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दिनांक- 26 फ़रवरी, 2014
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मानवता, एक अत्यंत दुर्लभ गुण है। जिसे योग्यता की तरह अर्जित किया जाना या दिया जाना असंभव ही है।
मनुष्य के आवेग के क्षणों में मानवता की उपस्थिति और भी दुर्लभ हो जाती है। मानवता की परीक्षा सही मायने में, किसी व्यक्ति के क्रोध और यौन आवेग के समय ही होती है। वैसे तो सामान्य स्थिति में सभी मानवतावादी होने के दंभ भरते हैं। जो लोग देश, धर्म, जाति, व्यापार, परिवार, राजनीति, पैसा आदि के लिए मानवता के विपरीत आचरण करते हैं उन्हें मानवतावादी कैसे कहा जा सकता है। दुनिया में छद्म मानवतावादियों का बोलबाला है। सामान्यत: वास्तविक मानवतावादियों को समाज का प्रकोप सहना पड़ता है। सामाजिक होना और मानवतावादी होना दोनों एक साथ होना बहुत कठिन है शायद असंभव।

दिनांक- 26 फ़रवरी, 2014
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बहुत से माता-पिता, अपने अभिभावक होने के अति उत्साह में अपने बच्चों कि लिए बहुत से फ़ैसले करने की सुविधा को अपना अधिकार समझने लगते हैं।
बच्चों के काफ़ी बड़े होने पर भी माता-पिता ही, उनके लिए अच्छा क्या है और बुरा क्या है, यह ख़ुद ही तय करने की प्रक्रिया अपनाते है।
जो कि सर्वथा ग़लत है।
माता-पिता का कर्तव्य अपनी संतान के लिए अच्छे-बुरे में से अच्छा चुनकर उस पर संतान को चलने पर मजबूर करना नहीं है बल्कि माता-पिता का कर्तव्य तो अपनी संतान को यह बताना है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा।
माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को इस लायक़ बनाएँ कि वे स्वयं अच्छा बुरा तय कर सकें।

दिनांक- 21 फ़रवरी, 2014
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मेरे प्रिय मित्र ने मुझसे प्रश्न किया है कि भगवान कृष्ण की सोलह कलाएँ कौन-कौन सी थीं?
          मेरा उत्तर: लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी (ईसवी) तक कला का प्रयोग 'अंश', 'भाग' या 'खण्ड' के लिए हुआ। सूर्य की गति को बारह भागों में बाँटा गया जिसे राशि भी कहा गया। राशि का अर्थ भी हिस्से या अंग्रेज़ी में कहें तो 'Portion' से ही था। सूर्य की गति को बारह कलाओं या राशियों में बाँटा गया और चन्द्रमा को सोलह कलाओं में।
         तीसरी-चौथी शताब्दी के बाद कला शब्द का अर्थ 'Art' के लिए होने लगा। जिसका कारण वात्सायन और जयमंगल द्वारा मनुष्य की विभिन्न रङ्ग (रंग) क्षमताओं, विधाओं और सेवाओं को श्रेणीबद्ध कर देना रहा। जयमंगल ने इन्हें 64 श्रेणियों में विभक्त किया। जिन्हें चौंसठ योगिनी के रूप में भी प्रसिद्धि, वज्रयानियों के प्रभाव से निर्मित खजुराहो आदि में मिली।
         जिन सोलह कला का उल्लेख कृष्ण के लिए हुआ उसका संदर्भ अंश है न कि कोई 'आर्ट'। इसके लिए वैदिक और पौराणिक दो मान्यता हैं।
         पूर्णावतार, ईश्वर के सोलह अंश (कला) से पूर्ण होता है। सामान्य मनुष्य में पाँच अशों (कलाओं) का समावेश होता है यही मनुष्य योनि की पहचान भी है। पाँच कलाओं से कम होने पर पशु, वनस्पति आदि की योनि बनती है और पाँच से आठ कलाओं तक श्रेष्ठ मनुष्य की श्रेणी बनती है। अवतार नौ से सोलह कलाओं से युक्त होते हैं। पन्द्रह तक अंशावतार ही हैं। राम बारह और कृष्ण सोलह कलाओं से पूर्ण हैं।
         एक मान्यता यह भी है कि राम सूर्यवंशी हैं तो सूर्य की बारह कलाओं के कारण, बारह कलायुक्त अंशावतार हुए। कृष्ण चंद्रवंशी हैं तो चन्द्रमा की सोलह कलाओं से युक्त होने के कारण पूर्णावतार हैं।
'कला' की तरह ही अनेक ऐसे शब्द हैं जिनके अर्थ कालान्तर में बदल गए। जिनमें से एक शब्द 'संग्राम' भी है। प्राचीन काल में विभिन्न ग्रामों के सम्मेलन को संग्राम कहते थे। इन सम्मेलनों में अक्सर झगड़े होते थे और युद्ध जैसा रूप धारण कर लेते थे। धीरे-धीरे संग्राम शब्द युद्ध के लिए प्रयुक्त होने लगा।
         'शास्त्र' शब्द को कला ने बहुत सहजता के साथ बदल दिया पाक शास्त्र , सौंदर्य शास्त्र, शिल्प शास्त्र आदि सब क्रमश: पाक कला, सौन्दर्य कला, शिल्प कला आदि हो गए।

दिनांक- 21 फ़रवरी, 2014
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ईश्वर के विषय में मुझसे बार-बार कई प्रश्न पूछे गए हैं-
ईश्वर है या नहीं?
आप ईश्वर को मानते हैं या नहीं?
ईश्वर कैसे मिलेगा?

मेरा उत्तर है:
जो ईश्वर के संबंध में प्रश्न करता है, वह इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए परिपक्व नहीं है और जो परिपक्व है वह कभी ईश्वर के संबंध में कोई प्रश्न नहीं पूछता।
ईश्वर अज्ञात है और उसका अज्ञात होना ही उसका ईश्वर होना है। जो ज्ञात है या हो सकता है, वह ईश्वर कैसे हो सकता है।
ईश्वर की खोज के साधन उपलब्ध नहीं हैं। जिन साधनों से ईश्वर प्राप्ति की बात की जाती है वे सभी ज्ञात साधन हैं। अज्ञात की खोज कभी ज्ञात साधनों की सहायता से नहीं होती।

दिनांक- 11 फ़रवरी, 2014
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तेरी शोहरतें हैं चारसू, तू हुस्न बेपनाह है
तेरे चाहने वाले बहुत, क़द्रदाँ कोई नहीं
तेरा सब्र भी कमाल है, बफ़ा तो बेमिसाल है
हासिल है आसमाँ तुझे, मिलती ज़मीं कोई नहीं

दिनांक- 5 फ़रवरी, 2014
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प्रश्न किया गया है कि- मन में भय कब आता है?

मेरा उत्तर है: मन में भय होने का अर्थ है
कि आपने कोई संकल्प किया है अन्यथा भय कैसा!
संकल्पवान व्यक्ति को भय सताता है।
भय की परिणति हमें नकारात्मक की ओर ही ले जाय ऐसा नहीं है बल्कि अनेक अद्भुत कृत्य भय का ही परिणाम हैं।
आपने वह विज्ञापन देखा होगा कि 'डर के आगे जीत है' इसका अर्थ ही यह है कि आपके मन में भय के उत्पन्न होने का कारण आपके द्वारा किया गया कोई संकल्प है।

दिनांक- 5 फ़रवरी, 2014
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सिद्धांतवादी, आदर्शवादी और परम्परावादी व्यक्ति का अहिंसक होना बड़ा कठिन है।
वह अपने उसूल-आदर्शों के पालन के लिए किसी भी शारीरिक, भावनात्मक या वैचारिक हिंसा के लिए तत्पर रहता है।
यहाँ तक कि जो किसी आदर्श या परम्परा के कारण ही अहिंसा में विश्वास करते हैं उनमें भी हिंसा का एक अलग रूप होता है।

दिनांक- 4 फ़रवरी, 2014
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मुझसे प्रश्न पूछा गया है कि सच्चे प्रेमी/प्रेमिका और सच्चे मित्र की पहचान कैसे हो?
मेरा उत्तर: आप कोई कार या मोटर साइकिल ख़रीद रहे हैं कि जिसकी क्वालिटी की जांच करेंगे? प्रेम में और मित्रता में किसी की गुणवत्ता की जांच नहीं की जाती। ज़रा सोचिए कि यदि सामने वाला आपकी जांच करने लगे तो ? क्या आप खरे उतरेंगे ? क्या आप विश्वास के साथ अपने बारे में कह सकते हैं कि आप पूरी तरह खरे प्रेमी या मित्र हैं?
प्रेमियों के प्रेम में, यदि प्रथम वरीयता प्रेम ही है तभी वह प्रेम है अन्यथा वह कुछ और ही होगा प्रेम नहीं।
मित्रों की मित्रता में, यदि सबसे पहला कारण मित्रता ही है तो उसे हम मित्रता कह सकते हैं।
सामान्यत: होता यह है कि जब हम कहते हैं कि हम किसी से प्रेम करते हैं या कोई हमारा मित्र है तो- उसके पीछे कुछ कारण छुपे होते हैं। ये कारण बहुत से हो सकते हैं जिनका कोई संबंध प्रेम या मित्रता से नहीं होता। हम इन कारणों की ओर या तो ध्यान नहीं देते या फिर ध्यान देना नहीं चाहते। ऐसी मित्रता या प्रेम अस्थाई होता है।
प्रेमी/प्रेमिका या मित्र को दुर्घटनावश 'खो देना' तो बहुत दु:खदायी है लेकिन जो यह कहते हैं कि 'प्यार में धोखा' हो गया या 'मित्रता में कपट' हो गया, वे ठीक नहीं कहते । प्यार या मित्रता कोई व्यवसाय नहीं है जो कोई धोखा या कपट कर देगा।
हम प्यार 'पाने' के प्रयास में अधिक रहते हैं, प्यार 'करने' के प्रयास में कम। इसी तरह मित्रता भी। हम जब कभी स्वयं की भावनाओं का विश्लेषण करें तो हम पाएँगे कि जिससे हम प्यार करते हैं वह हमारे साथ धोखा कर ही नहीं सकता। यदि आपको धोखे की संभावना दिखाई दे रही है तो इसका अर्थ है कि आप कुछ पाना चाहते हैं और कुछ पाने की चाह ही प्रेम और मित्रता की सबसे बड़ी शत्रु है।

शब्दार्थ


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