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हँस के रो गए -आदित्य चौधरी

मसरूफ़ अपनी ज़िन्दगी में इतने हो गए
सब मुफ़लिसी के यार, शोहरतों में खो गए

          शतरंज की बाज़ी पे वो हर रोज़ झगड़ना
          ख़ाली बिसात देखकर हम हँस के रो गए

इमली के घने साए में कंचों की दोपहर
अब क्या कहें, साए भी तो कमज़र्फ हो गए

          हर रोज़ छत पे जाके पतंगों को लूटना
          छत के भी तो चलन थे, शहरों में खो गए

सावन की किसी रात में बरसात की रिमझिम
अब मौसमों की छोड़िये, कमरे जो हो गए

          सत् श्री अकाल बोल के लंगर में बैठना
          अब इस तरहा के दौर, बस इक ख़ाब हो गए

बिन बात के वो रूठना, खिसिया के झगड़ना
जो यार ज़िन्दगी के थे, अब दोस्त हो गए



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