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दिनांक- 31 मई, 2014

जनता नेताओं के झूठ को लेकर बहुत से सवाल खड़े करती रहती है। धन्य है भोली जनता जो कभी यह नहीं सोचती कि सच बोलना होता तो उनके प्यारे नेतागण राजनीति में क्यों आते ?... और बहुत से काम थे करने को...
सच बोलकर बहुत से काम हो सकते होंगे लेकिन राजनीति और व्यापार तो एक दिन भी नहीं हो सकता।

दिनांक- 30 मई, 2014
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भारत की मूल समस्या क्या है ? बिजली, पानी, सड़क, सुरक्षा या कुछ और ?
इन सारी समस्याओं की जड़ और वास्तविक मूल समस्या है 'सरकारों का शिक्षा के प्रति बेहद ग़ैरज़िम्मेदाराना रवैया।'

शिक्षा का इतिहास क्या है? औपनिवेशिक काल (अंग्रेज़ों का शासन) में भारत का शिक्षा बजट प्रतिशत, विश्व में सबसे कम था। अंग्रेज़ों के ही शासन वाला एक और दूसरा देश तुर्की ज़रूर ऐसा था जिसका शिक्षा बजट प्रतिशत भारत से भी कम था।

आज भी वही हाल है। सही मायने में तो कुल बजट का 20 से 25 प्रतिशत शिक्षा पर ख़र्च किया जाना चाहिए। एक विकासशील देश को तो इससे भी ज़्यादा करना चाहिए लेकिन हमारी सरकारें मात्र 10-12 प्रतिशत के आंकड़े पर ही अटकी रहती हैं। उल्लेखनीय है कि पिछली सं.प्र.ग. सरकार ने पिछले दस वर्षों में यह बजट 13 से घटाकर 10 प्रतिशत कर दिया। काश कोई सरकार तो ऐसी आए जो इस बजट को 20 प्रतिशत तक पहुँचाए।

'मैकाले का प्रेत' आज भी भारत की शिक्षा पद्धति पर अपना काला साया फैलाए हुए है। इस पद्धति का जो सबसे भयानक पहलू था, वह था 'प्रतिभा-दमनकारी' शिक्षा को स्थापित करना। इसमें वह सफल भी रहा। भारत के स्कूल-कॉलेज, आज प्रतिभाओं का दमन करने वाली सबसे प्रभावशाली संस्था के रूप में कार्य कर रहे हैं।

कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है कि अनेक प्रतिभाशाली प्रसिद्ध लोगों के परिचय में जब उनकी औपचारिक शिक्षा का उल्लेख होता है तो वे बड़ी शान से कहते हैं कि अपनी प्रतिभा और करियर को चमकाने के लिए उन्हें औपचारिक शिक्षा, बहुत कम उम्र में ही छोड़ देनी पड़ी। यह समस्या भारत को ही नहीं बल्कि यूरोप को भी प्रभावित करती रही है और अमरीका में तो औपचारिक शिक्षा का वैसे भी कोई विशेष मूल्य नहीं है।

इसलिए अगर कुछ बदलना है तो शिक्षा का ढाँचा बदला जाना चाहिए उससे ही सब कुछ ठीक हो जाएगा।

दिनांक- 30 मई, 2014
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बदायूँ में हुए अमानवीय कृत्य पर अपनी पुरानी कविता याद आई

इस शहर में अब कोई मरता नहीं
वो मरें भी कैसे जो ज़िन्दा नहीं

हो रहे नीलाम चौराहों पे रिश्ते
क्या कहें कोई दोस्त शर्मिंदा नहीं

घूमता है हर कोई कपड़े उतारे
शहर भर में अब कोई नंगा नहीं

कौन किसको भेजता है आज लानत
इस तरह का अब यहाँ मसला नहीं

हो गया है एक मज़हब 'सिर्फ़ पैसा'
अब कहीं पर मज़हबी दंगा नहीं

मर गये, आज़ाद हमको कर गये वो
उनका महफ़िल में कहीं चर्चा नहीं

अब यहाँ खादी वही पहने हुए हैं
जिनकी यादों में भी अब चरख़ा नहीं

इस शहर में अब कोई मरता नहीं
वो मरें भी कैसे जो ज़िन्दा नहीं

दिनांक- 30 मई, 2014

भारत की अधिसंख्य जनता संभवत: इस पक्ष में है कि कश्मीर राज्य की संवैधानिक स्थिति भी भारत के अन्य राज्यों की तरह ही हो जानी चाहिए। माजूदा सरकार से यह उम्मीद और भी ज़्यादा हो गई है। संविधान विशेषज्ञ यह जानते हैं कि यह सब कोरी बयान बाज़ी ही है क्योंकि ऐसा हो पाने की परिस्थिति अभी निकट भविष्य में नहीं है।

कश्मीर से संबंधित धारा 370 किसी साधारण राज्य-विधि की धारा नहीं है जिसे बदलना आसान हो। यह भारत के संविधान की धारा है जिसे बदलने के लिए संसद के दोनों सदनों में बहुमत चाहिए। यह बहुमत दो-तिहाई होने पर ही किसी संवैधानिक परिवर्तन की बात की जा सकती है। मौजूदा सरकार के बहुमत की स्थिति राज्यसभा में तो है ही नहीं और लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत का अभाव है।

... मगर मामला कुछ और ही होता है, नेता अगर बयान बाज़ी नहीं करें तो खाएंगे क्या ?

दिनांक- 30 मई, 2014

मंत्रियों की शिक्षा-योग्यता पर बवाल हो रहा है। इस तरह से बात की जा रही है जैसे कि भारत में पहली बार कोई सरकार बनी है। पत्रकार और स्तंभकार इतने भोलेपन से सवाल-जवाब कर रहे हैं कि मानो वे सरकार में मंत्री बनाए जाने की प्रक्रिया से अनभिज्ञ हों।
सभी जानते हैं कि मंत्री कोटे के आधार पर बनाए जाते हैं या फिर उनको मंत्रीपद पुरस्कार स्वरूप दिया जाता है। धर्म, जाति, क्षेत्र, राज्य, भाषा, समर्थक दल, आदि-आदि बहुत से 'कोटे' हैं जिनके कारण मंत्री बनते हैं। इसमें चमचा कोटा भी बहुत वज़नदार होता है। एक का नहीं प्रत्येक राजनैतिक दल का यही हाल है।
योग्यता और शिक्षा के आधार पर यदि मंत्रिमंडल बने होते तो 75% नेता तो भारत की राजनीति के आकाश में दूरबीन से ढूँढने पर भी नहीं मिलते।
मंत्रीपद की शपथ में आने वाले कई शब्दों का कुछ हिंदी भाषी मंत्री सही उच्चारण नहीं कर पाए जैसे कि 'अक्षुण्ण' और 'शुद्ध अंत:करण' । यहाँ तक कि कुछ ऐसे भी हैं जिनसे यदि 'सत्यनिष्ठा' और 'शपथ' जैसे शब्द बुलवाए जाएँ तो वे सही नहीं बोल पाएँगे।
इन बेचारों के लिए सीधी-सरल शपथ होनी चाहिए जिससे आगामी समय में कम-से-कम सही ढंग से बोल सकें और उसका मतलब भी उन्हें पता हो।

संघ के मंत्री के लिए पद की शपथ का वर्तमान प्रारूप :-

'मैं, अमुक, ईश्वर की शपथ लेता हूँ / सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूँ कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा, मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूँगा, मैं संघ के मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से निर्वहन करूँगा तथा मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूँगा।'

भविष्य का सरल प्रारूप:-

'मैं अमुक, भगवान की क़सम खाता हूँ / सच्चे मन से पक्का वादा करता हूँ कि मैं विधि द्वारा बनाए गए भारत के संविधान के लिए सच्ची भावना और लगन रखूँगा, मैं भारत की सत्ता और एकता को जोड़कर रखूँगा, मैं संघ के मंत्री के रूप में अपनी ड्यूटी को लगन और सच्चे मन से निबाहूँगा और मैं डर या अपना-तेरा, प्यार या दुश्मनी के बिना, सभी तरह के लोगों के लिए संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूँगा।'

दिनांक- 30 मई, 2014

न जाने किस शिक्षा और किस संस्कृति की बात हम करते हैं और अपने देश की महानता पर गर्व भी करते हैं। ज़रा जाकर देखिए बदायूँ में, शिक्षा और संस्कृति दोनों ही पेड़ पर मृत लटकी मिलेंगी...

दिनांक- 25 मई, 2014
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      अक्सर सुनने में आता है कि "सबसे अच्छा दोस्त ही सबसे ख़तरनाक दुश्मन हो सकता है।" क्या सचमुच ऐसा होता है? यदि ऐसा होता है तो इसका उल्टा भी सही होता होगा, याने कि सबसे ख़तरनाक दुश्मन सबसे अच्छा दोस्त हो सकता होगा।
      असल में प्रेम का ही एक रूप दोस्ती भी है, जब तक कि आपस में ईर्ष्या से भरी स्पर्धा न हो। वैसे स्वस्थ स्पर्धा को कटु स्पर्धा में बदलते देर नहीं लगती। दो मित्रों में जब प्रेम का पलड़ा हल्का होने लगता है तो घृणा का पलड़ा भारी हो जाता है। ऐसा अक्सर अपेक्षाओं के पूरा न होने से होता है।
     दोस्ती प्रेम ही है इसलिये स्त्री-पुरुष में दोस्ती नहीं हो सकती। जिनमें होती है वहाँ स्थिति भिन्न होती है। या तो पुरुष स्त्री जैसा होता है या स्त्री पुरुष जैसी वरना स्त्री-पुरुष में दोस्ती होना मुमकिन नहीं। सामान्यत: यह प्रकृति के विपरीत भी है। हाँ ऐसा ज़रूर होता है कि कार्यक्षेत्र में स्त्री-पुरुष परस्पर सहयोगी हो सकते हैं किंतु मित्र कभी नहीं।
कहते हैं प्रेम अंधा होता है और सही मायने में प्रेम वही होता है जो प्रेम के सागर में धड़ाम से कूद कर किया जाय। यह तो ठीक है कि प्रेम अंधे होकर किया जाता है लेकिन वह आँखें खोलकर, विवेकपूर्ण ढंग से और समझदारी के साथ निबाहना होता है वरना आँख खुलने पर कुछ और ही होता है।
      इसीलिए एक कहावत मशहूर है "यार की यारी से काम फैलों से क्या काम।"

दिनांक- 24 मई, 2014

भक्त ने कहा-
हे प्रभु ! तुम्हारे सामने पैसा कुछ नहीं
प्रभु बोले-
हे वत्स ! आज की दुनिया में, पैसा मुझसे कम भी नहीं

दिनांक- 24 मई, 2014
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दुम शेर की भी होती है और कुत्ते की भी लेकिन शेर अपनी दुम लहराता है और कुत्ता अपनी दुम हिलाता है। दुम तो दोनों हिलती हैं लेकिन मतलब अलग होता है। ये एक ऐसा फ़र्क़ है जिसको हम समझ लें तो ज़िन्दगी के बहुत से फ़न्डे क्लीयर हो जाते हैं।
जैसे कि-
          आज़ादी के वक़्त साढ़े तीन सौ से अधिक छोटी-बड़ी रियासतों में भारत बंटा हुआ था। इन रियासतों के रहनुमा अंग्रेज़ों के आगे जिस द्रुत गति से अपनी दुम हिलाते थे उससे उत्सर्जित होने वाली ऊर्जा से भारत की विद्युत आपूर्ति हो सकती थी। इन रियासतों के सरमायेदारों के नाम, आज जनता में कोई नहीं जानता। इसी समय ही अनेक व्यापारी-व्यवसायी भी थे, उन्हें भी कोई नहीं जानता। हाँ टाटा अवश्य अपवाद हैं लेकिन मैं टाटा को व्यापारी नहीं बल्कि उद्योगपति मानता हूँ जिसकी जवाबदेही जनता और देश के प्रति अवश्य होती है।
ख़ैर...
          ऐसा क्यों है कि जनता- गांधी, पटेल, सुभाष, नेहरू, भगतसिंह, सावरकर, अशफ़ाक़ आदि जैसे नाम तो जानती है लेकिन उन राजा-नवाबों के नहीं जो इन्हीं के समय में सत्ता में थे और जिनके कुत्ते भी तंदूरी मुर्ग़ का मज़ा लेते थे।
जवाब सीधा सा है जिसे सब जानते हैं-
          शक्ति का प्रयोग अय्याशी और अहंकार के लिए करने वाले शासकों से जनता का सरोकार क्षणिक होता है और शक्ति को जनता का कर्ज़ समझने वाले शासकों को जनता याद रखती है।

दिनांक- 23 मई, 2014
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नारी विमर्श की सभी पूर्वानुकृतियों को पूर्णत: नवीन आयाम देती एक उत्कृष्ट कृति है 'क्वीन'।
मैंने कंगना राणावत की कोई फ़िल्म, शायद ही देखी हो और इस फ़िल्म को देखने के प्रस्ताव को भी मैंने गंभीरता से नहीं लिया था। जब यह फ़िल्म देखी तो अहसास हुआ कि निश्चित ही यह फ़िल्म सबको देखनी चाहिए।
पुरुष के निरर्थक अभिमान को विन्रमता से धूल-धूसरित करती हुई इस फ़िल्म की नायिका पूर्णत: भारतीय परिवेश और परंपराओं के साथ एक नई दुनिया में क़दम रखती है और इस क़दम को अंगद के पाँव की तरह इस क़दर जमा भी देती है कि कोई अभिमानी रावण इसे हिलाने की भी नहीं सोच सकता।
यह फ़िल्म स्त्रियों से अधिक पुरुषों को दिखाई जानी चाहिये जिससे उनकी समझ में आए कि स्त्री केवल उनकी वामांगी नहीं है बल्कि प्रकृति की संपूर्ण रूप से विकसित एक ऐसी कृति है जिसकी बराबरी करने के लिए पुरुष को ही युगों तक प्रतीक्षा करनी होगी।

दिनांक- 23 मई, 2014
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महाभारत युद्ध चल रहा था। प्रथा के अनुसार अर्जुन ने कहा कि संध्या हो गई अब युद्ध विराम होता है, शेष युद्ध कल होगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण को आश्चर्य हुआ और बोले कि अर्जुन जब हमें आने वाले अगले क्षण का भी पता नहीं हैं कि आगे क्या होगा तो तुमने कैसे कह दिया कि शेष युद्ध कल होगा। क्या तुमने समय को जीत लिया है या भविष्य दृष्टा बन गए हो। समय के संबंध में इस प्रकार का अर्थहीन वक्तव्य नहीं देना चाहिये। तुम मात्र इतना कह सकते हो कि आज युद्ध विराम होता है।
यह पूर्णत: सही है कि अगले क्षण का भी पता हमें नहीं होता कि क्या होने वाला है। हम भविष्य की योजना बना सकते हैं उसे नियोजित करने का कार्यक्रम बना सकते हैं लेकिन भविष्य को निश्चित नहीं मान सकते।

दिनांक- 21 मई, 2014

किसी बड़े से शहर में किसी बड़े से आदमी ने मुझसे पूछा...
Well Mr. Chaudhary ! what makes you crazy ?

मैंने जवाब तो कुछ नहीं दिया सिर्फ़ हंस कर रह गया लेकिन सोचने लगा कि जवाब देता तो क्या देता...

कहीं किसी गाँव की पगडंडी पर साइकिल चलाता कोई आदमी जो देखने में फ़ौजी लग रहा हो और उसकी पत्नी साइकिल के कैरियर पर बैठी हो... गोद में बच्चा लिए...
या फिर-
मिट्टी के चूल्हे पर बबूल की लकड़ियों से सिकती पानी के हाथ की देशी घी से चुपड़ी रोटी और साथ में छुकी हरी मिर्च, दूध में चाय की पत्ती डली हो... और हाँ... इस पूरी प्रक्रिया में काँच की चूड़ियों की खनक भी आती रहे...
या फिर-
कहीं किसी गाँव में कोई तन्दुरुस्त सी अधेड़ देेहाती औरत जिसने छींट की कमीज़ और सीधे पल्ले की हल्के रंग की धोती पहनी हो...
या फिर-
हाथ से ताज़ा चला हुआ मठ्ठा (छाछ) जिसमें मक्खन के कुछ दाने तैरते रह गए हों और साथ में गुड़...
या फिर-
कहीं किसी खेत में लाल मिर्च और काले नमक के साथ चने का साग (कच्चा)...
या फिर-
जलती होली में भुनते होले...
या फिर-
गाढ़ी-गाढ़ी कढ़ी, चावल के साथ...
या फिर-
कहीं किसी गाँव में चलती चक्की की कु कु कु की आवाज़...
या फिर-
कभी-कहीं, हल्की-हल्की, बूँदा-बाँदी में लकड़ी के कोयलों में सिकते दूधिया भुट्टे, काला नमक और नीबू लगा के...
या फिर-
किसी बाग़ में सिकती भूभर बाटी और दाल, चटनी और चूरमा के लड्डुओं के साथ...
या फिर-
कहीं किसी गाँव में चाँदनी रात, खरहरी खाट, हवा पुरवाई हो...
या फिर-

टेंटी का अचार, झर बेरिया के बेर, टपका आम, पापड़ी, इमली (कटारे) ... और न जाने क्या-क्या ...चाहें तो कुछ आप भी गिनाएँ...

दिनांक- 20 मई, 2014

जिस दिन भी मुझे ऐसा लगता है कि मैं अब बहुत अनुभवी और परिपक्व हो गया हूँ उसी दिन कोई न कोई वज्र मूर्खता का प्रदर्शन कर बैठता हूँ और सारी बुद्धिमत्ता धरी की धरी रह जाती है।

उम्र बढ़ने से अनुभव तो बढ़ता है पर बुद्धि कम होती जाती है। वैसे भी समाज में जीने के लिए अनुभव ही तो चाहिए बुद्धि बेचारी को पूछता ही कौन है...

दिनांक- 19 मई, 2014

आम आदमी से वायदे करके चुनाव जीता जाता है और ख़ास आदमियों से किए वादे निभाकर सरकार चलाई जाती है। काश इसका उल्टा हो सकता...

दिनांक- 19 मई, 2014

निष्ठुर हुए बिना या कहें कि सहृयता क़ायम रखते हुए किसी व्यवसाय-व्यापार में कैसे सफल हुआ जा सकता है? किसी को मालूम हो तो मुझे ज़रूर बताएँ...

दिनांक- 19 मई, 2014

भारत के चुनाव में सेक्यूलरिज़्म याने धर्म निरपेक्षता शायद अब सामयिक मुद्दा नहीं रहा। नई पीढ़ी 'धर्म सापेक्ष' है और काफ़ी हद तक 'सर्व धर्म सम्मान' या कहें कि 'सर्व धर्म सापेक्ष' है।
निश्चय ही 'नीरस धर्म निरपेक्षता' से धर्म के सांस्कृतिक स्वरूप का अनुसरण सुखदायी है। मुझे कभी नहीं लगा कि धर्म निरपेक्षता, संकीर्णता से भरे दिमाग़ से मुक्त होने की कोई गारंटी है। संकीर्णता को एक बार फिर से परिभाषित किए जाने की आवश्यकता है।
विकास, रोज़गार और भ्रष्टाचार निवारण इस चुनाव में जनता द्वारा वोट देने का पक्ष चुनने का कारण बना। जनता का निर्णय अधिकतर सही ही होता है। उपलब्ध विकल्पों में से श्री नरेन्द्र मोदी को वोट देकर जनता फ़िलहाल, बेहतर को ही चुना है।
मैं निष्पक्ष विचार प्रकट करने का भरसक प्रयत्न करता हूँ और मैं ऐसा कर पाऊँ इसलिए मैं किसी राजनैतिक दल में सक्रिय नहीं हूँ।
सिर्फ़ चुनाव में ही नहीं बल्कि आज के ज़माने के शादियों में भी देखने में आ रहा है कि अन्तर-धर्म शादी में नई पीढ़ी के लोग अपने जीवन साथी का धर्म बदलने पर कोई ज़ोर नहीं देते और एक दूसरे के धर्म का सम्मान करते हैं।
भारत के विकास की अनंत संभावनाएँ हैं...

शब्दार्थ

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