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10:32, 27 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण

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फ़ेसबुक पर भारतकोश (नई शुरुआत) भारतकोश
फ़ेसबुक पर आदित्य चौधरी आदित्य चौधरी

विज्ञापन लोक -आदित्य चौधरी


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        हमें पता नहीं है कि जीने से पहले और मरने के बाद हमारा क्या होता है ? यह भी कुछ निश्चित पता नहीं है हम किस लोक से आते हैं और किस लोक को जाते हैं, लेकिन इतना अवश्य निश्चित है कि हम जिस लोक में रह रहे हैं, इसे ‘इहलोक’ कहते थे। आप इस 'थे' से चौंके होंगे ? कारण यह है कि पहले यह 'इहलोक' था और अब यह 'विज्ञापन-लोक' है और आपको 'उपभोक्ता' का चोला पहनकर इस विज्ञापन-लोक में रहना है। विज्ञापन एजेन्सियाँ हमारी चित्रगुप्त हैं और उनके द्वारा लिखा गया जीवन ही हम जीते हैं।
        जैसे नेताओं को हम वोटर और वकीलों को हम क्लाइंट दिखाई देते हैं, वैसे ही विज्ञापन एजेंसियों और विक्रेता को हम ग्राहक और उपभोक्ता दिखाई देते हैं। हरेक दुकानदार मरने से पहले अपनी औलाद को वसीयत के साथ साथ एक नसीहत भी देकर मरता है-
"मेरे बच्चों हमेशा ध्यान रखना कि मौत और ग्राहक का क्या पता कब आ जाये।"
जब हम ग्राहक बनकर किसी दुकान पर जाते हैं तो दुकानदार जो हमसे बहुत अच्छा व्यवहार करता है उसका मतलब आप लगा सकते हैं कि वो हमें अपने बाप की नसीहत के हिसाब से हमें 'क्या' समझ रहा होता है।
ख़ैर...
        एक उपभोक्ता यूँही उपभोक्ता नहीं बनता, बल्कि उसे पहले ग्राहक बनने का संकल्प करके 'विज्ञापन-लोक' में अपनी जगह बनानी पड़ती है। हज़ारों विज्ञापनों से गुज़र कर, ग्राहक बनते ही लोग उसे उपभोक्ता बनाने का मिशन शुरू कर देते हैं। कितना भी चालाक ग्राहक हो, उसे बेचारा और मासूम उपभोक्ता बनना ही पड़ता है।
जब आप ग्राहक होते हैं, तब तो आप आदर के पात्र होते हैं, लोग आपको हाथों-हाथ लेते हैं-
"यस सर ! कॅन आई हॅल्प यू ?" जैसी बातें सुनने को मिलती हैं।
जब उपभोक्ता बन जाते हैं याने कि आप 'सामान' ख़रीद चुके होते हैं और कोई शिकायत लेकर दुकान पर वापस जाते हैं, तो फिर आपको जो सुनने को मिलता है, वह ये है-
"एक मिनट भाई... ज़रा ग्राहक को भी तो देख लूँ... आपने हमारी शॉप से ही ली थी क्या ?... ये तो सर्विस सेन्टर पर दिखाइये... अब काम नहीं कर रही तो हम क्या करें, हमारे घर में तो बनती नहीं... गारंटी तो कम्पनी देती है भैया ! कम्पनी में दिखाइए..."
        क्या हर उपभोक्ता मासूम और बेचारा होता है ? नहीं, कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने इस सच को बदल दिया है कि उपभोक्ता निरा भोंदू ही होता है। इसके लिए कौन-कौन सी पैंतरेबाज़ी से गुज़रना होता है, यह वही बता सकते हैं जिन्होंने कन्ज़्यूमर कोर्ट में अपना अस्थाई निवास बना लिया हो।
जब इतनी आफ़त है तो उपभोक्ता बनना ही क्यों ? लेकिन नहीं, जब 21वीं सदी में ग़लती से जन्म ले ही लिया है तो फिर उपभोक्ता बनना ही एक ऐसी घटना है, जो हमारे नसीब में हर हाल में बार-बार लगातार घटनी ही है।
        एक यात्रा पर गया तो फ़्लाइट में सामान गुम हो गया और सोचा कि कुछ ज़रूरत की चीज़ें ख़रीद ली जाएँ...
"कहाँ जा रहे हो ?" दोस्त ने पूछा
"ज़रा कुछ चीज़ें ख़रीद लाऊँ, जैसे टूथब्रश, पेस्ट शॅम्पू वग़ैरा..."
"ठहरो, मैं साथ चलता हूँ। तुम्हारे बस का नहीं है।"
"क्या मतलब कि मेरे बस का नहीं है ? ये भी कोई ऐसा सामान है, जिसे ख़रीदने के लिए कोई ख़ासियत चाहिए... हुँह ?" मैंने अकड़ कर कहा
"ऐसा है भैया ! तुम बाज़ार-वाज़ार तो जाते हो नहीं... तुम्हें पता ही नहीं है कि दुनिया में क्या चल रहा है ?"
"वाह ! मैं 'भारतकोश' चला रहा हूँ और मुझे ये नहीं पता कि दुनिया में क्या चल रहा है ?" मैं और ज़्यादा अकड़ गया
"तुम्हारी मर्ज़ी..."
        मैं बहुत आत्मविश्वास के साथ पास की दुकान पर पहुँचा और यह सोचने लगा कि किस तरह की मुद्रा और हाव-भाव का प्रदर्शन करूँ कि दुकानदार मुझे एक बहुत अनुभवी ग्राहक मान ले...वो बात अलग है कि असल में असमंजस की हालत ऐसी थी, जैसी कि न्यूटन की पेड़ से सेब टपकने के बाद रही होगी। मैं यह सब सोच ही रहा था कि दुकानदार ने पूछ लिया-
"हाँ सर ! क्या चाहिए ?"
"ज़रा एक टूथपेस्ट देना"
"कौन सा ?"
"कोई भी..."
"स्मॉल या लार्ज"
"छोटा दे दो"
"कौन सा फ़्लोराइड वाला या नॉर्मल ?"
"नॉर्मल"
"झाग वाला या नार्मल"
"नॉर्मल"
"सेन्सटिव दाँतों के लिए या नॉर्मल दाँतों के लिए ?"
"नॉर्मल दाँतों के लिए"
"सॉल्ट वाला या नॉर्मल ?"
"नॉर्मल"
"शुगर फ़्री या नॉर्मल ?"
"नॉर्मल"
"ओ. के."
"एक टूथब्रश भी दे दो"
"कौन सा ?"
"कोई भी..."
"कौन सा सॉफ़्ट, मीडियम या हार्ड ?"
"मीडियम"
"अनईविन ब्रिसल्स वाला या नॉर्मल ?"
"नॉर्मल"
"विद टंग क्लीनर या नार्मल ?"
"नार्मल"
मैं उसके सवाल के जवाब बड़ी ही लापरवाही से देने का अभिनय कर रहा था कि कहीं ये राज़ न खुल जाय कि मैंने कभी ऐसी चीज़ों की ख़रीदारी नहीं की। मैंने ख़रीददारी जारी रखते हुए कहा-
"एक शॅम्पू भी देना"
"कौन सा ?"
"कोई भी..."
"ड्राई हेयर के लिए या नार्मल"
"कौन-कौन से हैं ?"
इतना कहते ही वो मुस्कुरा गया और बड़े अपनेपन से बोला-
"सर! आप कभी बाज़ार नहीं जाते हैं ना... नौकर ही करते होंगे ख़रीददारी... आपके बाल बहुत सॉफ़्ट हैं, आपको मैं अपने हिसाब से ही शॅम्पू देता हूँ..."
मेरी सारी हेकड़ी हवा हो गई थी। मैंने पलटकर देखा तो मेरे मित्रवर खड़े मुस्कुरा रहे थे।
"हो गई शॉपिंग चौधरी सा'ब... अब चलें..."
वापस पहुँचे तो टी.वी पर विज्ञापन चल रहा था...
'विटामिन ए और के युक्त... प्रोटीन से भरपूर... '
मैंने समझा, कोई स्वास्थ्य से संबंधित खाने की दवाई है, वो निकला शॅम्पू...
"ये तो शॅम्पू का विज्ञापन था ?... ऐसा लगा जैसे कोई स्वास्थ्यवर्धक दवाई है... खाने के लिए... ?" मैंने कहा
"गंजों के शहर में कंघा और अंधों के शहर में शीशा बेचना ही विज्ञापन का मूल मंत्र है" मित्र ने फ़रमाया
आइए वापस चलते हैं...
        एक लडके ने कुछ साल पहले एक मशहूर टूथपेस्ट कंपनी में संपर्क किया और कहा- "यदि आप मुझे मुनाफ़े का उचित प्रतिशत देने को तैयार हैं, तो मैं बिना ख़र्च आपके टूथपेस्ट की बिक्री को 15 से 25 प्रतिशत तक बढ़ा सकता हूँ।" बात तय हो गई और कमीशन का प्रतिशत भी, तब लड़के ने कम्पनी वालों से कहा-
"आप अपने टूथपेस्ट की ट्यूब के छेद को बड़ा कर दीजिए... बिक्री बढ़ जाएगी।"
सिर्फ़ इतना ही करने से, उस टूथपेस्ट की बिक्री रातों-रात डेढ़ गुनी बढ़ गई। आज से क़रीब 25 साल पहले टूथपेस्ट की ट्यूब का छेद आज के मुक़ाबले मुश्किल से आधा ही होता था।
डॉक्टर की क्या राय रहती है इन उत्पादों के संबंध में-
"डॉक्टर सा'ब ! कौन सा टूथपेस्ट इस्तेमाल करना चाहिए मुझे ?"
"अगर आपके दाँत स्वस्थ हैं, तो जिस किसी टूथपेस्ट का स्वाद आपको पसंद हो, वही इस्तेमाल करें"
"और अगर कुछ गड़बड़ है, तो ?"
यदि दाँतों में कुछ ख़राबी है, तो डॉक्टर ऐसा टूथपेस्ट लिखते हैं, जो सिर्फ़ दवाई की दुकानों पर ही मिलता है।
अब ' टूथब्रश'
"डॉक्टर सा'ब ! कौन सा टूथब्रश इस्तेमाल करना चाहिए मुझे ?"
"जो कि आपको सुविधाजनक लगे।"
अब शॅम्पू
"डॉक्टर सा'ब ! कौन सा शॅम्पू इस्तेमाल करना चाहिए मुझे ?"
"जिसकी ख़ुश्बू आपको पसंद हो..."
ये था डॉक्टर का जवाब और यदि आपको बालों से संबंधित कोई समस्या है, तो डॉक्टर आपको ऐसा शॅम्पू या दवाई देगा जो सिर्फ़ दवाई की दुकान पर ही मिलेगी।
ठीक इसी तरह की बात और भी बहुत से उत्पादों के संबंध में है, जिनके कि हम विज्ञापन देखते-देखते बीच में थोड़ी बहुत फ़िल्म या सीरियल भी देख लेते हैं।
        सामान्यत: डेली सोप या 'सोप ओपेरा ' (सही है 'सोप ऑप्रा ') आदि ही कहा जाता है, इन विज्ञापनों से 'ग्रसित' धारावाहिकों को, इनकी शुरुआत तब हुई जब साबुन कम्पनी ने ऐसे नाटकों को प्रायोजित करना शुरू किया। ये रही होगी, क़रीब 1950 के आसपास की बात, जब अमरीका में यह शुरूआत हुई। 'ऑप्रा' शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'ऑपस' से बना है, जिसका अर्थ है 'कोई कार्य', विशेषकर संगीत आदि से संबंधित और इस शब्द को संस्कृत शब्द उपाय, उपक्रम या उपासा आदि से भी जोड़ा जा सकता है।
        साबुन का विज्ञापन तो शुरू-शुरू में एनी बेसेन्ट, रवीन्द्रनाथ टैगोर और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने भी किया। ये विज्ञापन स्वराज को ध्यान में रखते हुए थे और गॉदरेज कम्पनी के साबुन के थे। गुरु रवीन्द्रनाथ ने अख़बार में यह विज्ञापन दिया- "I know of no foreign soap better than Godrej, and I have made it a point to use Godrej soaps." बाद में अनेक नेताओं विज्ञापन दिए, जैसे जयप्रकाश नारायण ने 'नीम टूथपेस्ट' की वकालत की, तो टी.एन. शेषन ने 'सफल' की सब्ज़ियों की...
ख़ैर...
        बाद में हालात कुछ बदल गए, राज्य सभा और लोक सभा के सांसद जो फ़िल्म के क्षेत्र से आए हैं, सभी विज्ञापनों में भाग लेते हैं, जिसकी दलील ये है कि वे यह विज्ञापन एक कलाकार की हैसियत से कर रहे हैं न कि सांसद की। क्या ये मुमकिन है कि एक ही व्यक्ति, एक साथ दो व्यक्तियों की तरह व्यवहार करे। ऐसे में कुछ उत्साही सांसद सर ठंडा रखने से लेकर घुटने ठीक करने तक का तेल बेचते हैं, पानी साफ़ करने के फ़िल्टर से लेकर इंवर्टर तक के विज्ञापन करते हैं। दलील ये है कि ये उनका पेशा है। मेरे विचार से जिन्हें विज्ञापन देने हैं, उन्हें जन प्रतिनिधि नहीं होना चाहिए और जो जन प्रतिनिधि हैं, उन्हें व्यावसायिक विज्ञापन नहीं देने चाहिए...

इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक


रात नहीं कटती थी रात में -आदित्य चौधरी

रात नहीं कटती थी रात में, अब दिन में भी कटी नहीं
ऐसी परत जमी चेहरों पर, कोहरे की फिर हटी नहीं

मस्त ज़िन्दगी जी लो यारो, इसमें कोई हर्ज़ नहीं
संजीदा रिश्ते को तलाशो, तो दिन रातों चैन नहीं

दूर हैं हम जो तुमसे इतने, ये अपनी तक़्दीर नहीं
इल्म नहीं है हमको जिसका, साज़िश है तदबीर नहीं

वक़्त निगेहबाँ होता जब, ख़ाबों में रंग होते हैं
एक ख़ाब मैंने भी देखा, जिसकी कहीं ताबीर नहीं

उसे भुला दूँ जिसमें बसा था, पूरा ये संसार मिरा
शक़ की बिनाह पर मुझको छोड़ा, कोई बहस तक़रीर नहीं

इसने टोका उसने पूछा, क्यों किस्मत क्या खुली नहीं ?
रात नहीं कटती थी रात में, अब दिन में भी कटी नहीं




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