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:: एक गुमनाम किसान गजेन्द्र द्वारा, सरेआम फांसी लगा लेने पर...
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;एक गुमनाम किसान गजेन्द्र द्वारा, सरेआम फांसी लगा लेने पर...
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हर शख़्स मुझे बिन सुने आगे जो बढ़ गया
 
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तो दर्द दिखाने को मैं फांसी पे चढ़ गया
 
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जब बिक रहा हो झूठ हर इक दर पे सुब्ह शाम
 
जब बिक रहा हो झूठ हर इक दर पे सुब्ह शाम
‘आदित्य’ ये बुख़ार कैसा तुझपे चढ़ गया  
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10:30, 13 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

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हर शख़्स मुझे बिन सुने -आदित्य चौधरी

एक गुमनाम किसान गजेन्द्र द्वारा, सरेआम फांसी लगा लेने पर...

हर शख़्स मुझे बिन सुने आगे जो बढ़ गया
तो दर्द दिखाने को मैं फांसी पे चढ़ गया

महलों के राज़ खोल दूँ शायद में इस तर्हा
इस वास्ते ये ख़ून मेरे सर पे चढ़ गया

कांधों पे जिसे लाद के कुर्सी पे बिठाया
वो ही मेरे कांधे पे पैर रख के चढ़ गया

किससे कहें, कैसे कहें, सुनता है यहाँ कौन
कुछ भाव ज़माने का ऐसा अबके चढ़ गया

जब बिक रहा हो झूठ हर इक दर पे सुब्ह शाम
'आदित्य' ये बुख़ार कैसा तुझपे चढ़ गया



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