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; दिनांक- 12 दिसंबर, 2017
 
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भारत-पाकिस्तान की दुश्मनी को लेकर काफ़ी लिखा और बोला जा रहा है। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद पूरे भारत में एक जोश और संतुष्टि का माहौल बना है। इस कार्यवाही के बाद पाकिस्तान लगभग चुप है, जिसका कारण है कि इस सर्जिकल स्ट्राइक को अंतरराष्ट्रीय नियमों और क़ानून के मुताबिक़ हॉट पर्सुइट (Hot pursuit) की मान्यता प्राप्त होना।
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|| मनहूसियत के मारे ||
हॉट पर्सुइट याने ‘किसी आधिकारिक सशस्त्र दल (जैसे सेना या पुलिस) द्वारा अपराधियों का अपराध करते ही त्वरित पीछा करना। इस पीछा करने और अपराधियों के ख़िलाफ़ कार्यवाही करने में देश या राज्य की सीमा पार कर जाने को अंतरराष्ट्री सीमा उल्लंघन नहीं माना जाता है। इसमें सामान्य रूप से किसी स्वीकृति या सूचना की भी आवश्यकता नहीं होती और इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त है।
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इस मुद्दे पर कुछ विवाद भी सामने आए हैं। जिनमें से एक मुद्दा है नदियों के पानी का। विश्व भर में जलसंधियों के आधार पर नदियों के जल का बँटवारा होता है। जिसे भंग नहीं किया जा सकता, लेकिन अब ऐसा होना मुमकिन है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्सटाइन ने कहा था कि भविष्य में युद्धों के कारण जल-विवाद ही होंगे। अब यह सामने आने लगा है। नदियों के पानी बंटवारे का विवाद हमारे देश में राज्यों के आपसी विवाद का कारण भी है। जैसे फ़िलहाल में कावेरी का विवाद।
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प्रकृति कहिए या ईश्वर कहिए, उसने पृथ्वी पर जो कुछ भी पैदा किया उसमें एक उल्लास पूर्ण गति अवश्य दी। मनहूस उदासी या आडम्बरी गंभीरता किसी भी जीव में नहीं दी। यहाँ तक कि वनस्पति में भी एक उल्लास से भरी हुई विकास की गति होती है। सूरजमुखी का फूल सूर्य को ही तकता रहता है और सूर्य जिस दिशा में जाता है उसी दिशा में वह मुड़ जाता है। फूलों की बेल, सहारे तलाश करती रहती हैं और जैसे अपनी बाहें फैलाकर सहारे को पकड़ ऊपर बढ़ती जाती हैं।
एक बात हमें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि चीन और पाकिस्तान से चाहे रिश्ते कितने भी मधुर हो जाएँ, नदियों के जल का विवाद होना अवश्यम्-भावी है। ब्रह्मपुत्र के पानी को लेकर इस समय चीन जो कुछ कर रहा है उसकी वजह पाकिस्तान नहीं है। पाकिस्तान पर तो वह बेवजह एहसान दिखा रहा है। ब्रह्मपुत्र के पानी को लेकर तो चीन के इरादे बहुत पहले से ही नेक नहीं हैं।
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माओ का शासन प्रारम्भ होते ही चीन ने नदियों का रास्ता बदलना और नहरों का निर्माण शुरू कर दिया था जिसका कारण था आधे चीन में सूखा और रेगिस्तान साथ ही बाक़ी आधे में बाढ़। चीन में कई वर्ष शिक्षा बन्द करके सबको नदियों का बहाव मोड़ने में लगा दिया गया था।
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आप सड़क से एक पिल्ला उठा लाइये। सारा दिन घर में धमा-चौकड़ी मचाए रहेगा। कहने का सीधा अर्थ यह है जिसे हम सभी जानते ही हैं कि जीवन का अर्थ ही उत्सव और उल्लास है। प्रत्येक मनुष्य का प्रत्येक बच्चा जन्म से ही नृत्य, गायन, वादन, चित्रकारी, मूर्तिकारी, खेल जैसी आदि प्रतिभाओं से परिपूर्ण होता है। जिज्ञासा से भरा खोजी स्वभाव प्रत्येक बच्चे का स्वाभाविक गुण होता है। यह स्थिति मानसिक रूप से दिव्यांग बच्चों में भी होती है। मैंने बड़े क़रीब से देखा है ऐसे बच्चों को जिनकी मानसिक क्षमता हटकर होती हैं और जिन्हें हम मानसिक रूप से अविकसित या विशिष्ट रूप से विकसित मानते हैं। इन बच्चों में भी प्रसन्नता और उल्लास का भाव भरपूर होता है।
इसलिए भारत सरकार को यह अभी से तय करना होगा कि भावी योजनाएँ क्या होंगी। इन विवादों को निपटाने में कुर्सी-मेज़ और पेन-काग़ज़ काम नहीं आएँगे बल्कि सशक्त और आधुनिक तकनीक से लैस सेना काम आएगी। सेना की तनख़्वाह में बढ़ोत्तरी, प्रत्येक नागरिक की अनिवार्य रूप से सैन्य शिक्षा, सैन्य शिक्षा में स्त्रियों की बराबर भागेदारी और प्रत्येक नागरिक में राष्ट्रीय भावना का अनवरत संचार जैसे सुधार ही हमें एक सुरक्षित राष्ट्र का गौरवमयी नागरिक बना सकते हैं।
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दूसरा विवाद है, कुछ एक भारतीय फ़िल्मी अभिनेताओं द्वारा पाकिस्तानी कलाकारों का पक्ष लेना। इसमें पहली बात यह है कि इस तरह के अभिनेता कोई ज़िम्मेदार क़िस्म के इंसान नहीं है। इससे पहले भी इनकी ग़ैरज़िम्मेदाराना हरक़तें सामने आई हैं जिनकी चर्चा करना व्यर्थ है।
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समस्या तब शुरु होती है जब धीरे-धीरे बच्चा बड़ा होने लगता है तो अधिकतर माता-पिता (या अन्य अभिभावक) उसकी इन प्रतिभाओं को बड़े गर्व के साथ समाप्त करने में लग जाते हैं। इसमें स्कूल भी अपनी भूमिका बख़ूबी निबाहता है। अधिकतर स्कूलों में शिक्षा जिस तरीक़े से दी जा रही है वह बेहद शोचनीय अवस्था है। पढ़ाई में सृजनात्मकता जैसा कुछ भी नहीं होता। उन्हें वह नहीं सिखाया जाता जोकि उनके व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होगा और वे स्वयं अपनी सफलता का रास्ता चुन सकेंगे बल्कि उनको एक पारंपरिक तरीक़े की पढ़ाई दी जाती है जिससे वे कुछ नया करने की बजाय ख़ुद को किसी न किसी जॉब के लायक़ बनाने में लग जाते हैं।
समझना तो आम जनता को है जो कि फ़िल्मी कलाकारों को हीरो समझने लगती है और उन्हें असली ज़िन्दगी में भी बढ़िया इंसान मानने लगती है। तमाम एक्टर ऐसे हैं जो पर्दे पर खलनायक की भूमिका करते हैं लेकिन असल ज़िन्दगी में एक बेहतरीन इंसान हैं, ठीक इसका उल्टा नायक की भूमिका करने वाले के साथ भी हो सकता है। इसलिए जनता को अपने हीरो पर्दे से नहीं बल्कि असल ज़िन्दगी से ही चुनने चाहिए।
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कलाकार भी इंसान ही होता है और उसका भी अपना देश और देशभक्ति होती है। पाकिस्तानी कलाकारों की देशभक्ति उनके पाकिस्तान के लिए है। उनसे भारत के लिए वफ़ादारी की उम्मीद करना फ़ुज़ूल की बात है। पाकिस्तानी कलाकार अपनी कमाई को पाकिस्तान ले जाता है और वहीं टॅक्स देता है, संपत्ति ख़रीदता है और ख़र्चा करता है। पाकिस्तान चाहे आतंकी देश हो या अहिंसावादी उस पाकिस्तानी कलाकार के लिए तो वही उसका देश है।
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महान विचारक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा भी है कि स्कूलों में बच्चों को ‘क्या सोचा जाय सिखाने की बजाय कैसे सोचा जाय’ यह सिखाना चाहिए। इस आउटडेटेड उबाऊ शिक्षा पद्धिति के कारण बच्चों के भीतर की उमंग और उल्लास ख़त्म होने लगता है। ओढ़ी हुई गंभीरता मनहूसियत भरी उदासी उनका स्थाई स्वभाव बन जाता है। बच्चों को यह मौक़ा ही नहीं दिया जाता वे जान सकें कि उनमें कौन सी विशेष प्रतिभा है। बच्चों की मार्कशीट ही उनकी योग्यता की पहचान बन जाती है।
अब ज़रा सोचिए कि हम पाकिस्तानी आतंकवाद में उस कलाकार का हिस्सा मानें या नहीं। जब सानिया मिर्ज़ा एक पाकिस्तानी से शादी करती है तो भारतवासी ये उम्मीद करते हैं कि वह अब भी भारत के लिए खेले और भारत को ही अपना देश समझे… तो बताइये कि पाकिस्तानी कलाकार भी तो शुद्ध रूप से पाकिस्तानी ही हुआ या नहीं? इस समय किसी पाकिस्तानी कलाकार की कमाई भारत में कराने से हम स्पष्ट रुप से पाकिस्तान की मदद ही कर रहे हैं।
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ऐसी बात नहीं है कि मुझे पाकिस्तान का कभी भी कुछ भी पसंद नहीं रहा। मेरे भी पसंदीदा शायर कुछ पाकिस्तानी रहे हैं जैसे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और अहमद फ़राज़। ग़ज़ल गायकों में मेंहदी हसन मेरे पसंदीदा हैं लेकिन पाकिस्तान के किसी शायर की ग़ज़ल पसंद करना एक अलग बात है और फ़िल्मी और टीवी कलाकारों को भारत में बिठाकर उसकी करोड़ों-अरबों की कमाई करवाना एक बिल्कुल अलग बात है।
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ज़रा बताइये कि मैंने कॅलकुलस, ट्रिगनोमॅट्री, वेक्टर, प्रॉबेबिलिटी आदि की पढ़ाई की… वह मेरे किस काम आ रही है… किसी काम नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि गणित मेरा पसंदीदा विषय था लेकिन मुझे उन विषयों या क्षेत्रों को छेड़ने का मौक़ा ही नहीं मिला जो मेरे प्रिय हो सकते थे या उनमें से कोई एक मेरा पॅशन बन सकता था।
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व्यवसाय में पिता अपने वारिस को सिखाता है कि बेटा-बेटी जितनी ज़्यादा मनहूसियत भरी गंभीरता तुम ओढ़े रहोगे तुमको उतना ही बड़ा बिजनेसमॅन समझा जाएगा। सरकारी कार्यालय में चले जाएँ तो ऐसा लगता है कि यहाँ अगर ज़ोर से हँस पड़े तो शायद छत ही गिर पड़ेगी क्योंकि उस छत ने कभी हंसी की आवाज़ सुनी ही नहीं (सुबह-सुबह सफ़ाई कर्मचारी ही शायद हँसते हों)। आलम ये है कि ओढ़ी हुई गंभीरता एक संस्कृति बन चुकी है। अब न तो इस मनहूस संस्कृति को क्या नाम दिया जाय यह समझ में आता और इसको ख़त्म करने का उपाय ही।
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एक सामान्य शिष्टाचार है कि किसी अजनबी से आपकी नज़र मिल जाय तो हल्का सा मुस्कुरा दें। यह शिष्टाचार यूरोपीय देशों में बहुत आम है। हमारे देश में यदि आप किसी अजनबी को देखकर मुस्कुरा गए और यदि वो लड़की हुई तो सोचेगी कि आप उसे छेड़ रहे हैं और यदि कोई लड़की किसी अजनबी लड़के को देखकर मुस्कुरा गई तो लड़का समझेगा कि यह प्रेम का निमंत्रण है।
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क्या आपको नहीं लगता कि ये सब बातें स्कूल में सिखाई जानी चाहिए? मेरी आज तक यह समझ में नहीं आया कि स्कूल में बच्चों को घर का काम करना क्यों नहीं सिखाया जाता। जैसे; चाय-बिस्किट-नाश्ता बनाना, कपड़े तह करना, कपड़े इस्तरी करना, शारीरिक सफ़ाई, माता-पिता से व्यवहार, कील-चोबे लगाना, कपड़ों में बटन लगाना, छोटे बच्चे की देख-भाल करना, बाग़वानी, आदि-आदि। इसके अलावा ‘डू इट योरसेल्फ़’ की बहुत सी चीज़ें सिखाई जानी चाहिए, ज़रूरतमंद लोगों की मदद क्यों, कब और कैसे करें यह उनके स्वभाव में आना चाहिए। यह सब लड़की-लड़कों को समान रूप से सिखाना चाहिए। खाना बनाना लड़कों को भी आना चाहिए। कामकाजी पति-पत्नी के घर में दोनों ही लगभग सभी काम करते हैं। ये सब बच्चों को स्कूल में सिखाया जाना चाहिए। कुछ व्यावहारिक प्रयोगों द्वारा और कुछ विडियो दिखाकर।
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यह तो ठीक है कि हम बच्चों को महान व्यक्तियों के बारे में बताकर उन्हें अच्छा इंसान बनने के लिए प्रेरित करते हैं लेकिन बच्चों को यह भी बताना चाहिए कि छोटे बच्चे घर के कामों में अपनी माता-पिता की मदद करके भी महान बनते हैं। उनको पता होना चाहिए कि यदि वे काम पर जाने से पहले अपने पिता की साइकिल-बाइक-कार को पोंछ देंगे तो यह कितना बड़ा काम होगा। रसोई में मां का हाथ बटाएँगे तो उनके द्वारा किया काम कितना महत्वपूर्ण होगा।
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ज़रूरत तो इस बात की है कि प्रत्येक स्कूल, कॉलेज में कुछ विषय अलग से पढ़ाए जाने चाहिए। जिनसे छात्राओं और छात्रों को अच्छा इंसान बनने में मदद मिले। ‘संस्कृति’ एक अलग विषय होना चाहिए और इस विषय के अधीन सब-कुछ सिखाना चाहिए।
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© आदित्य चौधरी
 
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| 4 अक्टूबर, 2016
 
 
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; दिनांक- 5 दिसंबर, 2017
 
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हिन्दी अकादमी दिल्ली में मेरे व्याख्यान का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है ताकि सनद रहे कि मैं कहीं भी मौजूद होता हूँ तो ब्रज को नहीं भूलता…
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“कोई आज भी है जो सुनता है…”
“हिन्दी की इमारत लोकभाषाओं के स्तंभों पर टिकी हुई है। लोकभाषाएँ हिन्दी के स्तम्भ हैं उसकी नींव हैं। सारी दुनिया में से लोकभाषाएँ एक-एक करके समाप्त हो रही हैं। विश्व में 6000 भाषा-बोलियों का रंग-बिरंगा संसार है जिसमें से हर पच्चीसवें दिन एक लोकभाषा सदा के लिए विलुप्त हो जाती है और उसके साथ ही एक संस्कृति, एक विज्ञान, एक कला, एक पद्धति, एक परम्परा और एक शब्दावली भी मर जाती है।
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ज़रूरत हिन्दी अकादमी की नहीं बल्कि लोकभाषाओं की अकादमी की है जैसे ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, मागधी आदि की अकादमी बननी चाहिए क्योंकि जब लोकभाषा का ही संरक्षण नहीं होगा तो हिन्दी में प्रयुक्त होने वाले शब्दों का मूल हम कहाँ खोजेंगे। हमारी समृद्ध हिन्दी एक इतिहास रहित खोखली भाषा बनकर रह जाएगी।”
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यह बात उन दिनों की है जब भारत पर अंग्रेज़ों का शासन था और देशभक्त क्रांतिकारी अंग्रेज़ों का विरोध कर रहे थे।
शायद आप नहीं जानते होंगे कि ब्रजभाषा अकादमी राजस्थान में तो है पर उत्तर प्रदेश में नहीं…
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एक अंग्रेज़ अधिकारी गांधीजी से मिलने आया। उससे काफ़ी देर महात्मा गांधी से बात-चीत की, कई विषयों पर चर्चा हुई। इसके बाद वह विदा लेकर चला गया। उसके जाने के बाद गांधी जी को बताया गया कि जिस रेलगाड़ी से वह अंग्रेज़ अधिकारी आ रहा था, उस रेलगाड़ी पर क्रान्तिकारियों ने बम फेंका और जिस रेल के डिब्बे में वह अंग्रेज़ बैठा था उस डिब्बे का आधा हिस्सा बम के कारण क्षतिग्रस्त हो गया। जिस व्यक्ति ने गांधी जी को यह सूचना दी उसने पूछा कि उस अंग्रेज़ अधिकारी ने आपसे यह चर्चा अवश्य की होगी। गांधीजी ने बताया कि उसने इस तरह की कोई चर्चा नहीं की।
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ज़रा सोचिए कि उस अंग्रेज़ ने बम फ़ेंकने की चर्चा क्यों नहीं की? इसका कारण है कि वह अंग्रेज़ नहीं चाहता था कि गांधी से वार्ता करते समय किसी ऐसी बात का ज़िक्र किया जाए जिससे कि वार्तालाप का माहौल असहज हो जाए। निश्चित रूप से इस वार्तालाप में दोनों ही सहज नहीं रह पाते यदि बम फ़ेंकने की घटना का ज़िक्र वह अंग्रेज़ अधिकारी कर देता।
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यदि आप चाहते हैं कि लोग आपकी उपस्थिति को पसंद करें तो आपको अपने 'सुभीता स्तर' (Comfort level) की तरफ़ ध्यान देना चाहिए। याने आपकी मौजूदगी में लोग कितना सहज महसूस करते हैं। जो लोग आपके सहकर्मी, मित्र, परिवारीजन आदि हैं उन्हें आपकी उपस्थिति में कितनी सहजता महसूस होती है। सदा स्मरण रखने योग्य बात यह है कि आप योग्य कितने हैं यह बात तो महत्वपूर्ण है ही बल्कि आपका सुभीता स्तर कितना है, यह अधिक महत्वपूर्ण है। एक सफल व्यक्तित्व का रहस्य बुद्धि, प्रतिभा या योग्यता में ही छुपा नहीं है बल्कि 'सुभीता स्तर' (Comfort level) इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
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आजकल लोग (ऍन्ड ऑफ़कोर्स लेडीज़ ऑलसो) सुनते नहीं हैं। बोलने से ज़्यादा ज़रूरी है सुनना। सुनने के तरीक़े हैं तीन… तीन क्या बल्कि चार।
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पहला तरीक़ा: सबसे घटिया तरीक़ा है। इसमें सुनने वाला कहने वाले की बात काट कर अपनी बात कहने लगता है। यह व्यक्ति सबको अप्रिय होता है।
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दूसरा तरीक़ा: कहने वाले को यह लगता रहता है कि सुनने वाला कुछ कहना चाहता है। सुनने वाले के हाव-भाव-भंगिमा और आँखें, कहने वाले को, ऐसा संदेश देती हैं। जिससे कहने वाला चुप हो जाता है या फिर कहता है ”कहिए ! आप कुछ कहना चाहते हैं क्या?” सुनने का यह तरीक़ा भी घटिया ही है।
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तीसरा तरीक़ा: यह तरीका बहुत सही है। इसमें सुनने वाला कहने वाले की बात ध्यान से सुनता है। अपने किसी हाव-भाव से यह महसूस नहीं होने देता कि वो ध्यान से नहीं सुन रहा।
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चौथा तरीक़ा: इसमें हम कहने वाले को कुछ कहने के लिए कहते हैं, कोई प्रश्न करते हैं और उत्तर ध्यान से सुनते हैं। इस तरीक़े में हम लोगों के मौन को भी सुनने की कोशिश करते हैं और उन लोगों को कुछ कहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जो बहुत कम ही बोलते हैं।
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इस चौथे तरीक़े से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मैं अक्सर उन लोगों को बोलने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ जो बहुत कम बोलते हैं।
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एक संस्मरण: मेरे यहाँ एक घरेलू कर्मी था। जिसका काम मेरे साथ रहकर मेरे छोटे-मोटे काम करना था। उसे सब कमअक़्ल मानते थे। मैं उससे कोई न कोई सवाल करके उसी प्रतिक्रिया सुन लेता था। एक दिन घर के सामने से हाथी जा रहा था। मैंने कहा कि कमाल की बात है धरती का सबसे बड़ा जीव है और कितना शांत है? घरेलू कर्मी बोला कि सबसे बड़ा है इसीलिए तो शांत है। मैं उसके जवाब से दंग रह गया। कितना सटीक उत्तर था उसका।
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ज़िन्दगी में अगर सुनना सीख लेंगें तो बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। लोगों ने सुनना तो लगभग बंद ही कर दिया है। किसी से मिलने जाते हैं तो नज़र मोबाइल फ़ोन पर ही बनी रहती है। मुझे बुज़ुर्गों से बात करने में ज़्यादा आनंद होता है क्योंकि उनमें से ज़्यादातर स्मार्ट फ़ोन इस्तेमाल नहीं करते। व्यस्तता बहुत बढ़ गई है। वैसे भी व्यस्तता एक फ़ैशन बन गया है। जिन्हें कोई भी ज़रूरी काम नहीं है उनकी व्यस्तता देखकर तो और आनंद होता है। इस व्यस्तता का दिखावा भी आपके सुभीता स्तर के लिए नुक़सानदायक है।
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© आदित्य चौधरी
 
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| [[चित्र:Aditya-Chaudhary-Delhi-Akadami.jpg|center|200px]]
 
| 1 अक्टूबर, 2016
 
 
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; दिनांक- 7 नवंबर, 2017
 
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ओलंपिक मेडल जीतने के बाद जो करोड़ों रुपए की बरसात खिलाड़ियों पर होती है, वह पैसा अगर उन कोच को दिया जाए जिन्होंने उस खिलाड़ी को बनाया तो ज़्यादा बेहतर नतीजे सामने आ सकते हैं। 10 सिंधु मिलकर एक पुलेला गोपीचंद नहीं बना सकतीं हैं जबकि एक पुलेला गोपीचंद 10 सिंधु बना सकता है...
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“After Japan, China will rise and gain prosperity and strength. After China, the sun of prosperity and learning will again smile at India.”
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ये शब्द किसी अंग्रेज़ अर्थशास्त्री के नहीं हैं बल्कि सन् 1902 में जापान और अमरीका की यात्रा के दौरान प्रसिद्ध वेदान्ती स्वामी रामतीर्थ के हैं। दो वर्ष अमरीका में बिताने पर स्वामी जी अमरीकियों के लिए अचम्भा बन गए थे। बर्फ़ गिरती रहती थी और रामतीर्थ निचले शरीर पर केवल धोती पहने उसमें चल देते थे। नंगे कन्धों पर बर्फ़ गिरती तो उसे झाड़ देते थे। लोग आश्चर्य से ऐसे व्यक्ति को देखते रह जाते थे।
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स्वामी जी ने जब संन्यास लिया तब वे गणित के प्रोफ़ेसर थे। भारत के लिए उनके वक्तव्य अत्यंत उत्साह से भरे होते थे। वे कहते थे-
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“भारत क्या है? मैं भारत हूँ। मेरा शरीर मानो उसकी भूमि है। मेरे दो पैर मालाबार और चोलमण्डल हैं। मेरे चरण कन्याकुमारी हैं। मेरा मस्तक हिमालय है। गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी प्रचण्ड नदियाँ मेरे केश हैं। राजस्थान और गुजरात मे मरुस्थल मेरा हृदय है। पूर्व और पश्चिम दिशाओं में मेरी भुजाएँ फैली हैं।” स्वामी विवेकानन्द के प्रभामंडल के कारण उनके ही समकालीन स्वामी रामतीर्थ को लोग ज़्यादा नहीं जान पाए। रामतीर्थ ने नयी पीढ़ी को जगाने का काम विवेकानन्द की तरह ही किया।
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भारत को एक व्यक्ति के रूप में देखना और भारत के प्रत्येक नागरिक को भारत के रूप में देखना स्वामी रामतीर्थ की अद्भुत धारणा वास्तव में ही सत्य है। ज़रा सोचिए कि यह बात कितनी महत्वपूर्ण है कि भारत ने किसी पड़ोसी पर कभी आक्रमण नहीं किया। जो विदेशी भारत में आकर शासन कर गए उनको भी बहुत हद तक भारत की परंपराओं में ढलना पड़ा।
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अाज जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं उसकी असंख्य शाखाओं की आस्था, मत, धार्मिक विश्वास, पूजा-अर्चना, अनुष्ठान, कर्मकाण्ड आदि में आश्चर्यजनक विविधताएँ हैं। भारतीय दर्शन परंपरा में ईश्वर के अस्तित्व और स्वरूप को लेकर विभिन्न मत हैं। कोई साकार ईश्वर में आस्था रखता है तो कोई निराकार में और कोई-कोई तो ईश्वर के अस्तित्व को ही नहीं मानते। कमाल यह है कि यह सब हिन्दू धर्म में शामिल हैं।
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प्राचीन ग्रंथों में बहुत सी जानकारियाँ ऐसी हैं जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। पौराणिक काल में राजा अपने पुत्रों में से राज्य के उत्तराधिकारी को चुनने के लिए अनेक प्रकार की शिक्षाओं की व्यवस्था करता था। अयोध्या के राजा दशरथ ने अपने पुत्रों से अनेक संप्रदायों के ऋषि-मुनियों और आचार्यों की चर्चा करवाने की व्यवस्था की थी। राजा दशरथ राम के पास लोकायतों (चार्वाक) के आचार्यों को भेजा जिन्होंने राम को चार्वाक दर्शन का ज्ञान देने की चेष्टा की जिसमें नास्तिक होने के लाभ बताए गए लेकिन किशोरवय राम की आस्था वैदिक परंपराओं में थी। इसलिए राम ने उन्हें नकार दिया और क्षमा मांग ली। इसके अलावा भी अन्य विचारधाराएँ थीं जिनके अनुयायी पर्याप्त मात्रा में थे और आज भी हैं। इसी क्रम में, आजीवक एक अत्यंत प्राचीन संप्रदाय है। जिसके साधु और भिक्षु मस्करी वेष में रहा करते थे। रावण जब सीता हरण के लिए आया था उस समय वह इसी आजीवक संप्रदाय के मस्करी वेष में आया था।
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भारत का यह रंग-रंगीला स्वरूप आज भी बदला नहीं है। विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को मानने वाले भारत में शान से रह रहे हैं और उन्हें संविधान में समान अधिकार प्राप्त हैं।
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कुछ ही समय पहले की बात है जब एक सिख, भारत का प्रधानमंत्री (मनमोहन सिंह), एक मुसलमान, राष्ट्रपति (अब्दुल कलाम), एक हिन्दू, सदन में विपक्ष के नेता (अटल बिहारी वाजपेयी) और एक जन्म से ईसाई, शासक पार्टी की अध्यक्ष (सोनिया गांधी) होने का विलक्षण संयोग हुआ। यह भी भारत में ही संभव है।
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नोट: (पाठकगण क्षमा करें, ऊपर के अनुच्छेद में मैंने श्रीमती सोनिया गांधी को ‘जन्म से ईसाई’ इसलिए लिखा है क्योंकि मुझे उनकी वर्तमान धार्मिक स्थिति पता नहीं है।)
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कुछ बातें मन पर छाप छोड़ जाती हैं और अपने भारतवासी होने पर और भी अधिक गर्व होने लगता है।
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अभी पिछले दिनों मुहम्मद अली जिन्हा की बेटी का देहावसान हुआ। लोगों को जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पाकिस्तान बनाने वाले पाकिस्तान के क़ायद-ए-आज़म की बेटी भारत में रहती थी! पाकिस्तान में न तो जिन्हा को और न ही उनकी बहन फ़ातिमा को समुचित सम्मान दिया गया। जिन्हा के इलाज में लापरवाही हुई और
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उनकी बहन फ़ातिमा तो चुनाव ही हार गयीं। जिन्हा की बेटी सम्मानपूर्वक भारत में रहीं और उन्होंने पाकिस्तान को कभी पसंद नहीं किया।
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© आदित्य चौधरी
 
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| 28 अगस्त, 2016
 
 
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; दिनांक- 2 नवंबर, 2017
 
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किसी व्यक्ति का सही मूल्याँकन उसके जीवन के किसी कालखंड से नहीं बल्कि उसके पूरे जीवनकाल से होता है।
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आजकल रानी पद्मावती (पद्मिनी) को लेकर काफ़ी हंगामाई बहस छिड़ी हुई है। कुछ कहते हैं कि पद्मावती कोई ऐतिहासिक चरित्र ‘नहीं है’ और कुछ कहते हैं कि ‘है’। अलाउद्दीन ख़लजी के चित्तौड़ आक्रमण के लगभग 237 वर्ष बाद, ई.सन् 1540 के क़रीब मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत नाम से एक महाकाव्य रचा।
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इस महाकाव्य के कुछ प्रमुख चरित्र; रानी पद्मिनी, राणा रतनसेन, अलाउद्दीन ख़लजी, राघव चेतन, गोरा-बादल और एक इंसानों की तरह बोलने वाला तोता हीरामन हैं।
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अब चूँकि इस विषय पर फ़िल्म बन रही है और काफ़ी चर्चा में है तो इसका कथानक उनको भी याद हो गया है जिनको नहीं था, ये फ़ेसबुक और वॉट्स ऍप की करामात है। इसलिए कथानक पर चर्चा व्यर्थ ही है।
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मलिक मुहम्मद जायसी के जीवन की घटनाएँ कहीं किसी इतिहास में दर्ज नहीं हैं। कथा-कहानियों से ही जायसी के जीवन का कुछ पता चलता है। चेचक से जायसी के चेहरे पर दाग़ हो गए और एक आंख चली गई। ‘जायसी’ उपनाम जायस (पहले राय बरेली और अब अमेठी का एक नगर) में रहने के कारण पड़ा। बाद में जायसी ने एक चमत्कारी सूफ़ी संत के रूप में प्रसिद्धी पायी।
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जायसी को अफ़ीम के नशे की लत थी। अफ़ीम का नशा आदमी को कल्पनालोक में ले जाता है। उस समय माज़ून (भांग से बनती है) और अफ़ीम का काफ़ी प्रचलन था। शराब में अफ़ीम मिला कर पीने का भी चलन था। जिसका ज़िक्र बाबर ने बाबरनामा में किया है। अकबर भी शराब में अफ़ीम मिलाकर पिया करता था।
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जायसी की मृत्यु के संबंध में एक काल्पनिक कथा प्रचलित है। कहते हैं कि जायसी अपने जादू से शेर बनकर जंगल में घूमा करता था। एक शिकारी ने इस शेर के रूप में जायसी को मार डाला।
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कुछ इतिहासकारों ने पद्मिनी के जौहर को काल्पनिक कथा बताया है। इस पर चर्चा बाद में पहले सिकंदर के भारत आक्रमण के समय घटी एक घटना का ज़िक्र-
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पाणिनि ने अग्रश्रेणय: नामक एक छोटे से नगर-राष्ट्र (या आज की भाषा में कहें तो क़बीले का) ज़िक्र किया है। जो इतिहास में यूनानी भाषा में परिवर्तित होकर अगलस्सोई हो गया। इन अगलस्सोई नागरिकों ने यूनानी आक्रांता सिंकंदर का जम कर मुक़ाबला किया। भारतकोश पर इसका विवरण इस तरह है:-
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* अगलस्सोई सिकंदर के आक्रमण के समय सिन्धु नदी की घाटी के निचले भाग में शिविगण के पड़ोस में रहने वाला एक गण था।
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* शिवि गण जंगली जानवरों की खाल के वस्त्र पहनते थे और विभिन्न प्रकार के ‘गदा’ और ‘मुगदर’ जैसे हथियारों का प्रयोग करते थे।
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* सिकन्दर जब सिन्धु नदी के मार्ग से भारत से वापस लौट रहा था, तो इस गण के लोगों से उसका मुक़ाबला हुआ।
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* अगलस्सोई गण की सेना में 40 हज़ार पैदल और तीन हज़ार घुड़सवार सैनिक थे। उन्होंने सिकन्दर के छक्के छुड़ा दिए, लेकिन अन्त में वे पराजित हो गए।
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• यूनानी इतिहासकारों के अनुसार अगलस्सोई गण के 20 हज़ार आबादी वाले एक नगर के लोगों ने स्वयं अपने नगर में आग लगा दी और अपनी स्त्रियों और बच्चों के साथ जलकर मर गए, ताकि उन्हें यूनानियों की दासता न भोगनी पड़े। यह कृत्य राजपूतों में प्रचलित जौहर प्रथा से मिलता प्रतीत होता है।
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अगलस्सोई की पहचान पाणिनिके व्याकरण में उल्लिखित अग्रश्रेणय: से की जाती है।
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भारत में अनेक कथाएँ हैं जो जन-जन में लोकप्रिय हुईं और इनमें से कई कथाओं के पात्र भारत की जनता के लिए श्रद्धेय हो गये।
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जैसे अाल्हा ऊदल, नल दमयंती, कच देवयानी आदि।
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आल्हा-ऊदल काव्य में लिखा है:-
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बड़े-बड़े चमचा गढ़ महोबे में
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नौ-नौ मन जामें दार समाय
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बड़े खबैया गढ़ महोबे के
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नौ-नौ सै चमचा खा जाएँ
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अब इसमें कहाँ सचाई तलाशी जाय? नौ मन दाल वाले चमचे और नौ सौ चमचे दाल खाने वाले आदमी?
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नल-दमयंती की कथा में नल की कथा दमयंती और राजा नल को एक इंसानों की तरह बोलने वाला हंस सुनाता है। कच-देवयानी की कथा में कच को पकाकर शुक्राचार्य को खिला दिया जाता है और वह पेट में जीवित हो जाता है। यदि कोई इन कथाओं का ऐतिहासिक महत्व पूछे या फिर वैज्ञानिक महत्व पूछे तो?
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इस प्रश्नों का कोई अर्थ नहीं है। ये तो कथाएँ हैं। इनके नायक-नायिका जन साधारण में कब और कितना महत्वपूर्ण बन जाएँ कोई नहीं कह सकता। अनेक व्यक्ति ऐसे हुए हैं जिनको अवतार और भगवान की मान्यता मिली है।
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रानी पद्मिनी के जौहर की घटना का पं. जवाहर लाल नेहरू ने ज़िक्र किया है। राजस्थान का इतिहास लिखने वाले कर्नल टॉड ने भी इस घटना का ज़िक्र किया है। आजकल कर्नल टॉड के इतिहास को कोई ख़ास मान्यता नहीं दी जाती साथ ही पं. जवाहर लाल नेहरू को भी इतिहासकारों की श्रेणी में नहीं माना जाता। मशहूर फ़ारसी इतिहासकार फ़रिश्ता ने जायसी के पद्मावत को इतिहास माना है।
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आज के इतिहासकार जायसी के पद्मावत की अनेक घटनाओं में विरोधाभास और इतिहास विरोधी तारीख़ों का उल्लेख करते हुए इसे इतिहास से अलग करते हैं। इतना अवश्य है कि आधुनिक इतिहासकारों के मत से तीन तथ्य ऐतिहासिक हैं; रतनसेन का चित्तौड़ में राजतिलक, ख़लजी का चित्तौड़ पर आक्रमण और चित्तौड़ में स्त्रियों द्वारा जौहर।
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अब प्रश्न यह उठता है कि हमारे देश में एक ऐसी हृदय विदारक घटना घटी और इस घटना को जन-जन में कभी न भूलने वाली एक याद के रूप में कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने लोकप्रिय कर दिया तो क्या कोई गुनाह कर दिया? हम सभी भारतवासियों को अपनी संस्कृति और गौरवशाली इतिहास पर गर्व तभी तो होगा जब इसको हमें बार-बार याद दिलाया जाएगा।
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एक नज़र फ़िल्म के कथानक पर भी डाली जाय- एक कल्पना तो जायसी ने की जिसके कारण पद्मिनी की कथा आज इतनी महत्वपूर्ण हो गई कि भारतवासी उसे अपनी अस्मिता और गौरव से जोड़ने लगे। दूसरी कल्पना फ़िल्म के लेखक ने की जिसमें अल्लाउद्दीन ख़लजी को स्वप्न में पद्मिनी के साथ विहार करते सोच लिया जो कि मनोवैज्ञानिक ढंग से संभव हो सकती है लेकिन समाज के लिए पूर्णत: नकारात्मक सोच है। कल्पना असीम होती है लेकिन कल्पना की अभिव्यक्ति सदैव सीमित और संयमित होती है।
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आज ख़लजी के स्वप्न में पद्मिनी को दिखाने का प्रयास है तो कल रावण के स्वप्न में सीता को दिखाने का प्रयास किया जाएगा और बहाना मनोविज्ञान और कला का लिया जाएगा। मेरा नज़रिया इस संबंध में स्पष्ट है लेकिन फ़िल्म के निर्माता लीला भंसाली के साथ हाथापाई या फ़िल्म के सेट को क्षति पहुँचाना भी ग़लत है। अदालत में जन हित याचिका एक सही और क़ानूनी रास्ता है।
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© आदित्य चौधरी
 
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| 17 अगस्त, 2016
 
 
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; दिनांक- 22 मई, 2017
 
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एक विदेशी पत्रकार ने एक आधुनिक नेता का इंटरव्यू लिया
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मुझसे एक प्रश्न पूछा गया: आत्मबोध, स्वजागरण, अन्तरचेतना, प्रबोधन (एन्लाइटेनमेन्ट) आदि शब्दों से क्या तात्पर्य है ?
पत्रकार: सुनने में आया है कि आपके यहाँ बलात्कार की क्लिप 10 से 15 रुपये में मिलती है। यह तो बहुत शर्मनाक है।
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नेता: बिल्कुल झूठ है सर जी! ये सब अफ़वाह है। ऐसा कुछ नहीं है।
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मेरा उत्तर: आपका व्यक्तित्व दूसरों का अनुसरण और नक़ल करके बना है। जाने-अनजाने ही न जाने कितने व्यक्तियों के व्यक्तित्व की विशेषताएँ, आदतें, हाव-भाव आदि आपके भीतर आ जाती हैं। आपको जब भी जहाँ भी कोई बात प्रभावित करती है तो वह आपके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है। किसी के; पैदल चलने का ढंग, बोलने का ढंग, गाने का ढंग आदि से आप इस क़दर प्रभावित रहते हैं कि उसे अपना लेते हैं।
पत्रकार: तो फिर सच क्या है?
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नेता: सच ये है सर कि क्लिप बिल्कुल मुफ़्त मिल रही है। कोई पैसा नहीं देना पड़ता। आप कहें तो आपको वाट्स एप कर दूँ?
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इसी तरह आपके सोचने की प्रक्रिया और सोचने का ढंग स्वयं का न होकर किसी न किसी के द्वारा निर्देशित होता है। आपको बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि आप क्या सोचें जबकि सिखाया यह जाना चाहिए कि आप कैसे सोचें। अनेक शिक्षाओं, अनुशासनों, उपदेशों, नसीहतों आदि के चलते आप एक निश्चित घेरे में सोचने का कार्य करते हैं। आपका दिमाग़, सूचनाओं और ज्ञान का गोदाम बन जाता है जिसमें किसी नए विचार का अंकुर फूटना नामुमकिन हो जाता है।
पत्रकार: जी नहीं मुझे नहीं चाहिए।… ये बताइये कि आपके यहाँ बिजली की बहुत समस्या है? आम आदमी के घरों में आपने अंधेरा कर रखा है?
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नेता: ये भी ग़लत सूचना है। घरों में अंधेरा होने की बात झूठी है। घर-घर में इन्वर्टर हैं। ऍल.ई.डी लाइट हैं, बैटरी वाली। साथ ही हम उनको इन्वर्टर चार्ज करने के लिए हर दो घंटे बाद एक घंटा बिजली देते हैं। हम अफ़ग़ानिस्तान से ज़्यादा बिजली की सप्लाई दे रहे हैं। … सर आख़िर हम नेता भी तो इंसान ही हैं। जनता का दुख-दर्द हम नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा।
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हालत यहाँ तक हो जाती है कि किस बात पर करुणा करनी है और किस पर क्रोध, यह भी दिमाग़ में कूट-कूट कर भर दिया जाता है। कोई धर्म और कोई जाति दे दी जाती है जिसको आपको मानना होता है। आपको बताया जाता है कि क्या सही है और क्या ग़लत। इस सब से बनता है आपका व्यक्तित्व। यह व्यक्तित्व आपका अपना नहीं है। आपके दिमाग़ में नए विचार नहीं हैं। ईश्वर, अल्लाह या जीसस का अनुसरण, आपने अपने मन से नहीं चुना है। आप एक जीवित रोबॉट भर हैं।
पत्रकार: आपकी पुलिस से जनता डरती है। पुलिस के पास जाने में घबराती है। ऐसा क्यों?
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नेता: डरने का क्या है जी… डरते तो लोग भूत-प्रेत से भी हैं पर भूत-प्रेत कोई डरने की चीज़ हैं। जब भूत-प्रेत होते ही नहीं तो उनसे डरना क्या?
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आप जाग्रत तब होते हैं जब आप अपने दृष्टिकोण से सब कुछ देखते हैं। अपने जीवन के निर्णायक और निर्माता आप स्वयं होते हैं। आपके विचार स्वयं आपके विचार होते हैं। आप स्वतंत्रता के मुक्त आकाश के नीचे अपनी धरती पर मुक्त विचरण करते हैं। दूसरे के कहे या लिखे को बिना विचारे मानते नहीं हैं। जब आपको पता होता है कि आप कितने स्वतंत्र हैं और कितने परतंत्र। आप ईश्वर को स्वयं ही समझने का प्रयास करते हैं, न कि दूसरों से पूछते फिरते हैं। आप अपने से छोटों और संतान पर अपने विचार लादते नहीं है बल्कि उन्हें भी स्वयं निर्णय लेने में सक्षम बनाते हैं।
पत्रकार: तो अाप कहना चाहते हैं कि आपके पास पुलिस है ही नहीं ये बस जनता का भ्रम है जैसे कि भूत-प्रेत?
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नेता: असल में हमारी पॉलिसी बहुत ज़बर्दस्त है सर! हम पुलिस को अपनी सीक्योरिटी में लगाए रखते हैं। जिससे पुलिस जनता के पास पहुँचती ही नहीं है तो जनता डरेगी कैसे? दूसरी बात ये है सर कि जब हमारी पुलिस से चोर, डाकू और बलात्कारी जैसे लोग नहीं डरते जबकि वे भी तो इंसान हैं… इसी समाज का हिस्सा हैं … तो फिर जनता को डरने की क्या ज़रूरत है ?
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इसी को कहते हैं एनलाइटेनमेंन्ट और इसके लिए ध्यान धरना बहुत लाभदायक है।
पत्रकार: आपके यहाँ सड़कों में गड्ढे हैं। बरसात में सड़कों पर पानी भर जाता है। इसका भी कोई जवाब है आपके पास ?
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नेता: हमारे कर्मचारी, दिन और रात गड्ढे भरने में लगे रहते हैं सर! हमारा देश बहुत बड़ा है। लाखों किलोमीटर सड़कें हैं। देश बड़ा होने से ट्रॅफ़िक भी ज़्यादा है। रोड ऍक्सीडेन्ट कम हों इसलिए हमको गड्ढे भी बना कर रखने पड़ते हैं। गड्ढों की वजह से स्पीड कम रहती है और ऍक्सीडेन्ट कम होते हैं।
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© आदित्य चौधरी
पत्रकार: आप अपने बारे में बताइये कि आप कितने पढ़े-लिखे हैं ?
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नेता: देश सेवा से फ़ुर्सत मिलती तभी तो पढ़ता…
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पत्रकार ने मौन धारण कर लिया और वापस चला गया।
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| 14 अगस्त, 2016
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; दिनांक- 19 मई, 2017
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सुसेवायाम्
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प्रिय मित्रो! जैसा कि आपने चाहा... मैंने एक कहानी और लिखी है। ज़रा देखिए कैसी है!
परम पिता श्रीमंत प्रजापति ब्रह्मा जी महाराज
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सिरी पत्री जोग लिखी मथुरा से ब्रह्मलोक कूँ
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'एक रात अचानक'
हमारी सबकी राम-राम आप सब को मिले।
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अपरंच समाचार ये है कि यहाँ सब कुशल है और आपके यहाँ तो सब कुशल होगा ही…
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यहाँ मौसम बरसात का है झमाझम चौमासे चल रहे हैं तो फिर थोड़ी बहुत तबियत भी ‘नासाज’ चलती है। बाक़ी सब आपकी ‘किरपा’ से ठीक-ठाक और सकुशल है। पिछले दिनों घनघनाती बारिश आई। घरों-चौबारों में तो बच्चे काग़ज़ की नाव चलाने लगे, गाँवों में कच्चे घर गिर गए, शहर में पक्के घरों की छत टपकने लगीं और अब आपसे क्या छुपाना, हमारा भी घर पुराना है तो उसकी छत भी टपकी। हमारे यहाँ कहते हैं ‘जितना नाहर (शेर) का डर नहीं है जितना कि टपके का डर है’। ख़ैर आप तो बादलों से ऊपर रहते हैं आपको क्या पता कि बारिश क्या है और ‘टपका’ क्या है।
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नवम्बर का महीना था। प्रदीप एक सुनसान रास्ते पर अकेला पैदल चला जा रहा था। दिमाग़ में लगातार एक के बाद एक चिंताएँ घुमड़ रहीं थीं। हलकी ठंड होने पर भी पता नहीं उसे क्यों पसीना अा रहा था ? तेज़ चलने की वजह से या तनाव के कारण।
  
बरसात से किसान की फ़सल बहुत ही अच्छी होने की संभावना बन रही है ब्रह्मा जी! । सब आपकी माया है… कहीं धूप कहीं छाया है।
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‘मैं इतनी तेज़ क्यों चल रहा हूँ , क्या चक्कर है ?… कहीं जल्दी तो पहुँचना है नहीं मुझे… धीरे चलता हूँ।’
बाक़ी सब आपकी किरपा है। सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा है, कुशल मंगल है। वैसे तो आपको पता ही होगा लेकिन फिर भी बता दूँ कि एक देश है फ्रांस वहाँ एक ट्रक ने जानबूझ कर सैकड़ों लोग कुचल डाले… उस दृश्य को देखकर दिल तो क्या पत्थर का पहाड़ भी पिघल जाता। मगर आपके ब्रह्मलोक में तो न ही सड़कें हैं और न ही ट्रक तो आपको इसका कोई अनुभव नहीं होगा। जब आपको कभी दर्द हुआ ही नहीं तो समझेंगे क्या प्रजापति जी! हमारे यहाँ कहते हैं कि ‘जाके पैर न फटी बिबाई वो कहा जाने पीर पराई’ फिर भी हम तो आपसे ही गुहार करते हैं भले ही आप सुनें न सुनें।
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श्रीमंत! हमारे देश में प्रजातंत्र है आप प्रजापति हैं तो इसके बारे में अच्छी तरह से जानते ही होंगे, अब आपके सामने हम क्या ज्ञानी बनें। प्रजातंत्र में जनता को स्वतंत्रता मिली हुई है, विशेषकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। इस स्वतंत्रता के लाभ क्या हैं हम साधारण जन समझ नहीं पाते लेकिन इसके नुक़सान भी हैं जो हमें बहुत दु:खी करते हैं। यह अभिव्यक्ति बच्चियों से बलात्कार करने में ज़्यादा की जा रही है। बलात्कार की घटनाएँ इतनी सामान्य हो चली हैं कि लोग अपनी दुश्मनी निकालने के लिए झूठे बलात्कार के आरोप लगाने लगे हैं। अभी पिछले दिनों दो पड़ोसियों में ज़मीन को लेकर विवाद हो गया दोनों ने एक दूसरे पर अपनी नाबालिग बेटियों पर यौनशोषण होने का झूठा आरोप पुलिस की उपस्थिति में लगाने की कोशिश की… बाक़ी सब सकुशल है, ठीक-ठाक चल रहा है।
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उसने चाल धीमी कर दी।
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‘काहे का कृषि प्रधान देश है भारत… दहेज़ प्रधान है… दहेज़ प्रधान… शादी तय हो गई और पैसा पास में एक भी नहीं…’
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वो धीमी आवाज़ में बड़बड़ाया।
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‘रितिका को अच्छी से अच्छी पढ़ाई करवाई और अब शादी में कम से कम दस लाख रुपए ख़र्च होंगे। अरे भैया! चार लाख तो उस मंगल के बच्चे ने लगा दिए, अपनी बेटी की शादी में और वो तो बस टॅम्पो चलाता है टॅम्पो।’
  
हमारे प्रदेश में अब चुनाव आने वाले हैं ब्रह्मा जी! तीन-चार पार्टियाँ हैं जो यहाँ दंगल में हिस्सा लेंगी। एक सामाजिक न्याय का बहाना बनाएगी तो दूसरी समाजवाद का, तीसरी अच्छे दिनों का और चौथी के पास तो पता नहीं क्या मुद्दा है। इस चुनाव में जीते कोई भी लेकिन हारेगी हमेशा की तरह जनता ही। चेहरों के अलावा कुछ भी नहीं बदलेगा (अाजकल तो सरकार बदलने पर बहुत से चेहरे भी नहीं बदलते)। विकास कार्यों में कमीशन, पोखर-तालाबों पर क़ब्ज़े, झूठे वादे, व्यक्तिगत लाभ देने की पेशकश, पैसा लेकर नौकरी, नेताओं, ब्यूरोक्रेसी और पुलिस का निरंकुश राज…
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‘कहाँ से लाऊँ इतना पैसा ?… कैसे बनेंगे ज़ेवर ?… कैसे होगी दावत ?… मेरी ससुराल वालों के पास भी कुछ नहीं है। अब क्या होगा… हे ईश्वर कुछ करो।’
  
आपके ब्रह्मलोक में प्रजातंत्र नहीं है इसलिए आपको यह सब नहीं भुगतना पड़ता है परमपिता! ऐसा नहीं है कि प्रजातंत्र कोई बुरी पद्धति है बल्कि बहुत से देशों में यह सचमुच में है और अपने सर्वजनहिताय स्वरूप में ही मौजूद है। ज़रा ये बताइये कि हमारा प्रजातंत्र ऐसा क्यों है ? हर गली-मुहल्ले में पार्टियाँ बन रही हैं कुछ ही परिवार राज किए जा रहे हैं। किसी को धर्म, किसी को जाति और किसी को क्षेत्र या भाषा का ही मुद्दा मिलता है। जनहितकारी मुद्दे ग़ायब हैं। व्यक्तिगत हित सर्वोपरि हैं। हमारे देश में तो कुछ ऐसा लगता है कि जैसे प्रजातंत्र वह द्रौपदी है जिसे दु:शासन (कुशासन) से ही ब्याह दिया गया है। बाक़ी सब कुशल है, सब आपकी ‘किरपा’ है।
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तभी सड़क के किनारे पेड़ के नीचे, हनुमान जी का छोटा सा मंदिर दिखा। उसने रुक कर सिर झुकाकर हाथ जोड़ दिए। सर उठाया तो ऐसा लगा कि कुछ दूरी पर कोई हलचल है। थोड़ा चलने पर देखा कि दो लड़के एक लड़की को घसीटते हुए। सड़क से एक तरफ़ की गलीनुमा रास्ते की तरफ़ ले जा रहे हैं।
  
आपसे करबद्ध निवेदन है कि थोड़ा सा हमारा दर्द समझने और बाँटने की ‘किरपा’ कीजिए। ज़रा झांककर देखिए बुन्देलखन्ड में कितने किसान भूखे मरे और कितने आत्महत्या करके। हमारे पड़ोस की उस औरत के घर में जिसका पति कुछ कमाता नहीं और फिर भी जुअा खेलता है और शराब पीकर अपनी बीवी-बच्चों की पिटाई करता है। बीवी अपने पति से पिट-पिट कर भी घरों में चौका-बर्तन करके अपने बच्चों को पाल रही है। अपने बच्चों को पानी पिलाने के लिए भी उसे किसी धनाड्य के घर से आर.ओ. का पानी ले जाना पड़ता है। शेष सब कुशल मंगल है। आपकी किरपा बनी हुई है।
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प्रदीप एक पेड़ के पीछे छुप गया और सड़क पार से झांककर उनको देखने लगा। एक लड़के के हाथ में देशी तमंचा जैसा कुछ था। पेड़ को पीछे छोड़ वो थोड़ा और आगे गया तो अंदाज़ा हुआ कि लड़की का मुँह, साफ़ी-गमछा जैसे कपड़े से बंधा था। लड़की घिसटते समय पैर पटक-पटक कर बहुत विरोध कर रही थी और इसीलिए लड़कों की लातों की ठोकर से पिट भी रही थी।
  
कभी-कभी हम सोचते हैं ब्रह्मा जी! कि धरती का सारा धुँआ उड़कर असमान की तरफ़ जाता है। आपको अखरता तो होगा। पर्यावरण की हालत का अन्दाज़ा आपको ज़रूर होगा। हमारे खेतों से होकर जो नहर गुज़र रही हैं उनमें पानी का रंग काला होने लगा है। बाग़ों को काटकर दुक़ाने बनाई जा रही हैं। जब कोई बड़ा पेड़ काटा जाता है तो हमें लगता है कि किसी बज़ुर्ग की हत्या हो गई। क्या आपको भी ऐसा लगता है? हमारे घर में भी एक नीम का पेड़ है वो बूढ़ा हो गया है और हमारे घर की ओर बहुत ज़्यादा झुक गया है। डर है कि कहीं घर पर न गिर पड़े। कई बार सोचा कि इसे कटवादें लेकिन हिम्मत नहीं पड़ती। जब हमारा एक पेड़ के पीछे ये हाल है तो दुनियाँ में जाने कितने पेड़ रोज़ाना काटे जा रहे हैं। किसी का दिल नहीं पसीजता? आपका भी नहीं?
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प्रदीप का मन बेचैन हो रहा था। मुँह सूखने लगा, दिल ज़ोरों से धड़क रहा था।
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‘क्या करूँ-क्या करूँ-क्या करूँ ?… अगर मैं इनसे लड़ा और मर गया…? तो फिर मेरी बेटी का क्या होगा। कौन करवाएगा शादी?… दस लाख रुपए?… हो सकता है ये लड़की ही ग़लत हो?… भाड़ में जाने दो… घर पहुँचूँ… नहीं-नहीं मुझे ज़रूर लड़ना चाहिए… बचाना चाहिए लड़की हो।’
  
हमने तो जो मन में आया लिख दिया है अब आप जानें कि क्या ‘एक्सन’ लेंगे। कोई भूल-चूक हुई हो तो ‘छिमा’ कीजिएगा।
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बमुश्किल बीस-पच्चीस क़दम की दूरी पर ही सब कुछ घटने वाला था। तरह-तरह की हल्की आवाज़ें आ रही थीं जिनमें गालियाँ ज़्यादा थीं।
  
सबको यथायोग्य
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‘शायद लड़की से बलात्कार और फिर उसे मार ही देंगे। सबूत थोड़े ही छोड़ेंगे।’
आपका अाज्ञाकारी
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तभी प्रदीप कि नज़र पास ही पड़े साइकिल के टूटे करियर पर पड़ी। उसने करियर उठा लिया।
आदित्य चौधरी  
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‘लड़के ज़्यादा तगड़े तो हैं नहीं… लेकिन मैं भी तो पचास का हो गया… पता नहीं झगड़े का क्या नतीजा निकले…’
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फिर वही सोच… ‘रितिका की शादी… बीवी का क्या होगा… बलात्कार… ख़ून… रितिका…शादी… बलात्कार…धक-धक, धक-धक, धक-धक, धक-धक…
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प्रदीप की पकड़ साइकिल के टूटे करियर पर कसती जा रही थी। वो आगे बढ़ा तो देखा कि एक लड़का तो लड़की को ज़मीन पर गिरा कर क़ाबू करने की कोशिश कर रहा है और दूसरा तमंचा लेकर खड़ा रखवाली जैसी कर रहा है।
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प्रदीप उस गली में मुड़कर आगे की ओर गया और जैसे ही तमंचे वाला प्रदीप की ओर घूमा उसने तमंचे वाले हाथ पर साइकिल का करियर दे मारा। तमंचा गिर गया। करियर का दूसरा वार उसी लड़के के मुँह पर हुआ, उसके मुँह से ख़ून निकल आया और वो गली में अन्दर भाग गया। अब तक लड़की दूसरे लड़के की पकड़ से छूट चुकी थी और उसने पीछे से उस लड़के के लम्बे बालों को पकड़ लिया अब प्रदीप के लिए उस लड़के की पिटाई करना बहुत आसान हो गया।
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लड़की ने बाल छोड़े तो तमंचा उठा लिया। लड़के में एक घूँसा ऐसा लगा कि वह बेहोश ही हो गया। लड़की लातों से उस लड़के को मारे जा रही थी। प्रदीप बुरी तरह हाँफ़ रहा था लेकिन विजेता की तरह।
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उस लड़की की जॅकेट थोड़ी सी फट गई थी और ओठों के किनारे से ख़ून बह रहा था। लड़की किसी अच्छे घर की लग रही थी। प्रदीप ने उस लड़की को उसके घर पहुँचाया तो पता चला कि वो तो शहर के बड़े रईस घनश्याम चड्ढा की इकलौती बेटी है। चड्ढा साहब बहुत सज्जन व्यक्ति थे। शहर में उनकी नेकनामी के क़िस्से मशहूर थे। जब चड्ढा साहब को पता चला कि प्रदीप, बेटी की शादी के लिए पैसों के इन्तज़ाम के लिए परेशान है तो उन्होंने प्रदीप के बहुत मना करने के बावजूद उसकी बेटी की शादी की पूरी ज़म्मेदारी अपने ऊपर लेली।
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शादी के दिन रितिका के पास एक सुन्दर लड़की आई और उससे बोली।
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“हाय रितिका! आय एम सलोनी… मुझसे दोस्ती करोगी, मैं तुम्हारे पापा की फ़ॅन हूँ। ही एज़ वैरी ब्रेव मॅन।”
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पास खड़े प्रदीप ने कहा “लेकिन सलोनी से ज़्यादा ब्रेव नहीं… हाहाहा”
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सब साथ-साथ हँस पड़े।
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© आदित्य चौधरी
 
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| 28 जुलाई, 2016
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; दिनांक- 18 मई, 2017
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महत्वपूर्ण यह नहीं कि आप अपने ज्ञान के प्रति कितने सतर्क हैं ! महत्वपूर्ण तो यह कि आप अपने अज्ञान के प्रति कितने सतर्क हैं।
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प्रिय मित्रो! जैसा कि आप चाहते हैं, मैंने एक कहानी और लिखी है। ज़रा देखिए कैसी है!
अपनी अज्ञानता का सही रूप में ज्ञान होना और निरंतर बने रहना ही किसी भी ज्ञानी की सही पहचान है।
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अक्सर हमारा ज्ञान ही हमें विचारवान होने से रोकने लगता है। स्वयं को ज्ञानी मानकर जीते जाना, हमारे भीतर न जाने कितनी अज्ञानता पैदा करता है और नए विचारों से वंचित कर देता है।
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‘दाना-पानी’
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वो हमारे किराएदार थे। उनका अपना कोई नहीं था। बस हमें ही अपना मानते थे। पन्द्रह साल से हमारे साथ थे। घर के बज़ुर्ग जैसे हो गए थे। हम उन्हें काका कहते थे। सुबह शाम का दूध सब्ज़ी लाने का काम ख़ुद ही करते रहते। हमारे मना करने पर भी नहीं मानते थे। शुरू-शुरू में तो अपना खाना ख़ुद ही बनाते थे लेकिन बाद में मां ने उनका खाना भी बनाना शुरू कर दिया था। बाद में पापा ने उनसे किराया लेना बंद कर दिया तो ख़ुद ही किराए के बराबर पैसे घर के किसी न किसी सामान पर ख़र्च कर देते थे।
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पाँच साल पहले अपनी पेंशन भी घर में देने की ज़िद की तो पापा राज़ी नहीं हुए। काका भी नहीं माने और अपनी पेंशन वाले अकाउंट में मुझे नॉमिनी बना दिया। मैं दस साल का था जब काका हमारे यहाँ किराएदार की हैसियत से रहने अाए थे। हमेशा कहते कि तेरी शादी देखकर ही मरूँगा और तेरी शादी में ज़िन्दगी में पहली बार दारू पीकर नाचूँगा भी। जिस दिन मेरी नौकरी लगी उस दिन काका ख़ूब ख़ुश हुए और ख़ूब रोए। मैं दूसरे शहर जो जा रहा था।
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काका की तबियत ख़राब है यह सुनकर मैं छुट्टी लेकर घर आया था। अगले ही दिन वो चल बसे। उनका अंतिम संस्कार भी मैंने ही किया। रात देर तक उनके बारे में बात होती रहीं। सुबह जल्दी उठकर छत पर गया तो देखा कि कबूतर, फ़ाख़्ता और अन्य चिड़ियों का झुन्ड छत की मुंडेर पर बैठा था। मैं समझ गया और पास के टिन शेड में से दाना निकाल कर छत पर बखेर दिया तो सभी पंछी दाने पर टूट पड़े और मज़े से दाना खाने लगे। हाँ इतना ज़रूर था कि जिस तरह से काका के साथ पंछी घुल-मिल गए थे वैसे मेरे पास नहीं आ रहे थे। एक दूरी बनाकर दाना खा रहे थे।
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मैं सोचने लगा कि मैं तो कल चला जाऊँगा। मां अपने घुटनों की वजह से छत पर नहीं आ सकतीं, पापा कभी भी आठ बजे से पहले नहीं उठते तो फिर कल से दाना कौन खिलाएगा? तभी मेरा फ़ोन बजने लगा। फ़ोन से पता चला कि मेरी छुट्टी दो दिन और बढ़ा दी गई है। मैंने सोचा कि चलो दो दिन और… लेकिन फिर दो दिन बाद दाना कौन डालेगा?
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अगले दिन सुबह मुझे उठने में देर हो गई। जल्दी-जल्दी मैं छत पर पहुँचा तो देखा कि पंछी नहीं थे। मैं सोच में पड़ गया कि आख़िर माजरा क्या है! छत पर ध्यान से देखा तो कहीं-कहीं दाने पड़े थे। दाने वाला डिब्बा देखा तो ऐसा लगा कि दाना कम हुआ है। बड़े आश्चर्य की बात थी। अगले दिन मैं जल्दी जागकर छत पर छुप कर बैठ गया। धीरे-धीरे पंछी इकट्ठा होने लगे। तभी हमारे पड़ोसियों के यहाँ काम करने वाली बाई की छोटी बेटी मुंडेर से कूदी और भागकर दाने के डिब्बे से दाने निकाल कर पंछियों को डालने लगी। पंछी उससे इतने ज़्यादा घुले-मिले लगे कि मैं आश्चर्य से देखता ही रह गया।
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इसका मतलब ये था कि ये लड़की रोज़ाना काका के साथ दाना डालने आती थी और अब काका नहीं रहे तो अपना फ़र्ज़ निबाह रही है। मेरे आँखें पानी से धुंधला गईं। साथ ही मुझे काका की पेंशन के रुपयों का सदुपयोग भी समझ में आ गया।
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© आदित्य चौधरी
 
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| 4 जुलाई, 2016
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; दिनांक- 11 मई, 2017
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मित्रो! मेरी एक और कहानी पढ़ें-
  
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‘इंदिरा गांधी का हॅलीकॉप्टर’
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“हम कब तक पहुँचेंगे ? अभी कितनी देर और…?”
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“बस एक घंटे में पहुँच जाएँगे।” पति ने कार चलाते हुए जवाब दिया।
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“क्या उम्र होगी पापा की?” पति ने फिर पूछा
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“एट्टी फ़ोर… तीन दिन बाद ही तो उनका बर्डडे है और आज ही वो हमें छोड़ गए।” इतना कहकर, कार की खिड़की की तरफ़ शाम के लाल सूरज को देखने लगती है।
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“हाँऽऽऽ वोई मैं सोच रहा था।” पति ने कहा
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सूरज साथ-साथ चल रहा था। बचपन के दिनों में जब गाँव से ट्रेन में पापा के साथ जाती थी तो सूरज साथ-साथ चलता था।
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“पापा ! सूरज साथ-साथ क्यों चलता है?”
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“अरे बाबा वो तो साथ रोशनी करता चलता है न!”
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पापा अक्सर माँओं वाले जवाब देते पापाओं वाले नहीं। बड़े सीधे-सादे बच्चों जैसे जवाब, कोई कठिन बात नहीं कहते थे जो मेरे बाल-मन को समझ में न आए।”
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“तो फिर… तो फिर… तो फिर सूरज रात को क्यों नहीं साथ चलता?” मैंने भी मिलियन डॉलर कोश्चन ठोक दिया।
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“सारा दिन भागेगा तो थकेगा भी न… सो जाता है बेचारा… चलो अब तुम भी सो जाओ। ट्रेन में सब सोने की तैयारी कर रहे हैं।”
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“लो… गाँव वाला टर्न आ गया… क्या सोच रही हो…?” पति ने कहा।
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“कुछ नहीं बस ऐसे ही… अ…असल में आँसू रुक नहीं रहे…”
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तीन दिन गुज़र गए। पापा की रहस्यमयी ‘फ़ेमस’ नीली डायरी उनकी अलमारी में मेरे फ़ोटो के नीचे रखी मिली। बचपन में इस डायरी के पन्ने कितने सफ़ेद, चमकीले लगते थे… आज कितनी उजड़ी हुई अपने पीले पन्नों को छुपाती सी लग रही है।
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ये डायरी मुझे कभी पढ़ने को नहीं मिली। मैंने जल्दी-जल्दी पन्नों को खोलना शुरू किया। एक के बाद एक पन्ना, मेरे बचपन के एक-एक दिन की तस्वीर बनाता गया। धुँधली यादों के फीके रंग गहराने लगे जैसे किसी ब्लॅक एन वाइट मूवी को कलर किया जा रहा हो। ज़िन्दगी में पहली बार अाँसू कम पड़ गए। रोने के साथ मुस्कुराना और हँसना रुक ही नही रहा था। गाँव में चारों ओर शांति थी। गाँवों में, वैसे भी सब जल्दी सो जाते हैं। कहीं दूर किसी के यहाँ शायद अखंड रामायण का पाठ हो रहा था। मैं जाग रही थी और डायरी के पन्नों को बार-बार पढ़ रही थी।
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डायरी में लिखा था-
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एक छोटा ताला मुनमुन के लिए, तीन पहिए की साइकिल छुट्टन के लिए, भगवानजी का मंदिर (सीता दादी के घर में जैसा है वैसा ही)। रंगीन चॉक, ब्लॅकबोर्ड, हवाई जहाज़, इंदिरा गांधी वाला हॅलीकॉप्टर, शकुन्तला जीजी के लिए धूप का चश्मा… और भी न जाने क्या-क्या सूची बनी हुई थी। अचानक आँख से एक आँसू टपका तो इंदिरा गांधी के हॅलीकॉप्टर पर गिरा। शहर में उस समय की प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी आईं थीं। हॅलीकॉप्टर देखकर, मैं मचल गई थी कि पापा हम हॅलीकॉप्टर कब लेंगे?
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पापा जब भी गाँव से शहर जाते थे तो हम सब बच्चे अपनी-अपनी डिमांड उन्हें बताते थे। एक दिन बाद जब वे लौटते तो रात हो चुकी होती थी। हम बच्चे सो जाते थे। अगले दिन ध्यान ही नहीं रहता था कि पापा से पूछना है कि क्या-क्या लाए।
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पापा उन सब चीज़ों की सूची नीली डायरी में बनाते थे। पापा की आमदनी इतनी कम थी कि वे कभी भी शहर से हमारे लिए मंहगी चीज़ नहीं ला पाए। ऐसा नहीं है कि कुछ लाते ही नहीं थे। आम तो गाँव में ही मिल जाते थे लेकिन केले और संतरे नहीं मिलते थे इसलिए टॉफ़ियाँ और केले या संतरे ज़रूर लाते थे। हमारी पढ़ाई और स्वास्थ्य के लिए पापा अपनी सारी कमाई ख़र्च करते थे जिसका नतीजा ये हुआ कि हम सब पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी कर रहे हैं।
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नीली डायरी आज पढ़ी तो अहसास हुआ कि पापा ने कितना सहेज कर हमारी सारी मांगों को लिखा था। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर वे कभी पूरी नहीं हो पाईं। आज समझ में आया कि पापा के जीवन की डायरी का मतलब, सिर्फ़ हमारी मांगें और उनको पूरा न कर पाने की मायूसी थी।
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तभी छोटे ने आवाज़ दी और कमरे में आ गया।
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“देख दीदी पापा की अटैची से ये छोटा सा हॅलीकॉप्टर मिला है। इसपे लिखा है ‘इंदिरा गांधी का हॅलीकॉप्टर’।
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© आदित्य चौधरी
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; दिनांक- 8 मई, 2017
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दूऽऽऽर-दूऽऽऽर किसी गॅलेक्सी के किसी ग्रह के किसी देश के मंत्रालय में वार्तालाप:
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“सर! आश्वासन तो ख़त्म हो गए… नहीं दे सकते”
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“क्या?… ऐसा कैसे हो सकता है? बाहर तो सीनियर सिटीज़न्स का एक डेलीगेशन बैठा है, अब क्या करें।”
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मंत्री ने अपने सचिव पर चिंता ज़ाहिर की।
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“सर इनकी मांगे मान लीजिए…”
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“वो तो पॉसिबिल ही नहीं है, मांगे बहुत ज़्यादा हैं। आश्वासन ही देना होगा। वैसे एक बात बताओ कि आश्वासन ख़त्म कैसे हुए ?”
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“सर! आप जब सत्ता में आए तो आपको सरकारी स्टॉक में दो हज़ार आठ सौ बाईस आश्वासन मिले थे, जिनको आपने यूज़ कर लिया। आश्वासनों की तीनों कॅटेगिरि याने; पूर्ण आश्वासन, ठोस आश्वासन और आश्वासन,… ये सब आप रोज़ाना दे रहे हैं…।” सचिव ने बताया।
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“अच्छा… ठीक है-ठीक है… तो फिर हम वायदा भी तो कर सकते हैं…?”
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“सॉरी सर वायदों का स्टॉक तो अपोज़ीशन के पास रहता है। अापको ये स्टॉक चुनाव के दौरान मिलेगा। सरकार वायदा नहीं करती, सरकार तो आश्वासन देती है।”
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“अपोज़ीशन के पास भी तो आश्वासन होंगे…? ख़रीद लो… मुँह मांगी क़ीमत पर…?”
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“सर अपोज़ीशन जब सत्ता से हटी तो नियमानुसार उसने सारे आश्वासन सत्ता पक्ष याने आपको हॅन्डओवर कर दिए। जिस तरह आपने चुनाव के दौरान बचे हुए वायदे विपक्ष को दे दिए थे।”
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“कहीं न कहीं तो आश्वासन बिकते होंगे? चाहे डॉलर देने पड़ें लेकिन ख़रीद लो” मंत्री ने मंत्रियाना अंन्दाज़ में कहा।
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“सर डॉलर तो क्या बिट कॉइन के बदले भी आश्वासन नहीं मिल सकते।”
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“कोई न कोई तरीक़ा तो होगा अश्वासन अरेन्ज करने का?”
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“सर इमरजेन्सी लगा दीजिए… तब कोई कुछ पूछने या मांगने नहीं आएगा। आश्वासन का झंझट ख़त्म।”
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“हाँऽऽऽ ये ठीक रहेगा… लगा दो इमरजेन्सी”
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© आदित्य चौधरी
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==शब्दार्थ==
 
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==संबंधित लेख==
 
 
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08:21, 13 दिसम्बर 2017 के समय का अवतरण

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दिनांक- 12 दिसंबर, 2017

|| मनहूसियत के मारे ||

प्रकृति कहिए या ईश्वर कहिए, उसने पृथ्वी पर जो कुछ भी पैदा किया उसमें एक उल्लास पूर्ण गति अवश्य दी। मनहूस उदासी या आडम्बरी गंभीरता किसी भी जीव में नहीं दी। यहाँ तक कि वनस्पति में भी एक उल्लास से भरी हुई विकास की गति होती है। सूरजमुखी का फूल सूर्य को ही तकता रहता है और सूर्य जिस दिशा में जाता है उसी दिशा में वह मुड़ जाता है। फूलों की बेल, सहारे तलाश करती रहती हैं और जैसे अपनी बाहें फैलाकर सहारे को पकड़ ऊपर बढ़ती जाती हैं।

आप सड़क से एक पिल्ला उठा लाइये। सारा दिन घर में धमा-चौकड़ी मचाए रहेगा। कहने का सीधा अर्थ यह है जिसे हम सभी जानते ही हैं कि जीवन का अर्थ ही उत्सव और उल्लास है। प्रत्येक मनुष्य का प्रत्येक बच्चा जन्म से ही नृत्य, गायन, वादन, चित्रकारी, मूर्तिकारी, खेल जैसी आदि प्रतिभाओं से परिपूर्ण होता है। जिज्ञासा से भरा खोजी स्वभाव प्रत्येक बच्चे का स्वाभाविक गुण होता है। यह स्थिति मानसिक रूप से दिव्यांग बच्चों में भी होती है। मैंने बड़े क़रीब से देखा है ऐसे बच्चों को जिनकी मानसिक क्षमता हटकर होती हैं और जिन्हें हम मानसिक रूप से अविकसित या विशिष्ट रूप से विकसित मानते हैं। इन बच्चों में भी प्रसन्नता और उल्लास का भाव भरपूर होता है।

समस्या तब शुरु होती है जब धीरे-धीरे बच्चा बड़ा होने लगता है तो अधिकतर माता-पिता (या अन्य अभिभावक) उसकी इन प्रतिभाओं को बड़े गर्व के साथ समाप्त करने में लग जाते हैं। इसमें स्कूल भी अपनी भूमिका बख़ूबी निबाहता है। अधिकतर स्कूलों में शिक्षा जिस तरीक़े से दी जा रही है वह बेहद शोचनीय अवस्था है। पढ़ाई में सृजनात्मकता जैसा कुछ भी नहीं होता। उन्हें वह नहीं सिखाया जाता जोकि उनके व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होगा और वे स्वयं अपनी सफलता का रास्ता चुन सकेंगे बल्कि उनको एक पारंपरिक तरीक़े की पढ़ाई दी जाती है जिससे वे कुछ नया करने की बजाय ख़ुद को किसी न किसी जॉब के लायक़ बनाने में लग जाते हैं।

महान विचारक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा भी है कि स्कूलों में बच्चों को ‘क्या सोचा जाय सिखाने की बजाय कैसे सोचा जाय’ यह सिखाना चाहिए। इस आउटडेटेड उबाऊ शिक्षा पद्धिति के कारण बच्चों के भीतर की उमंग और उल्लास ख़त्म होने लगता है। ओढ़ी हुई गंभीरता मनहूसियत भरी उदासी उनका स्थाई स्वभाव बन जाता है। बच्चों को यह मौक़ा ही नहीं दिया जाता वे जान सकें कि उनमें कौन सी विशेष प्रतिभा है। बच्चों की मार्कशीट ही उनकी योग्यता की पहचान बन जाती है।

ज़रा बताइये कि मैंने कॅलकुलस, ट्रिगनोमॅट्री, वेक्टर, प्रॉबेबिलिटी आदि की पढ़ाई की… वह मेरे किस काम आ रही है… किसी काम नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि गणित मेरा पसंदीदा विषय था लेकिन मुझे उन विषयों या क्षेत्रों को छेड़ने का मौक़ा ही नहीं मिला जो मेरे प्रिय हो सकते थे या उनमें से कोई एक मेरा पॅशन बन सकता था।

व्यवसाय में पिता अपने वारिस को सिखाता है कि बेटा-बेटी जितनी ज़्यादा मनहूसियत भरी गंभीरता तुम ओढ़े रहोगे तुमको उतना ही बड़ा बिजनेसमॅन समझा जाएगा। सरकारी कार्यालय में चले जाएँ तो ऐसा लगता है कि यहाँ अगर ज़ोर से हँस पड़े तो शायद छत ही गिर पड़ेगी क्योंकि उस छत ने कभी हंसी की आवाज़ सुनी ही नहीं (सुबह-सुबह सफ़ाई कर्मचारी ही शायद हँसते हों)। आलम ये है कि ओढ़ी हुई गंभीरता एक संस्कृति बन चुकी है। अब न तो इस मनहूस संस्कृति को क्या नाम दिया जाय यह समझ में आता और इसको ख़त्म करने का उपाय ही।

एक सामान्य शिष्टाचार है कि किसी अजनबी से आपकी नज़र मिल जाय तो हल्का सा मुस्कुरा दें। यह शिष्टाचार यूरोपीय देशों में बहुत आम है। हमारे देश में यदि आप किसी अजनबी को देखकर मुस्कुरा गए और यदि वो लड़की हुई तो सोचेगी कि आप उसे छेड़ रहे हैं और यदि कोई लड़की किसी अजनबी लड़के को देखकर मुस्कुरा गई तो लड़का समझेगा कि यह प्रेम का निमंत्रण है।

क्या आपको नहीं लगता कि ये सब बातें स्कूल में सिखाई जानी चाहिए? मेरी आज तक यह समझ में नहीं आया कि स्कूल में बच्चों को घर का काम करना क्यों नहीं सिखाया जाता। जैसे; चाय-बिस्किट-नाश्ता बनाना, कपड़े तह करना, कपड़े इस्तरी करना, शारीरिक सफ़ाई, माता-पिता से व्यवहार, कील-चोबे लगाना, कपड़ों में बटन लगाना, छोटे बच्चे की देख-भाल करना, बाग़वानी, आदि-आदि। इसके अलावा ‘डू इट योरसेल्फ़’ की बहुत सी चीज़ें सिखाई जानी चाहिए, ज़रूरतमंद लोगों की मदद क्यों, कब और कैसे करें यह उनके स्वभाव में आना चाहिए। यह सब लड़की-लड़कों को समान रूप से सिखाना चाहिए। खाना बनाना लड़कों को भी आना चाहिए। कामकाजी पति-पत्नी के घर में दोनों ही लगभग सभी काम करते हैं। ये सब बच्चों को स्कूल में सिखाया जाना चाहिए। कुछ व्यावहारिक प्रयोगों द्वारा और कुछ विडियो दिखाकर।

यह तो ठीक है कि हम बच्चों को महान व्यक्तियों के बारे में बताकर उन्हें अच्छा इंसान बनने के लिए प्रेरित करते हैं लेकिन बच्चों को यह भी बताना चाहिए कि छोटे बच्चे घर के कामों में अपनी माता-पिता की मदद करके भी महान बनते हैं। उनको पता होना चाहिए कि यदि वे काम पर जाने से पहले अपने पिता की साइकिल-बाइक-कार को पोंछ देंगे तो यह कितना बड़ा काम होगा। रसोई में मां का हाथ बटाएँगे तो उनके द्वारा किया काम कितना महत्वपूर्ण होगा।

ज़रूरत तो इस बात की है कि प्रत्येक स्कूल, कॉलेज में कुछ विषय अलग से पढ़ाए जाने चाहिए। जिनसे छात्राओं और छात्रों को अच्छा इंसान बनने में मदद मिले। ‘संस्कृति’ एक अलग विषय होना चाहिए और इस विषय के अधीन सब-कुछ सिखाना चाहिए।
© आदित्य चौधरी

दिनांक- 5 दिसंबर, 2017

“कोई आज भी है जो सुनता है…”

यह बात उन दिनों की है जब भारत पर अंग्रेज़ों का शासन था और देशभक्त क्रांतिकारी अंग्रेज़ों का विरोध कर रहे थे।
एक अंग्रेज़ अधिकारी गांधीजी से मिलने आया। उससे काफ़ी देर महात्मा गांधी से बात-चीत की, कई विषयों पर चर्चा हुई। इसके बाद वह विदा लेकर चला गया। उसके जाने के बाद गांधी जी को बताया गया कि जिस रेलगाड़ी से वह अंग्रेज़ अधिकारी आ रहा था, उस रेलगाड़ी पर क्रान्तिकारियों ने बम फेंका और जिस रेल के डिब्बे में वह अंग्रेज़ बैठा था उस डिब्बे का आधा हिस्सा बम के कारण क्षतिग्रस्त हो गया। जिस व्यक्ति ने गांधी जी को यह सूचना दी उसने पूछा कि उस अंग्रेज़ अधिकारी ने आपसे यह चर्चा अवश्य की होगी। गांधीजी ने बताया कि उसने इस तरह की कोई चर्चा नहीं की।

ज़रा सोचिए कि उस अंग्रेज़ ने बम फ़ेंकने की चर्चा क्यों नहीं की? इसका कारण है कि वह अंग्रेज़ नहीं चाहता था कि गांधी से वार्ता करते समय किसी ऐसी बात का ज़िक्र किया जाए जिससे कि वार्तालाप का माहौल असहज हो जाए। निश्चित रूप से इस वार्तालाप में दोनों ही सहज नहीं रह पाते यदि बम फ़ेंकने की घटना का ज़िक्र वह अंग्रेज़ अधिकारी कर देता।

यदि आप चाहते हैं कि लोग आपकी उपस्थिति को पसंद करें तो आपको अपने 'सुभीता स्तर' (Comfort level) की तरफ़ ध्यान देना चाहिए। याने आपकी मौजूदगी में लोग कितना सहज महसूस करते हैं। जो लोग आपके सहकर्मी, मित्र, परिवारीजन आदि हैं उन्हें आपकी उपस्थिति में कितनी सहजता महसूस होती है। सदा स्मरण रखने योग्य बात यह है कि आप योग्य कितने हैं यह बात तो महत्वपूर्ण है ही बल्कि आपका सुभीता स्तर कितना है, यह अधिक महत्वपूर्ण है। एक सफल व्यक्तित्व का रहस्य बुद्धि, प्रतिभा या योग्यता में ही छुपा नहीं है बल्कि 'सुभीता स्तर' (Comfort level) इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

आजकल लोग (ऍन्ड ऑफ़कोर्स लेडीज़ ऑलसो) सुनते नहीं हैं। बोलने से ज़्यादा ज़रूरी है सुनना। सुनने के तरीक़े हैं तीन… तीन क्या बल्कि चार।
पहला तरीक़ा: सबसे घटिया तरीक़ा है। इसमें सुनने वाला कहने वाले की बात काट कर अपनी बात कहने लगता है। यह व्यक्ति सबको अप्रिय होता है।
दूसरा तरीक़ा: कहने वाले को यह लगता रहता है कि सुनने वाला कुछ कहना चाहता है। सुनने वाले के हाव-भाव-भंगिमा और आँखें, कहने वाले को, ऐसा संदेश देती हैं। जिससे कहने वाला चुप हो जाता है या फिर कहता है ”कहिए ! आप कुछ कहना चाहते हैं क्या?” सुनने का यह तरीक़ा भी घटिया ही है।
तीसरा तरीक़ा: यह तरीका बहुत सही है। इसमें सुनने वाला कहने वाले की बात ध्यान से सुनता है। अपने किसी हाव-भाव से यह महसूस नहीं होने देता कि वो ध्यान से नहीं सुन रहा।
चौथा तरीक़ा: इसमें हम कहने वाले को कुछ कहने के लिए कहते हैं, कोई प्रश्न करते हैं और उत्तर ध्यान से सुनते हैं। इस तरीक़े में हम लोगों के मौन को भी सुनने की कोशिश करते हैं और उन लोगों को कुछ कहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जो बहुत कम ही बोलते हैं।

इस चौथे तरीक़े से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मैं अक्सर उन लोगों को बोलने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ जो बहुत कम बोलते हैं।
एक संस्मरण: मेरे यहाँ एक घरेलू कर्मी था। जिसका काम मेरे साथ रहकर मेरे छोटे-मोटे काम करना था। उसे सब कमअक़्ल मानते थे। मैं उससे कोई न कोई सवाल करके उसी प्रतिक्रिया सुन लेता था। एक दिन घर के सामने से हाथी जा रहा था। मैंने कहा कि कमाल की बात है धरती का सबसे बड़ा जीव है और कितना शांत है? घरेलू कर्मी बोला कि सबसे बड़ा है इसीलिए तो शांत है। मैं उसके जवाब से दंग रह गया। कितना सटीक उत्तर था उसका।

ज़िन्दगी में अगर सुनना सीख लेंगें तो बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। लोगों ने सुनना तो लगभग बंद ही कर दिया है। किसी से मिलने जाते हैं तो नज़र मोबाइल फ़ोन पर ही बनी रहती है। मुझे बुज़ुर्गों से बात करने में ज़्यादा आनंद होता है क्योंकि उनमें से ज़्यादातर स्मार्ट फ़ोन इस्तेमाल नहीं करते। व्यस्तता बहुत बढ़ गई है। वैसे भी व्यस्तता एक फ़ैशन बन गया है। जिन्हें कोई भी ज़रूरी काम नहीं है उनकी व्यस्तता देखकर तो और आनंद होता है। इस व्यस्तता का दिखावा भी आपके सुभीता स्तर के लिए नुक़सानदायक है।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 7 नवंबर, 2017

“After Japan, China will rise and gain prosperity and strength. After China, the sun of prosperity and learning will again smile at India.”

ये शब्द किसी अंग्रेज़ अर्थशास्त्री के नहीं हैं बल्कि सन् 1902 में जापान और अमरीका की यात्रा के दौरान प्रसिद्ध वेदान्ती स्वामी रामतीर्थ के हैं। दो वर्ष अमरीका में बिताने पर स्वामी जी अमरीकियों के लिए अचम्भा बन गए थे। बर्फ़ गिरती रहती थी और रामतीर्थ निचले शरीर पर केवल धोती पहने उसमें चल देते थे। नंगे कन्धों पर बर्फ़ गिरती तो उसे झाड़ देते थे। लोग आश्चर्य से ऐसे व्यक्ति को देखते रह जाते थे।

स्वामी जी ने जब संन्यास लिया तब वे गणित के प्रोफ़ेसर थे। भारत के लिए उनके वक्तव्य अत्यंत उत्साह से भरे होते थे। वे कहते थे-

“भारत क्या है? मैं भारत हूँ। मेरा शरीर मानो उसकी भूमि है। मेरे दो पैर मालाबार और चोलमण्डल हैं। मेरे चरण कन्याकुमारी हैं। मेरा मस्तक हिमालय है। गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी प्रचण्ड नदियाँ मेरे केश हैं। राजस्थान और गुजरात मे मरुस्थल मेरा हृदय है। पूर्व और पश्चिम दिशाओं में मेरी भुजाएँ फैली हैं।” स्वामी विवेकानन्द के प्रभामंडल के कारण उनके ही समकालीन स्वामी रामतीर्थ को लोग ज़्यादा नहीं जान पाए। रामतीर्थ ने नयी पीढ़ी को जगाने का काम विवेकानन्द की तरह ही किया।

भारत को एक व्यक्ति के रूप में देखना और भारत के प्रत्येक नागरिक को भारत के रूप में देखना स्वामी रामतीर्थ की अद्भुत धारणा वास्तव में ही सत्य है। ज़रा सोचिए कि यह बात कितनी महत्वपूर्ण है कि भारत ने किसी पड़ोसी पर कभी आक्रमण नहीं किया। जो विदेशी भारत में आकर शासन कर गए उनको भी बहुत हद तक भारत की परंपराओं में ढलना पड़ा।

अाज जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं उसकी असंख्य शाखाओं की आस्था, मत, धार्मिक विश्वास, पूजा-अर्चना, अनुष्ठान, कर्मकाण्ड आदि में आश्चर्यजनक विविधताएँ हैं। भारतीय दर्शन परंपरा में ईश्वर के अस्तित्व और स्वरूप को लेकर विभिन्न मत हैं। कोई साकार ईश्वर में आस्था रखता है तो कोई निराकार में और कोई-कोई तो ईश्वर के अस्तित्व को ही नहीं मानते। कमाल यह है कि यह सब हिन्दू धर्म में शामिल हैं।

प्राचीन ग्रंथों में बहुत सी जानकारियाँ ऐसी हैं जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। पौराणिक काल में राजा अपने पुत्रों में से राज्य के उत्तराधिकारी को चुनने के लिए अनेक प्रकार की शिक्षाओं की व्यवस्था करता था। अयोध्या के राजा दशरथ ने अपने पुत्रों से अनेक संप्रदायों के ऋषि-मुनियों और आचार्यों की चर्चा करवाने की व्यवस्था की थी। राजा दशरथ राम के पास लोकायतों (चार्वाक) के आचार्यों को भेजा जिन्होंने राम को चार्वाक दर्शन का ज्ञान देने की चेष्टा की जिसमें नास्तिक होने के लाभ बताए गए लेकिन किशोरवय राम की आस्था वैदिक परंपराओं में थी। इसलिए राम ने उन्हें नकार दिया और क्षमा मांग ली। इसके अलावा भी अन्य विचारधाराएँ थीं जिनके अनुयायी पर्याप्त मात्रा में थे और आज भी हैं। इसी क्रम में, आजीवक एक अत्यंत प्राचीन संप्रदाय है। जिसके साधु और भिक्षु मस्करी वेष में रहा करते थे। रावण जब सीता हरण के लिए आया था उस समय वह इसी आजीवक संप्रदाय के मस्करी वेष में आया था।

भारत का यह रंग-रंगीला स्वरूप आज भी बदला नहीं है। विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को मानने वाले भारत में शान से रह रहे हैं और उन्हें संविधान में समान अधिकार प्राप्त हैं।

कुछ ही समय पहले की बात है जब एक सिख, भारत का प्रधानमंत्री (मनमोहन सिंह), एक मुसलमान, राष्ट्रपति (अब्दुल कलाम), एक हिन्दू, सदन में विपक्ष के नेता (अटल बिहारी वाजपेयी) और एक जन्म से ईसाई, शासक पार्टी की अध्यक्ष (सोनिया गांधी) होने का विलक्षण संयोग हुआ। यह भी भारत में ही संभव है।

नोट: (पाठकगण क्षमा करें, ऊपर के अनुच्छेद में मैंने श्रीमती सोनिया गांधी को ‘जन्म से ईसाई’ इसलिए लिखा है क्योंकि मुझे उनकी वर्तमान धार्मिक स्थिति पता नहीं है।)

कुछ बातें मन पर छाप छोड़ जाती हैं और अपने भारतवासी होने पर और भी अधिक गर्व होने लगता है।
अभी पिछले दिनों मुहम्मद अली जिन्हा की बेटी का देहावसान हुआ। लोगों को जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पाकिस्तान बनाने वाले पाकिस्तान के क़ायद-ए-आज़म की बेटी भारत में रहती थी! पाकिस्तान में न तो जिन्हा को और न ही उनकी बहन फ़ातिमा को समुचित सम्मान दिया गया। जिन्हा के इलाज में लापरवाही हुई और
उनकी बहन फ़ातिमा तो चुनाव ही हार गयीं। जिन्हा की बेटी सम्मानपूर्वक भारत में रहीं और उन्होंने पाकिस्तान को कभी पसंद नहीं किया।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 2 नवंबर, 2017

आजकल रानी पद्मावती (पद्मिनी) को लेकर काफ़ी हंगामाई बहस छिड़ी हुई है। कुछ कहते हैं कि पद्मावती कोई ऐतिहासिक चरित्र ‘नहीं है’ और कुछ कहते हैं कि ‘है’। अलाउद्दीन ख़लजी के चित्तौड़ आक्रमण के लगभग 237 वर्ष बाद, ई.सन् 1540 के क़रीब मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत नाम से एक महाकाव्य रचा।

इस महाकाव्य के कुछ प्रमुख चरित्र; रानी पद्मिनी, राणा रतनसेन, अलाउद्दीन ख़लजी, राघव चेतन, गोरा-बादल और एक इंसानों की तरह बोलने वाला तोता हीरामन हैं।
अब चूँकि इस विषय पर फ़िल्म बन रही है और काफ़ी चर्चा में है तो इसका कथानक उनको भी याद हो गया है जिनको नहीं था, ये फ़ेसबुक और वॉट्स ऍप की करामात है। इसलिए कथानक पर चर्चा व्यर्थ ही है।

मलिक मुहम्मद जायसी के जीवन की घटनाएँ कहीं किसी इतिहास में दर्ज नहीं हैं। कथा-कहानियों से ही जायसी के जीवन का कुछ पता चलता है। चेचक से जायसी के चेहरे पर दाग़ हो गए और एक आंख चली गई। ‘जायसी’ उपनाम जायस (पहले राय बरेली और अब अमेठी का एक नगर) में रहने के कारण पड़ा। बाद में जायसी ने एक चमत्कारी सूफ़ी संत के रूप में प्रसिद्धी पायी।

जायसी को अफ़ीम के नशे की लत थी। अफ़ीम का नशा आदमी को कल्पनालोक में ले जाता है। उस समय माज़ून (भांग से बनती है) और अफ़ीम का काफ़ी प्रचलन था। शराब में अफ़ीम मिला कर पीने का भी चलन था। जिसका ज़िक्र बाबर ने बाबरनामा में किया है। अकबर भी शराब में अफ़ीम मिलाकर पिया करता था।

जायसी की मृत्यु के संबंध में एक काल्पनिक कथा प्रचलित है। कहते हैं कि जायसी अपने जादू से शेर बनकर जंगल में घूमा करता था। एक शिकारी ने इस शेर के रूप में जायसी को मार डाला।

कुछ इतिहासकारों ने पद्मिनी के जौहर को काल्पनिक कथा बताया है। इस पर चर्चा बाद में पहले सिकंदर के भारत आक्रमण के समय घटी एक घटना का ज़िक्र-
पाणिनि ने अग्रश्रेणय: नामक एक छोटे से नगर-राष्ट्र (या आज की भाषा में कहें तो क़बीले का) ज़िक्र किया है। जो इतिहास में यूनानी भाषा में परिवर्तित होकर अगलस्सोई हो गया। इन अगलस्सोई नागरिकों ने यूनानी आक्रांता सिंकंदर का जम कर मुक़ाबला किया। भारतकोश पर इसका विवरण इस तरह है:-

  • अगलस्सोई सिकंदर के आक्रमण के समय सिन्धु नदी की घाटी के निचले भाग में शिविगण के पड़ोस में रहने वाला एक गण था।
  • शिवि गण जंगली जानवरों की खाल के वस्त्र पहनते थे और विभिन्न प्रकार के ‘गदा’ और ‘मुगदर’ जैसे हथियारों का प्रयोग करते थे।
  • सिकन्दर जब सिन्धु नदी के मार्ग से भारत से वापस लौट रहा था, तो इस गण के लोगों से उसका मुक़ाबला हुआ।
  • अगलस्सोई गण की सेना में 40 हज़ार पैदल और तीन हज़ार घुड़सवार सैनिक थे। उन्होंने सिकन्दर के छक्के छुड़ा दिए, लेकिन अन्त में वे पराजित हो गए।

• यूनानी इतिहासकारों के अनुसार अगलस्सोई गण के 20 हज़ार आबादी वाले एक नगर के लोगों ने स्वयं अपने नगर में आग लगा दी और अपनी स्त्रियों और बच्चों के साथ जलकर मर गए, ताकि उन्हें यूनानियों की दासता न भोगनी पड़े। यह कृत्य राजपूतों में प्रचलित जौहर प्रथा से मिलता प्रतीत होता है।

अगलस्सोई की पहचान पाणिनिके व्याकरण में उल्लिखित अग्रश्रेणय: से की जाती है।

भारत में अनेक कथाएँ हैं जो जन-जन में लोकप्रिय हुईं और इनमें से कई कथाओं के पात्र भारत की जनता के लिए श्रद्धेय हो गये।
जैसे अाल्हा ऊदल, नल दमयंती, कच देवयानी आदि।
आल्हा-ऊदल काव्य में लिखा है:-

बड़े-बड़े चमचा गढ़ महोबे में
नौ-नौ मन जामें दार समाय
बड़े खबैया गढ़ महोबे के
नौ-नौ सै चमचा खा जाएँ

अब इसमें कहाँ सचाई तलाशी जाय? नौ मन दाल वाले चमचे और नौ सौ चमचे दाल खाने वाले आदमी?
नल-दमयंती की कथा में नल की कथा दमयंती और राजा नल को एक इंसानों की तरह बोलने वाला हंस सुनाता है। कच-देवयानी की कथा में कच को पकाकर शुक्राचार्य को खिला दिया जाता है और वह पेट में जीवित हो जाता है। यदि कोई इन कथाओं का ऐतिहासिक महत्व पूछे या फिर वैज्ञानिक महत्व पूछे तो?

इस प्रश्नों का कोई अर्थ नहीं है। ये तो कथाएँ हैं। इनके नायक-नायिका जन साधारण में कब और कितना महत्वपूर्ण बन जाएँ कोई नहीं कह सकता। अनेक व्यक्ति ऐसे हुए हैं जिनको अवतार और भगवान की मान्यता मिली है।

रानी पद्मिनी के जौहर की घटना का पं. जवाहर लाल नेहरू ने ज़िक्र किया है। राजस्थान का इतिहास लिखने वाले कर्नल टॉड ने भी इस घटना का ज़िक्र किया है। आजकल कर्नल टॉड के इतिहास को कोई ख़ास मान्यता नहीं दी जाती साथ ही पं. जवाहर लाल नेहरू को भी इतिहासकारों की श्रेणी में नहीं माना जाता। मशहूर फ़ारसी इतिहासकार फ़रिश्ता ने जायसी के पद्मावत को इतिहास माना है।

आज के इतिहासकार जायसी के पद्मावत की अनेक घटनाओं में विरोधाभास और इतिहास विरोधी तारीख़ों का उल्लेख करते हुए इसे इतिहास से अलग करते हैं। इतना अवश्य है कि आधुनिक इतिहासकारों के मत से तीन तथ्य ऐतिहासिक हैं; रतनसेन का चित्तौड़ में राजतिलक, ख़लजी का चित्तौड़ पर आक्रमण और चित्तौड़ में स्त्रियों द्वारा जौहर।

अब प्रश्न यह उठता है कि हमारे देश में एक ऐसी हृदय विदारक घटना घटी और इस घटना को जन-जन में कभी न भूलने वाली एक याद के रूप में कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने लोकप्रिय कर दिया तो क्या कोई गुनाह कर दिया? हम सभी भारतवासियों को अपनी संस्कृति और गौरवशाली इतिहास पर गर्व तभी तो होगा जब इसको हमें बार-बार याद दिलाया जाएगा।

एक नज़र फ़िल्म के कथानक पर भी डाली जाय- एक कल्पना तो जायसी ने की जिसके कारण पद्मिनी की कथा आज इतनी महत्वपूर्ण हो गई कि भारतवासी उसे अपनी अस्मिता और गौरव से जोड़ने लगे। दूसरी कल्पना फ़िल्म के लेखक ने की जिसमें अल्लाउद्दीन ख़लजी को स्वप्न में पद्मिनी के साथ विहार करते सोच लिया जो कि मनोवैज्ञानिक ढंग से संभव हो सकती है लेकिन समाज के लिए पूर्णत: नकारात्मक सोच है। कल्पना असीम होती है लेकिन कल्पना की अभिव्यक्ति सदैव सीमित और संयमित होती है।

आज ख़लजी के स्वप्न में पद्मिनी को दिखाने का प्रयास है तो कल रावण के स्वप्न में सीता को दिखाने का प्रयास किया जाएगा और बहाना मनोविज्ञान और कला का लिया जाएगा। मेरा नज़रिया इस संबंध में स्पष्ट है लेकिन फ़िल्म के निर्माता लीला भंसाली के साथ हाथापाई या फ़िल्म के सेट को क्षति पहुँचाना भी ग़लत है। अदालत में जन हित याचिका एक सही और क़ानूनी रास्ता है।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 22 मई, 2017

मुझसे एक प्रश्न पूछा गया: आत्मबोध, स्वजागरण, अन्तरचेतना, प्रबोधन (एन्लाइटेनमेन्ट) आदि शब्दों से क्या तात्पर्य है ?

मेरा उत्तर: आपका व्यक्तित्व दूसरों का अनुसरण और नक़ल करके बना है। जाने-अनजाने ही न जाने कितने व्यक्तियों के व्यक्तित्व की विशेषताएँ, आदतें, हाव-भाव आदि आपके भीतर आ जाती हैं। आपको जब भी जहाँ भी कोई बात प्रभावित करती है तो वह आपके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है। किसी के; पैदल चलने का ढंग, बोलने का ढंग, गाने का ढंग आदि से आप इस क़दर प्रभावित रहते हैं कि उसे अपना लेते हैं।

इसी तरह आपके सोचने की प्रक्रिया और सोचने का ढंग स्वयं का न होकर किसी न किसी के द्वारा निर्देशित होता है। आपको बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि आप क्या सोचें जबकि सिखाया यह जाना चाहिए कि आप कैसे सोचें। अनेक शिक्षाओं, अनुशासनों, उपदेशों, नसीहतों आदि के चलते आप एक निश्चित घेरे में सोचने का कार्य करते हैं। आपका दिमाग़, सूचनाओं और ज्ञान का गोदाम बन जाता है जिसमें किसी नए विचार का अंकुर फूटना नामुमकिन हो जाता है।

हालत यहाँ तक हो जाती है कि किस बात पर करुणा करनी है और किस पर क्रोध, यह भी दिमाग़ में कूट-कूट कर भर दिया जाता है। कोई धर्म और कोई जाति दे दी जाती है जिसको आपको मानना होता है। आपको बताया जाता है कि क्या सही है और क्या ग़लत। इस सब से बनता है आपका व्यक्तित्व। यह व्यक्तित्व आपका अपना नहीं है। आपके दिमाग़ में नए विचार नहीं हैं। ईश्वर, अल्लाह या जीसस का अनुसरण, आपने अपने मन से नहीं चुना है। आप एक जीवित रोबॉट भर हैं।

आप जाग्रत तब होते हैं जब आप अपने दृष्टिकोण से सब कुछ देखते हैं। अपने जीवन के निर्णायक और निर्माता आप स्वयं होते हैं। आपके विचार स्वयं आपके विचार होते हैं। आप स्वतंत्रता के मुक्त आकाश के नीचे अपनी धरती पर मुक्त विचरण करते हैं। दूसरे के कहे या लिखे को बिना विचारे मानते नहीं हैं। जब आपको पता होता है कि आप कितने स्वतंत्र हैं और कितने परतंत्र। आप ईश्वर को स्वयं ही समझने का प्रयास करते हैं, न कि दूसरों से पूछते फिरते हैं। आप अपने से छोटों और संतान पर अपने विचार लादते नहीं है बल्कि उन्हें भी स्वयं निर्णय लेने में सक्षम बनाते हैं।

इसी को कहते हैं एनलाइटेनमेंन्ट और इसके लिए ध्यान धरना बहुत लाभदायक है।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 19 मई, 2017

प्रिय मित्रो! जैसा कि आपने चाहा... मैंने एक कहानी और लिखी है। ज़रा देखिए कैसी है!

'एक रात अचानक'

नवम्बर का महीना था। प्रदीप एक सुनसान रास्ते पर अकेला पैदल चला जा रहा था। दिमाग़ में लगातार एक के बाद एक चिंताएँ घुमड़ रहीं थीं। हलकी ठंड होने पर भी पता नहीं उसे क्यों पसीना अा रहा था ? तेज़ चलने की वजह से या तनाव के कारण।

‘मैं इतनी तेज़ क्यों चल रहा हूँ , क्या चक्कर है ?… कहीं जल्दी तो पहुँचना है नहीं मुझे… धीरे चलता हूँ।’

उसने चाल धीमी कर दी।
‘काहे का कृषि प्रधान देश है भारत… दहेज़ प्रधान है… दहेज़ प्रधान… शादी तय हो गई और पैसा पास में एक भी नहीं…’
वो धीमी आवाज़ में बड़बड़ाया।
‘रितिका को अच्छी से अच्छी पढ़ाई करवाई और अब शादी में कम से कम दस लाख रुपए ख़र्च होंगे। अरे भैया! चार लाख तो उस मंगल के बच्चे ने लगा दिए, अपनी बेटी की शादी में और वो तो बस टॅम्पो चलाता है टॅम्पो।’

‘कहाँ से लाऊँ इतना पैसा ?… कैसे बनेंगे ज़ेवर ?… कैसे होगी दावत ?… मेरी ससुराल वालों के पास भी कुछ नहीं है। अब क्या होगा… हे ईश्वर कुछ करो।’

तभी सड़क के किनारे पेड़ के नीचे, हनुमान जी का छोटा सा मंदिर दिखा। उसने रुक कर सिर झुकाकर हाथ जोड़ दिए। सर उठाया तो ऐसा लगा कि कुछ दूरी पर कोई हलचल है। थोड़ा चलने पर देखा कि दो लड़के एक लड़की को घसीटते हुए। सड़क से एक तरफ़ की गलीनुमा रास्ते की तरफ़ ले जा रहे हैं।

प्रदीप एक पेड़ के पीछे छुप गया और सड़क पार से झांककर उनको देखने लगा। एक लड़के के हाथ में देशी तमंचा जैसा कुछ था। पेड़ को पीछे छोड़ वो थोड़ा और आगे गया तो अंदाज़ा हुआ कि लड़की का मुँह, साफ़ी-गमछा जैसे कपड़े से बंधा था। लड़की घिसटते समय पैर पटक-पटक कर बहुत विरोध कर रही थी और इसीलिए लड़कों की लातों की ठोकर से पिट भी रही थी।

प्रदीप का मन बेचैन हो रहा था। मुँह सूखने लगा, दिल ज़ोरों से धड़क रहा था।
‘क्या करूँ-क्या करूँ-क्या करूँ ?… अगर मैं इनसे लड़ा और मर गया…? तो फिर मेरी बेटी का क्या होगा। कौन करवाएगा शादी?… दस लाख रुपए?… हो सकता है ये लड़की ही ग़लत हो?… भाड़ में जाने दो… घर पहुँचूँ… नहीं-नहीं मुझे ज़रूर लड़ना चाहिए… बचाना चाहिए लड़की हो।’

बमुश्किल बीस-पच्चीस क़दम की दूरी पर ही सब कुछ घटने वाला था। तरह-तरह की हल्की आवाज़ें आ रही थीं जिनमें गालियाँ ज़्यादा थीं।

‘शायद लड़की से बलात्कार और फिर उसे मार ही देंगे। सबूत थोड़े ही छोड़ेंगे।’
तभी प्रदीप कि नज़र पास ही पड़े साइकिल के टूटे करियर पर पड़ी। उसने करियर उठा लिया।

‘लड़के ज़्यादा तगड़े तो हैं नहीं… लेकिन मैं भी तो पचास का हो गया… पता नहीं झगड़े का क्या नतीजा निकले…’

फिर वही सोच… ‘रितिका की शादी… बीवी का क्या होगा… बलात्कार… ख़ून… रितिका…शादी… बलात्कार…धक-धक, धक-धक, धक-धक, धक-धक…

प्रदीप की पकड़ साइकिल के टूटे करियर पर कसती जा रही थी। वो आगे बढ़ा तो देखा कि एक लड़का तो लड़की को ज़मीन पर गिरा कर क़ाबू करने की कोशिश कर रहा है और दूसरा तमंचा लेकर खड़ा रखवाली जैसी कर रहा है।

प्रदीप उस गली में मुड़कर आगे की ओर गया और जैसे ही तमंचे वाला प्रदीप की ओर घूमा उसने तमंचे वाले हाथ पर साइकिल का करियर दे मारा। तमंचा गिर गया। करियर का दूसरा वार उसी लड़के के मुँह पर हुआ, उसके मुँह से ख़ून निकल आया और वो गली में अन्दर भाग गया। अब तक लड़की दूसरे लड़के की पकड़ से छूट चुकी थी और उसने पीछे से उस लड़के के लम्बे बालों को पकड़ लिया अब प्रदीप के लिए उस लड़के की पिटाई करना बहुत आसान हो गया।

लड़की ने बाल छोड़े तो तमंचा उठा लिया। लड़के में एक घूँसा ऐसा लगा कि वह बेहोश ही हो गया। लड़की लातों से उस लड़के को मारे जा रही थी। प्रदीप बुरी तरह हाँफ़ रहा था लेकिन विजेता की तरह।

उस लड़की की जॅकेट थोड़ी सी फट गई थी और ओठों के किनारे से ख़ून बह रहा था। लड़की किसी अच्छे घर की लग रही थी। प्रदीप ने उस लड़की को उसके घर पहुँचाया तो पता चला कि वो तो शहर के बड़े रईस घनश्याम चड्ढा की इकलौती बेटी है। चड्ढा साहब बहुत सज्जन व्यक्ति थे। शहर में उनकी नेकनामी के क़िस्से मशहूर थे। जब चड्ढा साहब को पता चला कि प्रदीप, बेटी की शादी के लिए पैसों के इन्तज़ाम के लिए परेशान है तो उन्होंने प्रदीप के बहुत मना करने के बावजूद उसकी बेटी की शादी की पूरी ज़म्मेदारी अपने ऊपर लेली।

शादी के दिन रितिका के पास एक सुन्दर लड़की आई और उससे बोली।
“हाय रितिका! आय एम सलोनी… मुझसे दोस्ती करोगी, मैं तुम्हारे पापा की फ़ॅन हूँ। ही एज़ वैरी ब्रेव मॅन।”
पास खड़े प्रदीप ने कहा “लेकिन सलोनी से ज़्यादा ब्रेव नहीं… हाहाहा”
सब साथ-साथ हँस पड़े।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 18 मई, 2017

प्रिय मित्रो! जैसा कि आप चाहते हैं, मैंने एक कहानी और लिखी है। ज़रा देखिए कैसी है!

‘दाना-पानी’

वो हमारे किराएदार थे। उनका अपना कोई नहीं था। बस हमें ही अपना मानते थे। पन्द्रह साल से हमारे साथ थे। घर के बज़ुर्ग जैसे हो गए थे। हम उन्हें काका कहते थे। सुबह शाम का दूध सब्ज़ी लाने का काम ख़ुद ही करते रहते। हमारे मना करने पर भी नहीं मानते थे। शुरू-शुरू में तो अपना खाना ख़ुद ही बनाते थे लेकिन बाद में मां ने उनका खाना भी बनाना शुरू कर दिया था। बाद में पापा ने उनसे किराया लेना बंद कर दिया तो ख़ुद ही किराए के बराबर पैसे घर के किसी न किसी सामान पर ख़र्च कर देते थे।

पाँच साल पहले अपनी पेंशन भी घर में देने की ज़िद की तो पापा राज़ी नहीं हुए। काका भी नहीं माने और अपनी पेंशन वाले अकाउंट में मुझे नॉमिनी बना दिया। मैं दस साल का था जब काका हमारे यहाँ किराएदार की हैसियत से रहने अाए थे। हमेशा कहते कि तेरी शादी देखकर ही मरूँगा और तेरी शादी में ज़िन्दगी में पहली बार दारू पीकर नाचूँगा भी। जिस दिन मेरी नौकरी लगी उस दिन काका ख़ूब ख़ुश हुए और ख़ूब रोए। मैं दूसरे शहर जो जा रहा था।

काका की तबियत ख़राब है यह सुनकर मैं छुट्टी लेकर घर आया था। अगले ही दिन वो चल बसे। उनका अंतिम संस्कार भी मैंने ही किया। रात देर तक उनके बारे में बात होती रहीं। सुबह जल्दी उठकर छत पर गया तो देखा कि कबूतर, फ़ाख़्ता और अन्य चिड़ियों का झुन्ड छत की मुंडेर पर बैठा था। मैं समझ गया और पास के टिन शेड में से दाना निकाल कर छत पर बखेर दिया तो सभी पंछी दाने पर टूट पड़े और मज़े से दाना खाने लगे। हाँ इतना ज़रूर था कि जिस तरह से काका के साथ पंछी घुल-मिल गए थे वैसे मेरे पास नहीं आ रहे थे। एक दूरी बनाकर दाना खा रहे थे।

मैं सोचने लगा कि मैं तो कल चला जाऊँगा। मां अपने घुटनों की वजह से छत पर नहीं आ सकतीं, पापा कभी भी आठ बजे से पहले नहीं उठते तो फिर कल से दाना कौन खिलाएगा? तभी मेरा फ़ोन बजने लगा। फ़ोन से पता चला कि मेरी छुट्टी दो दिन और बढ़ा दी गई है। मैंने सोचा कि चलो दो दिन और… लेकिन फिर दो दिन बाद दाना कौन डालेगा?

अगले दिन सुबह मुझे उठने में देर हो गई। जल्दी-जल्दी मैं छत पर पहुँचा तो देखा कि पंछी नहीं थे। मैं सोच में पड़ गया कि आख़िर माजरा क्या है! छत पर ध्यान से देखा तो कहीं-कहीं दाने पड़े थे। दाने वाला डिब्बा देखा तो ऐसा लगा कि दाना कम हुआ है। बड़े आश्चर्य की बात थी। अगले दिन मैं जल्दी जागकर छत पर छुप कर बैठ गया। धीरे-धीरे पंछी इकट्ठा होने लगे। तभी हमारे पड़ोसियों के यहाँ काम करने वाली बाई की छोटी बेटी मुंडेर से कूदी और भागकर दाने के डिब्बे से दाने निकाल कर पंछियों को डालने लगी। पंछी उससे इतने ज़्यादा घुले-मिले लगे कि मैं आश्चर्य से देखता ही रह गया।

इसका मतलब ये था कि ये लड़की रोज़ाना काका के साथ दाना डालने आती थी और अब काका नहीं रहे तो अपना फ़र्ज़ निबाह रही है। मेरे आँखें पानी से धुंधला गईं। साथ ही मुझे काका की पेंशन के रुपयों का सदुपयोग भी समझ में आ गया।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 11 मई, 2017

मित्रो! मेरी एक और कहानी पढ़ें-

‘इंदिरा गांधी का हॅलीकॉप्टर’

“हम कब तक पहुँचेंगे ? अभी कितनी देर और…?”
“बस एक घंटे में पहुँच जाएँगे।” पति ने कार चलाते हुए जवाब दिया।
“क्या उम्र होगी पापा की?” पति ने फिर पूछा
“एट्टी फ़ोर… तीन दिन बाद ही तो उनका बर्डडे है और आज ही वो हमें छोड़ गए।” इतना कहकर, कार की खिड़की की तरफ़ शाम के लाल सूरज को देखने लगती है।
“हाँऽऽऽ वोई मैं सोच रहा था।” पति ने कहा

सूरज साथ-साथ चल रहा था। बचपन के दिनों में जब गाँव से ट्रेन में पापा के साथ जाती थी तो सूरज साथ-साथ चलता था।

“पापा ! सूरज साथ-साथ क्यों चलता है?”
“अरे बाबा वो तो साथ रोशनी करता चलता है न!”
पापा अक्सर माँओं वाले जवाब देते पापाओं वाले नहीं। बड़े सीधे-सादे बच्चों जैसे जवाब, कोई कठिन बात नहीं कहते थे जो मेरे बाल-मन को समझ में न आए।”
“तो फिर… तो फिर… तो फिर सूरज रात को क्यों नहीं साथ चलता?” मैंने भी मिलियन डॉलर कोश्चन ठोक दिया।
“सारा दिन भागेगा तो थकेगा भी न… सो जाता है बेचारा… चलो अब तुम भी सो जाओ। ट्रेन में सब सोने की तैयारी कर रहे हैं।”

“लो… गाँव वाला टर्न आ गया… क्या सोच रही हो…?” पति ने कहा।
“कुछ नहीं बस ऐसे ही… अ…असल में आँसू रुक नहीं रहे…”

तीन दिन गुज़र गए। पापा की रहस्यमयी ‘फ़ेमस’ नीली डायरी उनकी अलमारी में मेरे फ़ोटो के नीचे रखी मिली। बचपन में इस डायरी के पन्ने कितने सफ़ेद, चमकीले लगते थे… आज कितनी उजड़ी हुई अपने पीले पन्नों को छुपाती सी लग रही है।

ये डायरी मुझे कभी पढ़ने को नहीं मिली। मैंने जल्दी-जल्दी पन्नों को खोलना शुरू किया। एक के बाद एक पन्ना, मेरे बचपन के एक-एक दिन की तस्वीर बनाता गया। धुँधली यादों के फीके रंग गहराने लगे जैसे किसी ब्लॅक एन वाइट मूवी को कलर किया जा रहा हो। ज़िन्दगी में पहली बार अाँसू कम पड़ गए। रोने के साथ मुस्कुराना और हँसना रुक ही नही रहा था। गाँव में चारों ओर शांति थी। गाँवों में, वैसे भी सब जल्दी सो जाते हैं। कहीं दूर किसी के यहाँ शायद अखंड रामायण का पाठ हो रहा था। मैं जाग रही थी और डायरी के पन्नों को बार-बार पढ़ रही थी।

डायरी में लिखा था-
एक छोटा ताला मुनमुन के लिए, तीन पहिए की साइकिल छुट्टन के लिए, भगवानजी का मंदिर (सीता दादी के घर में जैसा है वैसा ही)। रंगीन चॉक, ब्लॅकबोर्ड, हवाई जहाज़, इंदिरा गांधी वाला हॅलीकॉप्टर, शकुन्तला जीजी के लिए धूप का चश्मा… और भी न जाने क्या-क्या सूची बनी हुई थी। अचानक आँख से एक आँसू टपका तो इंदिरा गांधी के हॅलीकॉप्टर पर गिरा। शहर में उस समय की प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी आईं थीं। हॅलीकॉप्टर देखकर, मैं मचल गई थी कि पापा हम हॅलीकॉप्टर कब लेंगे?

पापा जब भी गाँव से शहर जाते थे तो हम सब बच्चे अपनी-अपनी डिमांड उन्हें बताते थे। एक दिन बाद जब वे लौटते तो रात हो चुकी होती थी। हम बच्चे सो जाते थे। अगले दिन ध्यान ही नहीं रहता था कि पापा से पूछना है कि क्या-क्या लाए।

पापा उन सब चीज़ों की सूची नीली डायरी में बनाते थे। पापा की आमदनी इतनी कम थी कि वे कभी भी शहर से हमारे लिए मंहगी चीज़ नहीं ला पाए। ऐसा नहीं है कि कुछ लाते ही नहीं थे। आम तो गाँव में ही मिल जाते थे लेकिन केले और संतरे नहीं मिलते थे इसलिए टॉफ़ियाँ और केले या संतरे ज़रूर लाते थे। हमारी पढ़ाई और स्वास्थ्य के लिए पापा अपनी सारी कमाई ख़र्च करते थे जिसका नतीजा ये हुआ कि हम सब पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी कर रहे हैं।

नीली डायरी आज पढ़ी तो अहसास हुआ कि पापा ने कितना सहेज कर हमारी सारी मांगों को लिखा था। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर वे कभी पूरी नहीं हो पाईं। आज समझ में आया कि पापा के जीवन की डायरी का मतलब, सिर्फ़ हमारी मांगें और उनको पूरा न कर पाने की मायूसी थी।

तभी छोटे ने आवाज़ दी और कमरे में आ गया।
“देख दीदी पापा की अटैची से ये छोटा सा हॅलीकॉप्टर मिला है। इसपे लिखा है ‘इंदिरा गांधी का हॅलीकॉप्टर’।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 8 मई, 2017

दूऽऽऽर-दूऽऽऽर किसी गॅलेक्सी के किसी ग्रह के किसी देश के मंत्रालय में वार्तालाप:

“सर! आश्वासन तो ख़त्म हो गए… नहीं दे सकते”
“क्या?… ऐसा कैसे हो सकता है? बाहर तो सीनियर सिटीज़न्स का एक डेलीगेशन बैठा है, अब क्या करें।”
मंत्री ने अपने सचिव पर चिंता ज़ाहिर की।
“सर इनकी मांगे मान लीजिए…”
“वो तो पॉसिबिल ही नहीं है, मांगे बहुत ज़्यादा हैं। आश्वासन ही देना होगा। वैसे एक बात बताओ कि आश्वासन ख़त्म कैसे हुए ?”
“सर! आप जब सत्ता में आए तो आपको सरकारी स्टॉक में दो हज़ार आठ सौ बाईस आश्वासन मिले थे, जिनको आपने यूज़ कर लिया। आश्वासनों की तीनों कॅटेगिरि याने; पूर्ण आश्वासन, ठोस आश्वासन और आश्वासन,… ये सब आप रोज़ाना दे रहे हैं…।” सचिव ने बताया।
“अच्छा… ठीक है-ठीक है… तो फिर हम वायदा भी तो कर सकते हैं…?”
“सॉरी सर वायदों का स्टॉक तो अपोज़ीशन के पास रहता है। अापको ये स्टॉक चुनाव के दौरान मिलेगा। सरकार वायदा नहीं करती, सरकार तो आश्वासन देती है।”
“अपोज़ीशन के पास भी तो आश्वासन होंगे…? ख़रीद लो… मुँह मांगी क़ीमत पर…?”
“सर अपोज़ीशन जब सत्ता से हटी तो नियमानुसार उसने सारे आश्वासन सत्ता पक्ष याने आपको हॅन्डओवर कर दिए। जिस तरह आपने चुनाव के दौरान बचे हुए वायदे विपक्ष को दे दिए थे।”
“कहीं न कहीं तो आश्वासन बिकते होंगे? चाहे डॉलर देने पड़ें लेकिन ख़रीद लो” मंत्री ने मंत्रियाना अंन्दाज़ में कहा।
“सर डॉलर तो क्या बिट कॉइन के बदले भी आश्वासन नहीं मिल सकते।”
“कोई न कोई तरीक़ा तो होगा अश्वासन अरेन्ज करने का?”
“सर इमरजेन्सी लगा दीजिए… तब कोई कुछ पूछने या मांगने नहीं आएगा। आश्वासन का झंझट ख़त्म।”
“हाँऽऽऽ ये ठीक रहेगा… लगा दो इमरजेन्सी”

© आदित्य चौधरी

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