छो (१ अवतरण आयात किया गया)
छो (Text replacement - "__INDEX__" to "__INDEX__ __NOTOC__")
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
[[Category:आदित्य चौधरी की रचनाएँ]]
 
[[Category:आदित्य चौधरी की रचनाएँ]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__
 +
__NOTOC__
 
__NOTOC__
 
__NOTOC__
 
{{सम्पादकीय sidebar}}
 
{{सम्पादकीय sidebar}}

00:09, 26 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण

Bharatkosh-copyright-2.jpg

फ़ेसबुक पर भारतकोश (नई शुरुआत) भारतकोश
फ़ेसबुक पर आदित्य चौधरी आदित्य चौधरी

भूली-बिसरी कड़ियों का भारत -आदित्य चौधरी


Aryabhata.jpg

भारत की संस्कृति, विज्ञान और इतिहास की, कब कहाँ और कौन सी कड़ी खोई हुई है, इसकी चर्चा इस लेख में कर रहा हूँ।
          आइये फ़ारस (ईरान) चलते हैं। आज से हज़ार साल पहले का ईरान। रुस्तम-सुहराब के चर्चे हैं यहाँ, उनकी बहादुरी के क़िस्से बयान करते दास्तान गो अपनी रोज़ी रोटी चला रहे हैं तमाम इनाम इक़राम पा रहे हैं। जब फ़ारस (ईरान) के महान कवि फ़िरदौसी अपने विश्व प्रसिद्ध महाकाव्य, जिसमें 60 हज़ार शेर हैं, की रचना करते हैं तो उसमें भारत के समृद्ध लौह-शोधन और निर्माण का प्रमाण भी मिलता है। दसवीं शताब्दी के इस महाकाव्य ‘शाहनामा’ की तुलना व्यासों और सूतों के महाभारत और होमर के इलियड से की जाती है।
          इस रचना में अनेक दास्तान हैं, जिनमें दास्तान-ए-सोहराब मेरी पसंदीदा है। एक ज़माने में दास्तानगोई याने कथावाचन एक प्रसिद्ध विधा थी जो आज के टेलीविज़न से ज़्यादा लोकप्रिय थी। यह विधा दोबारा से अपने खोए गौरव की तलाश में है और कुछ सुधी जनों ने इसे फिर से शुरू किया है।
          ख़ैर…
          रुस्तम सुहराब के क़िस्से में रुस्तम के पास भी भारतीय तलवार होने का ज़िक्र किया गया है और सुहराब के पास भी।
          सुहराब की वीरता के लिए फ़ारसी में लिखा है-
चू शमशीर हिन्दी बे चंग आयदश ।
जे दरिया व अज़ कूह नंग आयदश ॥
अर्थ: जब वह अपनी हिन्दुस्तानी तलवार चलाता है तो समुन्दर और पहाड़ शर्म से गड़ जाते हैं।
रुस्तम-सुहराब के युद्ध का दृश्य कुछ इस तरह कहा गया है-
बेशमशीरे हिन्दी बर आविख़्तन्द ।
हमी ज़े अहन आतश रीख़्तन्द ॥
अर्थ: और अपनी म्यान से हिन्दुस्तानी तलवारें खींची और उनकी टकराहट से फ़िज़ा गुंजा दी। फिर ऐसा लगा कि तलवारों से चिंगारियाँ निकलने लगी हैं।
          आज वह लौह शोधन और इस्पात निर्माण के विज्ञान की कड़ी, कहाँ टूट गई? इतिहास में और पीछे जाएं तो क़ुतुब मीनार दिल्ली के पास खड़ी अशोक की लाट (अशोक स्तंभ) भारत के वैज्ञानिकों की गौरव गाथा कह रही है। इसमें आज तक ज़ंग न लगना, हमें इतिहास में दो हज़ार साल से भी पहले के अद्भुत और विकसित धातु-शास्त्र का प्रशंसक होने को मजबूर कर देता है।
          आइये थोड़ा दिल्ली में ही घूमें। मुग़लिया सल्तनत के बादशाह औरंगज़ेब के शाही हरम में झांकें। ये वही औरंगज़ेब है जो अपने समय का विश्व में सबसे धनाढ्य शासक माना जाता था, जिसका राजस्व अर्जन उस समय तीन अरब पैंतीस करोड़ तक पहुँच गया था। जिसने संगीत को इतना गहरा दफ़्न करने की ताक़ीद की थी कि कभी सर न उठा सके। ख़ैर…औरंगज़ेब की बेटी ज़ेबुन्निसा ने ढाका की मलमल का शरारा बनवाया है जिसे पहन कर वह जब औरंगज़ेब के सामने आई तो औरंगज़ेब ने यह कहकर मुँह फेर लिया कि इतने पारदर्शी कपड़े पहनने का क्या अर्थ है ? ज़ेबुन्निसा के बताने पर औरंगज़ेब का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। कहते हैं कि सात पर्तों को मिलाकर शरारा बना था। ये थी ढाका की विश्व प्रसिद्ध मलमल जिसका थान आज भी अंगूठी से निकाल कर दिखाया जाता है, लेकिन अब वह बात नहीं रही जो कि पूरे शॉल को ही अखरोट के छिलके में आ जाने पर हुआ करती थी। कभी ढाका हमारे देश का ही अंग था। जो आज बांग्ला देश की राजधानी है। ढाका की मलमल के संबंध में अनेक संस्मरण और क़िस्से मशहूर हैं।
          वैदिक साहित्य के लिए तो 3-4 हज़ार साल पहले जाना होगा। देखें क्या चल रहा है! आश्रमों में बैठे छात्र हाथों की विभिन्न मुद्राओं के साथ वैदिक ऋचाओं का सस्वर पाठ कर रहे हैं। गायन और कंप्यूटर की प्रोग्रामिंग के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली भाषा संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन व्याकरण समृद्ध भाषा है। इसमें कहे गए वेद विश्व की प्राचीनतम साहित्यिक रचना हैं। भारतीय साहित्य के वेदों, महाभारत और गीता का विशेष रूप से अंतरराष्ट्रीय महत्व है। ऋग्वेद के दसवें मंडल के 129वें सूक्त को, नासदीय सूक्त के रूप में ख्याति मिली। इसने पूरे विश्व को चमत्कृत कर दिया। इसमें ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के रहस्यात्मक तथ्य की व्याख्या है। वेदों की प्राचीनता आज भी अतुलनीय है। जिस समय वेदों की रचना हुई, उस समय यूरोप की स्थिति इतनी पिछड़ी हुई थी कि जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक मॅक्समूलर ने कहा है कि ‘जब ऋग्वेद की रचना हो रही थी तो यूरोप में लोग वस्त्र पहनना और घरों में रहना भी नहीं जानते थे’।
          वेदों के बाद उपनिषद और उसके बाद आया विश्व का विशालतम महाकाव्य महाभारत। महाभारत ने सदैव ही विश्व भर के विद्वानों को सम्मोहित किया है। जब महाभारत का ज़िक्र आता है तो होमर का इलियड और फ़िरदौसी का शाहनामा बहुत पीछे छूट जाते हैं। हमारे अद्भुत ग्रंथों की श्रृंखला में गीता का अनुवाद विश्व की सभी भाषाओं में हो चुका है। गीता हमें जीवन में सफल होने से लेकर गंभीर दर्शन और सन्न्यास तक की शिक्षा देती है। हम सन्न्यस्त होकर सामान्य रूप से सांसारिक जीवन कैसे जी सकते हैं अथवा सांसारिक होकर कैसे सन्न्यस्त रहें, यही गीता का मूल ज्ञान है जो सारी दुनिया को आकर्षित करता है। महात्मा गाँधी कहा करते थे कि मेरे पास कोई ऐसा प्रश्न नहीं है जिसका कि उत्तर मुझे गीता से मिल न जाए, हो सकता है पढ़ने के कुछ समय बाद मिले लेकिन मिलता अवश्य है।
          आइए अशोक के काल याने तीसरी चौथी शताब्दी ईसा पूर्व चलते हैं, देखें क्या चल रहा है! महर्षि पाणिनि विश्व प्रसिद्ध संस्कृत व्याकरण के ग्रंथ अष्टाध्यायी को पूरा करने में निमग्न हैं। ये उस तरफ़ कौन बैठा है ? ये तो महर्षि पिंगल हैं पाणिनि के छोटे भाई, इनकी गणित में रुचि है, संख्याओं से खेलते रहते हैं और शून्य की खोज करके ग्रंथों की रचना कर रहे हैं। साथ ही कंप्यूटर में प्रयुक्त होने वाले बाइनरी सिस्टम को भी खोज कर अपने भुर्जपत्रों में सहेज रहे हैं।
          कौन थे ये लोग ? क्या ये सब झूठ है ? आज के हालात देखकर तो ऐसा ही लगता है, सब कुछ जैसे विदेश से आ रहा है। दुनिया में न्यूटन और आइंसटाइन को विज्ञान का भगवान माना जाता है तो फिर ये कणाद ऋषि कौन थे जिन्होंने परमाणु की खोज की, आर्यभट्ट कौन थे, जिन्होंने ‘पाई’ के मान को पहचाना और दुनिया को बताया, वाराहमिहिर आदि क्या काल्पनिक थे ?
          यूरोप चलते हैं, पाँचवीं शताब्दी के रोम साम्राज्य में क्या हो रहा है। कभी हूण तो कभी गोथ वहाँ तबाही मचाए हुए हैं। इन गोथों ने तो पूरे रोम को बंधक बना लिया है। ज़बर्दस्त मांग है इनकी, आप जानते हैं वो क्या है? भारत के केरल राज्य की काली मिर्च। इन रोमनों की रिहाई 3000 पाउंड काली मिर्च देकर हुई है। यदि इंग्लैन्ड में चलें तो यहाँ राजकीय वस्त्रों को भारतीय नील से सजाया जा रहा है।
          ईराक़ में, जो प्राचीन मेसोपोटामिया था, भारतीय पार्सलों का ढेर लगा है। ईसा पूर्व की 1500 साल पहले समाप्त हुई सिंधु सभ्यता में मुहर लगा कर बनाए गए पार्सल ईराक़ में ? हो क्या रहा है यह ? असल में मोअन-जो-दाड़ो और हड़प्पा के व्यापारिक संबंध न केवल मेसोपोटामिया से हैं बल्कि मिस्र (ईजिप्ट) से भी हैं।
          थोड़ा पहले आएँ वापस भारत चलें। अंग्रेज़ों के या उससे पहले मुग़लों के शासन को देखें। भारत में शिक्षा के संबंध में कुछ भ्रांतियां अवश्य हो जाती हैं। इस संबंध में रूसी विशेषज्ञ विक्तर पेत्रोव के आंकड़ों को अवश्य देखना चाहिए।

शिक्षा पुरुष महिला
सम्राट अशोक के समय 27% 7%
मध्यकाल में 15% 3%
अंग्रेज़ी शासन में 11% 0.6%

भारत में पुत्री के विवाह की उम्र का शिक्षा पर सीधा असर रहा है।

कन्या विवाह उम्र
वैदिक युग में 16-18 वर्ष
मध्यकाल में 12-14 वर्ष
उत्तर मध्यकाल में 7-9 वर्ष

मध्यकाल में विदेशी मुस्लिम शासन में लड़कियों की सुरक्षा को लेकर उनका विवाह अत्यधिक कम उम्र में होने लगा और शिक्षा ख़त्म होती चली गई। मध्यकाल ने ही नहीं बल्कि अंग्रेज़ी शासन ने भी भारत में शिक्षा को समाप्त करने के पूरे उपाय किए। अंग्रेज़ों द्वारा, यूरोपीय शिक्षा प्रणाली तो लागू कर दी गई लेकिन बजट मात्र 1.7% ही रखा गया। याने विश्व भर में सबसे कम।
          आइए भारत के खेतों में घूम कर पुरवाई का आनंद लें, लेकिन ये क्या हो रहा है ? नील की खेती को अंग्रेज़ों ने हथिया लिया, बुनकर मज़दूरों के अंगूठे कटवा दिए। क्लाइव ने ऐसा क्यों करवाया, सिर्फ़ अंग्रेज़ी कपड़े को भारत में बेचने के लिए ? भारत ने तो कभी किसी के साथ ऐसा नहीं किया। ये सब तो हुआ ही लेकिन ये लगान ? 50 प्रतिशत लगान ? कौन दे पाएगा इतना लगान ? इस जानकारी के लिए शायद आश्चर्य बहुत छोटा शब्द है। इसका नतीजा क्या हुआ और यह लगान कैसे वसूल हुआ होगा इसके लिए, हिन्दी ग्रंथमाला में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का लिखा हुआ पढ़ना चाहिए, वे लिखते हैं “कुल दुनिया की लड़ाइयों में सौ वर्षों के अन्दर (सन् 1793 से सन् 1900 तक) सिर्फ़ पचास लाख आदमी मारे गए थे, पर हमारे हिन्दुस्तान के केवल दस वर्ष में (1891 से 1901 तक), भूख, अकाल, के मारे एक करोड़ नब्बे लाख मनुष्यों ने प्राण त्याग दिए।"
          अंग्रेज़ों ने लगान 10, 15, 25 आदि से बढ़ा कर 50 प्रतिशत कर दिया। साथ ही दस वर्षों की फ़सल के मूल्य का औसत लगा कर लगान को फ़सल में हिस्से की बजाय रुपयों में निश्चित कर दिया। अब हालत यह हो गई कि फ़सल के सस्ते होने पर भी किसान को पूर्व निश्चित लगान ही देना होता था, जो भुखमरी और अकाल मृत्यु का कारण बना। इन विषयों पर और अधिक जानने के लिए श्री धर्मपाल जी की पुस्तक ‘भारत की पहचान’ पढ़ें।

भारत के बारे में कितना भी लिखा जाए कम है इसलिए आगे की कड़ी फिर कभी…

इस बार इतना ही... अगली बार कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक

टीका टिप्पणी और संदर्भ




सभी रचनाओं की सूची

सम्पादकीय लेख कविताएँ वीडियो / फ़ेसबुक अपडेट्स
सम्पर्क- ई-मेल: adityapost@gmail.com   •   फ़ेसबुक