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50-50 आधा खट्टा आधा मीठा -आदित्य चौधरी


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        जो कली अक्सर छुप जाती है, उसे हम छिपकली कहते हैं। पता नहीं कि 'छिप' अपभ्रंश है 'छुप' का या छुप अपभ्रंश है 'छिप' का। इस तरह के परिवर्तन अक्सर 'कालान्तर' में ही हुआ करते हैं तो यह भी 'कालान्तर' में ही हुआ होगा।
        एक मासूम घरेलू छिपकली कीड़े- मकोड़े और मच्छर खाकर जैसे-तैसे अपना जीवन यापन करती है। घरवाले इसे खाने को कुछ नहीं देते बल्कि मच्छर भगाऊ अगरबत्तियों और यंत्रों से इसकी भोजन-खोज लिए कठिनाई ही पैदा करते हैं। छिपकली कपड़े बिल्कुल नहीं पहनती याने पूरी तरह से निवस्त्र रहती है। निवस्त्र रहने के बावजूद किसी ने कभी भी छिपकली के निवस्त्र रहने पर उँगली नहीं उठाई। कोई नहीं कहता कि 'वो देखो नंगी छिपकली'। असल में इस ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता, क्योंकि समाज को जिसका 'फ़िगर' पसन्द नहीं होता उसे समाज कभी नंगा नहीं कहता। नंगे हो कर चर्चित होने के लिए मनुष्य योनि में जन्म लेना आवश्यक है, साथ ही आपका 'फ़िगर' भी अच्छा होना चाहिए, तभी नंगे होकर चर्चित हुआ जा सकता है अन्यथा आपका नंगापन छिपकली के नंगेपन की तरह गुमनामी के अंधेरे में गुम हो जायेगा।
        छिपकली, मुर्ग़ी और भेड़-बकरियों की तरह ही इंसान के आसपास रहती है। इसके बावजूद भी कुछ गंभीर क़िस्म के विदेशी आदिवासियों के अलावा छिपकली को कोई खाता भी नहीं है। ये आदिवासी छिपकली का अचार भी बना लेते हैं, जिसे वे 'हूला-हूला हाउ-हाउ' नृत्य के समय एक विशेष पेय पदार्थ के साथ रूचि से खाते हैं और आग के चारों ओर एक ऐसे नृत्य का प्रदर्शन करते हैं जिसे हमें किसी ओलम्पिक या वर्ल्ड कप के उदघाटन समारोह में देखना पड़ता है। इस पेय पदार्थ से इन्हें शराब जैसा नशा होता है और जितनी मात्रा में आदिवासी इसे पीते हैं उतनी मात्रा हमारे आत्महत्या करने के लिए काफ़ी है। किसी दूसरे देश के राष्ट्राध्यक्ष को जब सरकारी दौरे पर बुलाया जाता है तो उन्हें ऐसे नृत्य दिखाए जाते हैं और आमंत्रित अतिथि इनके साथ नाचते और हूला-हूला हाउ-हाउ करते हैं। ये जो नेता अपनी गर्दन लम्बी करके 'फटाक से' विदेशी दौरे को तैयार हो जाते हैं, उनके कुछ ख़ास विदेशी दौरों के अनुभव काफ़ी संवेदनशील होते हैं।
        ख़ैर... यहाँ हमें छिपकली की उस नस्ल पर चर्चा करनी है जो हमारे घरों में पाई जाती है, न कि उन छिपकलियों की जो कि प्राणी विज्ञान की अमूल्य धरोहर हैं और 'डिस्कवरी' जैसे टी.वी. चैनलों पर व्यस्त रहती है। 'हमारी वाली' छिपकली विश्व भर में कुछ ख़ास महिलाओं की नज़ाकत-नफ़ासत को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल में आती है। जिस तरह चूहे और कॉकरोच से डरना कुछ महिलाओं की एक अदा मानी जाती है, उसी तरह छिपकली से डरना भी। कुछ लोगों को ग़लतफ़हमी होती है कि मूछें रखना मर्दानगी की निशानी है और कुछ लोगों के लिए छिपकली से डरना 'औरतानगी' की निशानी है। असल में कुछ महिलाओं को उम्र छिपाने का ये सबसे नायाब तरीक़ा लगता है। वे ये मानती हैं कि अगर कोई महिला छिपकली से नहीं डरती तो उसे अपने हारमोन के संतुलन की जाँच अवश्य करानी चाहिए, शायद पुरुष के हारमोन्स ज्यादा हों।
        विकासशील देशों में कुछ मध्यमवर्गीय लड़कियाँ एक सोचा समझा, सहमा हुआ जीवन व्यतीत करती हैं। उन्हें तलाश होती है एक ऐसे 'जवान' की जो उस लड़की के छिपकली को देखकर सहमने, डरने और चीखने की हास्यास्पद हरकत को मासूमियत मान सके और छिपकली को भगा दे या उसका वध कर दे। कुछ लोग इस छिपकली से डरने के खेल को ही प्यार कहते हैं। हाँ, इनके सामने शादी के बाद एक गंभीर समस्या खड़ी हो जाती है। यदि इनकी शादी होने के बाद भी, पत्नी छिपकली से डरती ही रहे तो पति उसे नाटक समझता हैं और न डरे तो सोचते हैं कि शादी से पहले उसने नाटक किया गया था। वैसे अक्सर होता ये है कि छिपकली से डरने वाली ये लड़कियाँ, पत्नी बनने के बाद एक ही झाड़ू में छिपकली को मार गिराती हैं और उसकी पूंछ टूटकर कहीं और जा गिरती है। केवल मध्यमवर्ग की बात इसलिए कि उच्चवर्ग की लड़कियों का पाला या तो छिपकली से पड़ता नहीं है या फिर वे जीवन भर छिपकली से डरती ही रहती हैं।
        ये तो हुई वे बातें जो आपको हल्का-फुल्का करती हैं अब आइए कुछ गम्भीर मसलों पर भी चर्चा कर लें... इस छिपकली से 'डरने' और फिर छिपकली के 'मरने' से मध्यवर्गीय मानसिकता की एक झलक मिल जाती है। इसे यूँ मान लें कि मध्यवर्गीय लड़की, जो कल तक छोटी-छोटी तमाम चीज़ों से डरती थी, वो बड़ी होकर, इस दुनियाँ का सामना करने को तैयार हो जाती है (ख़ास तौर से शादी के बाद)।
        भारत का मध्यवर्ग ही भारत की संस्कृति सबसे बड़ी पहचान है। इस वर्ग को जो ज़िम्मेदारियाँ निभानी होती हैं, उनका कोई ओर-छोर नहीं है। अनुपात में सबसे अधिक शिक्षित, सभ्य, संस्कारवान और सामाजिक लोग आपको मध्यमवर्गीय परिवारों में ही मिलेंगे। परिवार नियोजन करना, बेटे के साथ-साथ बेटी को भी पढ़ाना, बेटी के लिए शादी के ख़र्च की व्यवस्था रखना, पति-पत्नी में बराबरी के संबंध होना, पति-पत्नी का एक दूसरे के लिए वफ़ादार होना आदि ऐसी कई विशेषताएँ हैं जो आपको मध्यवर्ग में देखने को अधिक मिलेंगी।
        एक अध्ययन के अनुसार भारत के किसी बड़े नगर में मध्यवर्गीय परिवार को जीवनयापन करने के लिए कम से कम 25 हज़ार रुपया महीना चाहिए। जबकि परिवार में पति-पत्नी और दो बच्चे हों साथ ही उनके माता और पिता भी साथ रहते हों। कितने मध्यवर्गीय परिवार होंगे जिनका मुखिया 25 हज़ार कमा रहा होगा ? लेकिन फिर भी इन परिवारों को अपना टीम-टाम ऐसा बनाकर रखना होता है कि खाते-पीते लगें, तो फिर कैसे चलते हैं ये घर ?
        बच्चे पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी करते हैं या ट्यूशन पढ़ाते हैं। गृहणी का योगदान घर के काम के साथ-साथ गृह उद्योग जैसे- अचार, पापड़, मसाले, सिलाई आदि रहता है या फिर वह भी नौकरी करती है। घर के बुज़ुर्ग भी कुछ न कुछ करते रहते हैं जिससे पैसा की आमद हो। इन घरों के मुखिया नशे की आदतों से बहुत कम जुड़े होते हैं। अपने परिवार की ज़िन्दगी को बेहतर बनाने की सोच में नशा, जुआ, आवाराग़र्दी जैसी बुरी आदतों के लिए समय ही कहाँ होता है !
        कोई न कोई ज़रूरत की चीज़ ख़रीदने की चिन्ता, परिवारीजन के इलाज की फ़िक्र या सामान्य मनोरंजन से जुड़ा कोई ख़र्चा हर समय दिमाग़ में बना रहता है। एक और भी अंतरद्वंद भी हमेशा साथ चलता रहता है। वह है मज़दूर या निम्न वर्ग से बेहतर होना और उच्चवर्ग से कमतर होना। जब ये निम्नवर्ग की तुलना से ख़ुद को अच्छी स्थिति में पाते हैं तो राहत और ख़ुशी मिलती है। जब उच्चवर्ग की जीवनशैली देखते हैं तो मन मसोसकर रह जाते हैं। इस तरह मध्यवर्गीय जीवन 50-50 वाली स्थिति में रहता है। आधे ख़ुश तो आधे दुखी।
        जिसे मंहगाई की मार कहते हैं वह भी मध्यमवर्ग को सबसे अधिक प्रभावित करती है। गैस सिलेण्डर से लेकर रेल-बस किराया तक, पढ़ाई की फ़ीस से लेकर बिजली के बिल तक, किराने से लेकर सब्ज़ी तक, चाहे कोई भी क्षेत्र हो कहीं न कहीं से बात मध्यमवर्ग को ही प्रभावित करती है। इस बार, जो मानसून बेकार गया, उसका सबसे ज़्यादा असर मध्यवर्ग पर ही होने वाला है। मध्यमवर्ग की शिकायतें सामान्यत: सरकार के पास कम ही पहुँचती हैं। इस वर्ग के लोगों को लड़ने-भिड़ने और कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने का समय कम होता है। ये झगड़ों, आन्दोलनों, प्रदर्शनों आदि से बचने की कोशिश करते हैं और अपनी परेशानियों को खुलकर समाज में लाने से भी कतराते हैं। इसका कारण है, इनकी एक 'हिचक' जो इन्हें जीवन संघर्ष के समय यह शिक्षा देती है कि किसी तरह से जीवन-यापन करना और परिवार को संरक्षित करना ही परम ध्येय है। यदि हम ऐसे झगड़ों में पड़े कि जिनके कारण हमारा समय और जमा पूँजी नष्ट हुई तो हम बरबाद ही होंगे। इसीलिए जब-जब मध्यवर्ग ने आन्दोलन किए हैं तब-तब इन आन्दोलनकारियों द्वारा हिंसात्मक घटनाएँ और आन्दोलनों की अपेक्षा बहुत ही कम हुई हैं।
        समाज में सामान्यत: जो चरित्र की परिभाषा है वह हमें सबसे अधिक मध्यवर्ग में ही मिलेगा। राष्ट्रीय चरित्र को समझने-समझाने की चर्चाएँ इसी वर्ग की महफ़िलों में अक्सर होती हैं। भारत के भविष्य को बेहतर बनाने की ज़िम्मेदारी के भार को अपने कंधों पर आगे बढ़ते हुए मध्यमवर्ग के युवक-युवतियों को मैं सलाम करता हूँ और सही मायने में मेरे और भारतकोश के प्रेरणा स्रोत भी वही हैं।

इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक


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