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अपना भी कोई ख़ाब हो -आदित्य चौधरी

इस ज़िन्दगी की दौड़ में, अपना भी कोई ख़ाब हो
अलसाई सी सुबह कोई, शरमाया आफ़ताब हो

वादों की किसी शाम से, सहमी सी किसी रात में
इज़हार के गीतों को गुनगुनाती, इक किताब हो

छूने के महज़ ख़ौफ़ से, सिहरन भरे ख़याल में
धड़कन के हर सवाल का, साँसों भरा जवाब हो

मिलना हो यूँ निगाह का, पलकों के किसी कोर से
ज़ुल्फ़ों की तिरे साये में, लम्हों का इंतिख़ाब हो

फ़ुरसत की दोपहर कोई, गुमसुम से किसी बाग़ में
मैं देखता रहूँ तुझे और वक़्त बेहिसाब हो


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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