ारने लगा।

        एक दिन शेर और रघु जंगल में बैठे बात कर रहे थे तो रघु ने कहा- "मित्र! तुम मेरे घर कभी नहीं आते... कभी मुझे भी मौक़ा दो कि मैं तुम्हारी आवभगत कर सकूँ। मेरे परिवार के साथ चलकर रहो, वे भी तुमसे मिलना चाहते हैं... तुमसे मिलकर बहुत प्रसन्न होंगे।" शेर ने कहा- "देखो भाई रघु! भले ही मैं तुम्हारा दोस्त हूँ लेकिन हूँ तो मैं जानवर ही...। कैसे निभा पायेंगे मुझको तुम्हारे घरवाले ? मैं जंगली हूँ और जंगल में ही ठीक हूँ" रघु नहीं माना और शेर को अपने घर ले ही गया।
        घरवाले पहले डरे फिर शेर के साथ सहज हो गये लेकिन महीने भर में ही शेर की ख़ुराक ने लकड़हारे के घर का बजट और उसकी बीवी का दिमाग़ ख़राब कर दिया। असल में शेर खायेगा भी तो अपने शरीर और आदत के हिसाब से। एक बार में तीस चालीस किलो मांस और वह भी रोज़ाना। बाज़ार से मांस और दूध ख़रीदने में रघु के घर के बर्तन तक बिकने की नौबत आ गई। रघु की पत्नी इस 'जंगली दोस्त' से बहुत परेशान थी। आख़िरकार रघु की पत्नी ने रघु से कहा- "तुम्हारे दोस्त को अब वापस जंगल में ही चला जाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि इसे खिलाने को जब कुछ भी न हो तो ये हमारे बच्चों को ही खा जाय? तुम इससे कहो कि ये यहाँ से चला जाय।" "लेकिन वो मेरा दोस्त है, मैं उसे जाने के लिए नहीं कह सकता..." रघु ने कुछ भी कहने से मना कर दिया।

        रघु की पत्नी की बातें शेर ने सुन ली थी क्योंकि उसने ये बातें शेर को सुनाते हुए ही कहीं थीं। शेर ने रघु को बुलाया और बोला- "तुम अपनी कुल्हाड़ी लाओ और मेरे सर में पूरी ताक़त से मारो! अगर तुमने मना किया तो मैं तुमको और तुम्हारे परिवार को खा जाऊँगा। साथ ही मैं तुम्हारे किसी सवाल का जवाब भी नहीं दूँगा... जल्दी करो!" मन मार कर रघु ने कुल्हाड़ी शेर के सर में मार दी। कुल्हाड़ी शेर के सर में गड़ गई। सर में गड़ी हुई कुल्हाड़ी के साथ ही शेर जंगल में चला गया।

महीनों बीत गये!

        लकड़हारे का जीवन-क्रम पहले की तरह ही जंगल से लकड़ियाँ लाकर गाँव में बेचने का चलता रहा। एक दिन अचानक शेर रघु के सामने आ गया और बोला- "कैसे हो दोस्त! देखो मेरे सर का घाव बिलकुल भर गया है। मेरे बालों में पूरी तरह छुप गया है। किसी को दिखता नहीं है कि मुझे सर में कभी कुल्हाड़ी की चोट लगी थी या कोई गहरा घाव भी था... लेकिन तम्हारी पत्नी ने जो कड़वी बातें मुझसे की थीं, उन बातों का घाव अभी तक नहीं भरा। वे बातें आज भी रात में मुझे चैन से सोने नहीं देतीं। बात का घाव बहुत गहरा होता है दोस्त! ये घाव कभी नहीं भरता...।"

        इस कहानी का जुड़ाव भारतकोश बनाने से है। मथुरा-वृन्दावन में अक्सर अंग्रेज़ पर्यटक मिल जाते हैं। एक बार बातों ही बातों में भारत के इतिहास पर चर्चा शुरू हो गयी। मैंने और मेरे मित्र ने कहा कि हम इंटरनेट पर भारत का एन्साक्लोपीडिया बनाने की सोच रहे हैं, तो उसने कहा कि आपका इतिहास तो हम अंग्रेज़ों ने लिखा है और आपका एन्साक्लोपीडिया इंटरनेट पर भी अंग्रेज़ ही बनाएँगे। ये आपके बस की बात नहीं है। बस यही बात मुझे चुभ गयी और भारतकोश का काम शुरू हो गया...

इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...

-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक


टीका टिप्पणी और संदर्भ


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