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यह स्तुति अब तुम बंद करो -आदित्य चौधरी

यह स्तुति अब तुम बंद करो
अर्जुन ! जाओ अब तंग न करो
ऐसा कह मौन हुए केशव
सहमे से खड़े हुए थे सब

सहसा विराट बन हुए अचल
यह रूप देख सब थे निश्चल
गंभीर रूप रौरव था स्वर
नि:श्वास छोड़ फिर हुए मुखर

अर्जुन! सुन मेरी करुण कथा
जब कोई नहीं था बस मैं था
इन सूर्य चंद्र से भी पहले
मैं ही मैं था, मैं ही मैं था

मैं अगम अगोचर अनजाना
कोई साथ नहीं मैंने जाना
ब्रह्मांड-व्योम बिन जीता था
अस्तित्व, काल से रीता था

अमरत्व नहीं मैंने पाया
ना काल मुझे ग्रसने आया
कोई आदि नहीं मेरा होता
चिर निद्रा लीन नहीं होता

मुझको एकांत सताता था
मैं यूं ही जीये जाता था
फिर एक दिवस ऐसा आया
मैं रचूँ सृष्टि, मुझको भाया

मैंने ही सृष्टि रची अर्जुन !
अब सुनो बुद्धि से श्रेष्ठ वचन
मनुजों के लिए नहीं थी ये
सब जड़-चेतन समरस ही थे

पर मानव इसका केन्द्र बना
विज्ञान ज्ञान का सेतु तना
हर प्राणी पीछे छूट गया
मैं भी मानव से रूठ गया

मैंने रचकर संसार सकल
होते देखा सब कुछ निष्फल
कोई और नहीं खोता कुछ भी
मरता मैं हूँ कोई और नहीं

तुम मुझे सर्वव्यापी कहकर
कर रहे पाप सब रह रह कर
मैं ही हंता, सृष्टा मैं ही ?
कृष्ण, कंस दोनों मैं ही?

यदि स्वयं कंस में भी रहता
वह दुष्ट भला कैसे मरता
कुछ तो विवेक से भान करो
सद्गुणी जनों का ध्यान धरो

क्यों नहीं तुम्हें यह ज्ञान हुआ
किस कारण ये अज्ञान हुआ
अपराधी मुझको मान लिया
मैंने मुझको ही दंड दिया?

अर्जुन! कैसा है ये अनर्थ
मेरा, होना ही हुआ व्यर्थ
किसकी ऐसी अभिलाषा थी?
जो मेरी ये परिभाषा की?

रक्तिम आँखों के ज्वाल देख
अर्जुन, भगवन् का भाल देख
आँखें मलता सब सुना किया
जैसे-तैसे मन शांत किया

क्या हंता हो सकती माता
क्या काल पिता लेकर आता
जिसने तुमको यह जन्म दिया
उसको तुमने यम रूप दिया

यदि पिता मुझे तुम कहते हो
तो क्यों सहमे से रहते हो
मैं नहीं, देव-दानव कोई
निज ममता नहीं कभी सोई

दुष्टों में नहीं वास करता
मैं मित्र सखा हूँ उन सबका
जो करुणा का रस पीते हैं
समदृष्टि भाव से जीते हैं

कण-कण में बसा नहीं हूँ मैं
सद हृदय ढूँढता शनै: शनै:
और फिर उसमें बस जाता हूँ
जीवन की गीता गाता हूँ


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