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मैं तो एक भूत हूँ -आदित्य चौधरी


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"लेकिन मैं तो बिल्कुल नया भूत हूँ। कल ही तो मरा हूँ। सारा दिन कहाँ काटूँगा, कहाँ सोऊँगा, क्या खाऊँगा ?" भूत ने भूतिस्तान के मैनेजर से पूछा।
"अभी-अभी मरे हो...नये-नये भूत बने हो... और एक दम से रहने के लिए फ़्लॅट चाहिए ? रूल तो रूल है... सबके लिए बराबर है तुमको बताया ना ! पहले 10 लोगों को डराओ तो खटिया मिलेगी सोने को... उसके बाद 25 लोगों को डरा लोगे तो एक कमरा मिल जायेगा इसी तरह 100 पर फ़्लॅट और 500 पर बंगला और नौकर-चाकर भी... समझ गये !... और खाने का क्या रोना रो रहे हो ?... भूत लोग, खाना-वाना नहीं खाते हैं... अरे फ़िल्में नहीं देखते थे... क्या कभी देखा था किसी भूत को खाना खाते ?" मैनेजर ने समझाया।
"लेकिन सर जी ! ये तो बताइये कि लोगों को डराते कैसे हैं ?"
"कमाल के भूत हो यार तुम भी... अरे ! इंसान को डराने में क्या है, किसी को अकेला देखो और डरा दो बस... तुमने ग़ायब होने की... प्रकट होने की... ट्रांसपेरेन्ट होने की सारी ट्रेनिंग कर ली हैं ना ?... अगर नहीं की तो सामने शीशा लगा है, कर लो"
भूत ने धरती पर आकर डराने के लिए 'क्लाइन्ट' देखना शुरू कर दिया... सड़क के किनारे एक बुज़ुर्ग महिला दिखी‌-
"वाह ! अकेली आंटी, सुनसान सड़क, रात का वक़्त, मज़ा आ जाएगा डराने में..." भूत ने सोचा... और अचानक उस औरत के सामने वैसे ही प्रकट हो गया जैसे कि धार्मिक सीरियलों में देवता और राक्षस प्रकट हो जाते हैं...
लेकिन ये क्या ?... उस औरत पर तो कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ा...
"ए ! हॅलो आंटी जी ! डर नहीं लगता क्या ?"
"लगता है बेटा ! बहुत लगता है कि कहीं कोई कार टक्कर न मार दे। इसीलिए तो इन्तज़ार कर रही थी कि बूढ़ी अन्धी को कोई रास्ता पार करा दे।"
"ओहो ! तो आपको दिखता नहीं है... नो प्रोब्लम ! मैं आपको रास्ता पार करा देता हूँ"
"जीते रहो बेटा ! जुग-जुग जिओ...!"
किसी को डराने की पहली कोशिश बेकार गई। बुज़ुर्ग महिला को रास्ता पार कराने के बाद भूत पास ही एक कोठी में घुस गया। कोठी पर जो नाम लिखा था उससे अंदाज़ा लगा कि कोई सीनियर एडवोकेट है। अंदर देखा तो अपने ऑफ़िस में वकील साहब काम कर रहे थे।
"अरे ! ये तो पूरी कोठी में अकेला है। इसे तो डरा-डरा के मार लूँगा।"
वकील के सामने भूत अचानक प्रकट हो कर कुर्सी पर सामने बैठ गया। वकील साहब एक फ़ाइल में खोए हुए थे उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। भूत ने खिसिया कर हल्के से मेज़ थपथपाई।
"सर... ! सर... !"
"हाँ बोलो ! क्या बात है क्या केस है तुम्हारा?" वकील साहब ने सिर उठा कर पूछा।
"सर ! आपकी कोठी चारों तरफ़ से बंद है, फिर भी मैं अंदर आ गया, बताइये कैसे ?" भूत ने सोचा कि पहले ख़ुद को 'असली' भूत साबित करना ज़रूरी है।
"सिर्फ़ यही पूछने के लिए तुम मेरे पास आए हो ? डोन्ट वेस्ट माइ टाइम। अपना केस बताओ ?"
"लेकिन मैं भूत हूँ असली वाला भूत। मरने के बाद आदमी भूत बनता है ना वो वाला भूत..."
"मरने के बाद ? यानी तुम्हारा 'मर्डर केस' है। ओ.के."
"नहीं-नहीं मैं तो एक्सीडेन्ट में मरा था..."
"अच्छा... तो कम्पनसेशन का मामला है, मुआवज़ा चाहिए तुम्हें..."
"सर मेरी बात तो सुनिए ! मुझे कोई केस नहीं लड़ना है, मैं तो आपको बताना चाहता हूँ कि मैं एक भूत हूँ और...."
वकील ने बात काटी...
"शटअप ! रात को दस बजे तुम मुझे ये बकवास सुनाने आए हो कि तुम भूत हो...तुमको कोई केस तो करना नहीं है फ़ालतू मेरा वक़्त क्यों बरबाद कर रहे हो"
"सर मैं ग़ायब हो सकता हूँ... आप विश्वास तो कीजिए..."
"तुम यहाँ ग़ायब होने आये हो ?... जब ग़ायब ही होना था तो आये ही क्यों ? तुम्हें मेरा ही घर मिला था इस जादूगरी को दिखाने के लिए... और वो भी रात के दस बजे ? अपना, ये ग़ायब होने का तमाशा मुझे ही क्यों दिखाना चाहते हो जाकर बच्चों को एन्टरटेन करो... अब जाओ भी..."
"सर मैं साबित करना चाहता हूँ कि मैं भूत हूँ"
"तुमको जो भी साबित करना है अदालत में करना... यहाँ मेरे घर में साबित करके क्या होगा... अब जाओ और मुझे काम करने दो।"
दूसरा अनुभव पहले से भी ज़्यादा बेकार निकला। भूत रुँआसा होकर वकील के घर से चला आया और सड़क पर चलती एक कार में घुस गया। कार एक अधेड़ महिला चला रही थी।
"हा हा हा हा! मैं आप की कार में कैसे आया ? " भूत ने पिछली सीट पर बैठ कर बनावटी हँसी के साथ कहा।
"क्योंकि मैं, आज पार्किंग में अपनी कार लॉक करना भूल गई और इसमें आप छुप के बैठ गये... ख़ैर छोड़िए... आप ही बताइए... ये तो आपको ही पता होगा... क्योंकि कार में घुसे तो आप हैं ना !" महिला शांत भाव से बोली
"मैं एक भूत हूँ, सचमुच का जीता-जागता डरावना भूत हा हा हा हा"
"अच्छाऽऽऽ तो आप भूत हैं ? तो भूत जी ! थोड़ा इत्मीनान से शांत बैठिए, मैं ज़रा ड्राइव कर रही हूँ ओ.के, वैसे आपका नाम क्या है ?" 
"मेरा कोई नाम नहीं है। मैं भूत हूँ और आपको डराना चाहता हूँ। आपको डरना ही होगा"
"ठीक है मैं प्रॉमिस करती हूँ कि मैं आपसे डरूँगी लेकिन पहले हम वहाँ पहुँच जायें जहाँ जा रहे हैं"
"हम कहाँ जा रहे हैं ?"
"हम मेन्टल हॉस्पीटल जा रहे हैं। आज मेरी नाइट शिफ़्ट है, मैं डॉक्टर हूँ... साइकायट्रिस्ट हूँ। हॉस्पीटल पहुँच कर सबसे पहले आपसे ख़ूऽऽऽब डरूँगी जिससे आपको ऐसा ना लगे कि आप भूत नहीं हैं, ओ.के.। नाउ काम डाउन, बी रिलेक्स्ड, टेक डीप ब्रेद। लंबी-लंबी सांस लीजिए और आँखें बन्द कर लीजिए। जस्ट रिलेक्स... मैं आपके लिए अच्छा सा म्यूज़िक लगाती हूँ..." 
भूत, दुखी होकर कार से ग़ायब हो गया। अगली रात शुरू होते ही वह एक कॉलोनी के पार्क में पहुँच गया जहाँ कुछ बच्चे खेल रहे थे। यहाँ भी भूत अचानक प्रकट हुआ तो बच्चों में से एक ने पूछा- 
"आप एकदम से कैसे यहाँ आ गये... ? मॅजिक से... ?" एक बच्चा बोला 
"मॅजिक नहीं है ये, मैं तो भूत हूँ भूत।" भूत बोला
"वॉव ! मतलब रीयल भूत !" दूसरा बोला
"ओ बेट्टे ! मज़ा आ गया" तीसरा बोला
बस फिर तो सवाल जवाब और भूत के जादू सब कुछ शुरू हो गया और भूत भी भूल गया कि वह यहाँ बच्चों को डराने आया था। 

        अब हमारे पास भूत-वूत से डरने का समय नहीं है। भूत तो क्या भगवान भी सामने आ जाएँ तो वो भी दुखी हो जाएँगे हमारे व्यवहार से क्योंकि हम व्यस्त हैं और ख़ुद ही में मस्त हैं। ये दुनिया बदल गई है... अचानक तो नहीं धीरे-धीरे बदलती जा रही है। लोग व्यस्त हो गए हैं... और इस व्यस्तता के अभ्यस्त हो गए हैं। अक्सर सुनने में आता है कि अरे ! क्या करें ? इतना काम है कि 'मरने' का भी टाइम नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि इतना काम है कि 'जीने' का भी समय नहीं है। मान लीजिए कि ये भूत अगर मेरे पास आता तो हो सकता है कि मैं, इससे भी भारतकोश पर काम करने के लिए कहता और ये ख़याल मेरे मन में नहीं आता कि अरे ! ये तो भूत है। मेरी हालत भी कुछ अलग नहीं है।
        इस व्यस्तता का एक कारण, हमारा बहुत आसानी से हर एक के लिए उपलब्ध होना भी है। यदि आप किसी से सम्पर्क करना चाहें तो मोबाइल फ़ोन, ई-मेल, एस.एम.एस आदि से तुरंत सम्पर्क कर सकते हैं। प्रत्येक गतिविधि की जानकारी ले सकते हैं और दे सकते हैं। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि आप हर समय अपने परिचितों के लिए उपलब्ध हैं। वे जब भी चाहें आपसे सम्पर्क कर सकते हैं। इसलिए कोई ना कोई परिचित दिन में और कभी-कभी रात में भी हमसे सम्पर्क करता रहता है। 
        इस निरंतर उपलब्धता के कारण अब कलाकार, साहित्यकार और रचनात्मक कार्य करने वाले अन्य लोग अपनी कृतित्व में वह उत्कृष्टता नहीं ला पाते जो कुछ वर्षों पहले हुआ करती थी। पुराने समय में विद्यार्थी कला का अध्ययन करने गुरु के पास जाते थे तो वर्षों तक अपने परिवार और परिचितों से कटे रहते थे। उनका विद्याध्यन का स्थान भी एकांत और शांत वातावरण में हुआ करता था। जहाँ उनकी साधना में कोई अनावश्यक गतिरोध उत्पन्न होना लगभग असम्भव ही होता था।
        आज की स्थिति इतनी भिन्न है कि लगातार किसी एक कार्य पर यदि एक दिन के लिए भी ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया जाये तो ये सरलता से सम्भव नहीं है। मोबाइल की घंटी या कोई एस.एम.एस या कोई ई-मेल आपका ध्यान भंग करता रहेगा। 
मियाँ तानसेन के पास शास्त्रीय संगीत सीखने की गरज़ से एक व्यक्ति आया और उसने पूछा- 
"मैं कितने समय में शास्त्रीय संगीत सीख जाऊँगा ?"
"कम-से-कम बारह वर्ष में।" मिया तानसेन ने उत्तर दिया 
"लेकिन मैं पहले से ही शास्त्रीय संगीत का पर्याप्त अभ्यास कर चुका हूँ"
"फिर तो चौबीस वर्ष लगेंगे"
"ऐसा क्यों ?"
उस व्यक्ति ने आश्चर्य व्यक्त किया तो मियाँ तानसेन ने उसे मुस्कुराकर जवाब दिया 
"बारह वर्ष तो उस अशुद्ध संगीत को ही भुलाने में लग जायेंगे जिसका आपने अभ्यास किया है और उसके बाद फिर वे बारह वर्ष होंगे जो एक पूर्णत: कोरे काग़ज़ के समान आये विद्यार्थी को लगते हैं।"

आज भी यही माना जाता है कि चार वर्ष शास्त्रीय संगीत सीखने में और चार वर्ष उसका अभ्यास करने में, फिर और चार वर्ष उसमें पारंगत होने में लगते हैं। 

        इसी तरह साहित्य का उदाहरण अमर शायर 'मीर तक़ी मीर' के जीवन की एक घटना का है।
मीर साहब को बहुत कष्ट में देखकर लखनऊ के एक नवाब इन्हें बाल-बच्चों के साथ अपने घर ले गये और महल का एक भाग रहने के लिए दे दिया। बैठक में एक तरफ़ की खिड़कियाँ बंद थीं; उनके सामने ही एक सुरम्य उद्यान था। नवाब ने वह हिस्सा इसलिए दिया था कि बाग़ से इनका दिल बहले, मनोरंजन हो पर अर्सा बीत गया; खिड़कियाँ वैसे ही बंद पड़ी रही। मीर साहब ने कभी खोलकर वाटिका की ओर नहीं देखा। एक दिन उनके मित्र उनसे मिलने आये। उन्होंने कहा-
"इधर बाग़ है, खिड़कियाँ खोलकर क्यों नहीं बैठते ?" 
मीर साहब आश्चर्य से बोले-
"इधर  बाग़ भी है ?" 
मित्र ने कहा- 
"इसीलिए नवाब साहब आपको यहाँ लाये हैं कि जी बदलता रहे और मन प्रसन्न हो।" 
मीर साहब के फटे-पुराने मस्विदे ग़जलों के पड़े थे, उनकी ओर संकेत करके कहा- 
"मैं तो इस बाग़ में ऐसा लगा हूँ कि दूसरे बाग़ की मुझे ख़बर नहीं।"
 
आज के समय में कितना कठिन है कोई बिस्मिल्ला ख़ाँ, बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ, भीमसेन जोशी, कुमार गंधर्व या फिर कोई मुंशी प्रेमचन्द, मुक्तिबोध, कालिदास या शेक्सपीयर ढूँढना...  

अब यह तो आपको ही तय करना है कि इस सहज-उपलब्धता से उपजी निरंतर-व्यस्तता कितनी उपयोगी है और कितनी अनुपयोगी।

वक़्त बहुत कम है यहाँ, काम बहुत ज़्यादा है।
हर पल, हर लम्हे का दाम बहुत ज़्यादा है॥

इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...

-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक


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