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मुझसे मेरे एक मित्र ने पूछा कि अगर तुम्हें एक हज़ार करोड़ रुपए दे दिए जाएँ तो क्या करोगे?
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ऋग्वेद में कहा है:
मैंने कुछ देर सोचकर कहा-
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न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवा: (4.33.11)
“एक तो मुझे ताज़ा मट्ठा पसंद है तो एक-दो भैंस-गाय लूँगा। कढ़ी-चावल पसंद हैं तो उसके लिए भी मट्ठा ही चाहिए। मिस्सी रोटी दही भुने ज़ीरे के साथ पसंद हैं तो उसके लिए भी भैंस-गाय ही चाहिए… मतलब कि कुल मिलाकर गाय-भैंस तो चाहिए ही। इनके चारे के लिए दो-चार एकड़ खेत और साथ ही सब्ज़ी-अनाज भी उसी में उगा लेंगे। हाँ ट्यूब वैल हो और खेत नदी के पास हो। नदी अगर गंगा हो तो बस मौज ही आ गईं। खेत में ही मक़ान हो। मक़ान वही पुराना आंगन वाला जिसमें सुबह को धूप आए याने पूरब की ओर दरवाज़े वाला… लेकिन मक़ान ज़्यादा बड़ा न हो। टीवी, अख़बार, कंप्यूटर, स्मार्ट फ़ोन से दूर-दूर का कोई वास्ता न हो। खेत में ही एक बड़ी सी पानी की टंकी हो तैरने के लिए (चलिए छोटा सा स्विमिंग पूल कह लीजिए)। कुल मिला कर एक आश्रम-नुमा कुछ बनाया जाए।
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देवता उसी के सखा बनते हैं जो परिश्रम करता है
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| [[ चित्र:Aditya-Chaudhary-Facebook-Updates-3.jpg|250px|center]]
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| 28 जून, 2015
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अभी-अभी यूँही दिमाग़ में कोंधा..
  
मिट्टी के चूल्हे की, पानी के हाथ की रोटी मिल सकें अाहाहा क्या बात है। वो भी बबूल की लकड़ी से सिकी हुई। कभी-कभी रात को बनी मिस्सी रोटी और बासी कढ़ी का आनंद आए। घूमने फिरने के लिए एक सवारी हो तो बढ़िया रहेगा... जीप नुमा कुछ…। जब मन किया तो आस-पास घूम-घाम लिए
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मुक़ाबिल उनसे हूँ, आदत है जिनको जीत जाने की
हाँ एक मोबाइल फ़ोन तो हो जिससे बच्चों से बात हो सकें या कोई मित्र कभी याद करे तो उससे। कुछ पैसा बैंक में जमा हो जिससे महीने का ख़र्च चलता रहे। अास-पास के बच्चों को इकट्ठा करके पढ़ाएँ। ख़ासकर जो बच्चे स्कूल नहीं जा सकते उन्हें…”
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आज ख़्वाइश है उनसे हाथ, दो-दो आज़माने की
 
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ये सब सुनते-सुनते मित्र बीच में बोले “ये तो बहुत कम में हो जाएगा बात तो हज़ार करोड़ की हो रही है?”
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मैंने कहा “बाक़ी सब पैसा तो बाँटने में चला जाएगा, मेरी ज़िन्दगी भर की आदत बदल थोड़े ही जाएगी।”
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“फिर तो तुमको हज़ार करोड़ मिलने का कोई मतलब ही नहीं है। तुम्हारे तो इरादों में ही कंगाली है। तुम ऐसे ही ठीक हो…”
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अब मैं क्या कहता…
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| 30 मई, 2016
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| 27 जून, 2015
 
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कुछ समय पहले मुझसे एक प्रश्न किया गया था। जोकि फ़ेसबुक मित्र ने ही किया था। उसका जवाब आज दे रहा हूँ-
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बहुत दिनों की पीड़ा थी आज मुखर...
प्रश्न:-
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Sir आपने लगभग 1 वर्ष पहले ये वाक्य उत्पन्न किये थे..'जाट जाति नहीं नस्ल है'...Sir हम इन विचारों के पीछे के आधार जानना चाहते हैं...हम जानना चाहते हैं कि ये विचार आपने किस आधार पर उत्पन्न किये थे....आपके वाक्य हमारी सोच को परिपक्वता प्रदान करेंगे।
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उत्तर:-
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एक गुमनाम किसान गजेन्द्र द्वारा, सरेआम फांसी लगा लेने पर...
सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं जाति-नस्ल या धर्म के कारण किए गए भेद-भाव से पूर्णत: असहमत हूँ। यहाँ मैं प्रश्न के उत्तर के लिए ही जाति आदि का उल्लेख कर रहा हूँ।
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जाति की पहचान से सामान्य-कर्म की जानकारी होती थी। जो अब सामान्यत: नहीं होती। यदि पारंपरिक आधार से कहें तो जो आपका रोज़गार या व्यवसाय है वही आपकी जाति है। नस्ल की पहचान आपके; स्वभाव, देहयष्टि, चेहरे और शरीर के हावभाव आदि से होती है। नस्ल के लिए गोत्र शब्द का भी इस्तेमाल कहीं-कहीं हो सकता है।
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हर शख़्स मुझे बिन सुने आगे जो बढ़ गया
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तो दर्द दिखाने को मैं फांसी पे चढ़ गया
  
विश्व में लगभग सात प्रकार की मुख्य नस्ल हैं। जिनके अनुसार हाथों, पैरों, उँगलियों, आँखों, मुख, माथा आदि की बनावट श्रेणीगत की जाती है। वैज्ञानिक कहते हैं कि हम सभी सात मांओं की संतान हैं। डी.एन.ए की बनावट का विश्लेषण करते हुए वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुँचे हैं।
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महलों के राज़ खोल दूँ शायद में इस तर्हा
रुचिकर बात तो यह है कि भारतीय संस्कृति में मूल देवियों के रूप में ‘सप्त मातृका’ का ज़िक्र बार-बार आया है। इसी प्रकार पश्चिमी संस्कृति में भी ऍडम की पत्नी ईव की सात बेटियाँ बताई गई हैं। सात की संख्या का दूसरे विभागों में भी विशेष महत्व है। जैसे सात रंग, सात सुर, सात समन्दर और हिन्दू शादी में सात ही फेरे जैसे बहुत से उदाहरण विज्ञान और धर्म में दिए जा सकते हैं।
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इस वास्ते ये ख़ून मेरे सर पे चढ़ गया
ख़ैर...
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नस्ल के लिए ज़िम्मेदार है; डी.एन.ए., पानी, खान-पान, ब्लड ग्रुप, मौसम और निवास स्थान। जबकि जाति के लिए रोज़गार और व्यवसाय ही ज़िम्मेदार हैं। एक जाति के भीतर कई नस्लें हो सकती हैं और एक नस्ल के भीतर कई जातियाँ। कालान्तर में नस्ल बदल भी जाती है। जिसका कारण हज़ारों वर्षों तक उस नस्ल का किसी ऐसी जाति के कार्य को अपना लेना होता है जो कि उस नस्ल के स्वभाव और शारीरिक बनावट से पूरी तरह भिन्न होता है।
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ब्राह्मणों के बारे में चर्चा करें तो; नंबूदरीपाद, चित्तपावन, सारस्वत, गौतम, सनाड्य आदि की बनावट में पर्याप्त भिन्नता है। इनके स्वभाव में भी भिन्नता है। इसका कारण नस्ल या गोत्र है न कि जाति क्योंकि जाति तो सबकी एक ही है।
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कांधों पे जिसे लाद के कुर्सी पे बिठाया
जहाँ तक मेरा अन्दाज़ा है मेरा आशय स्पष्ट है।
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वो ही मेरे कांधे पे पैर रख के चढ़ गया
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किससे कहें, कैसे कहें, सुनता है यहाँ कौन
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कुछ भाव ज़माने का ऐसा अबके चढ़ गया
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जब बिक रहा हो झूठ हर इक दर पे सुब्ह शाम
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‘आदित्य’ ये बुख़ार कैसा तुझपे चढ़ गया
 
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| [[चित्र:Aditya-Chaudhary-Facebook-Updates-4.jpg|250px|center]]
| 24 अप्रैल, 2016
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| 16 जून, 2015
 
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आज [[विश्व पुस्तक दिवस]] है। मुझे बचपन से ही पढ़ने का शौक़ रहा है। शुरुआत हुई थी चंदामामा, नंदन और पराग से... फिर धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और सारिका पढ़े। कॉमिक्स में ली फ़ॉक की फ़ैन्टम, मॅन्ड्रेक और फ़्लॅश गॉर्डन से शुरुआत हुई और बाद में मेरे पसंदीदा बने ऍस्टेरिक्स-ऑबेलिक्स, जिन्हें फ़्रांसीसी गोसिनी और उडेरज़ो तैयार करते थे। ऍस्टेरिक्स कॉमिक साल में एक बार ही आती थी और बार-बार पढ़ी जाती थी।
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मेरे ही एक लेख से...
बचपन में फ़ॅन्टम की कॉमिक हिन्दी में वेताल नाम से आती थी। डायना, गुर्रन, वान्डार बौने और वेताल का घोड़ा तूफ़ान, कुत्ता शेरा (ओह कुत्ता नहीं भेड़िया हाहाहा) हमारे जाने पहचाने चरित्र बन गए थे। मॅन्ड्रेक, लोथार, होजो, नारडा, थॅरोन, आदि चरित्र हमारी चर्चा का विषय रहते थे। वेताल का घर डेंकाली में था जो हमें वास्तविक लगता था। वेताल के मित्र राष्ट्रपति लुआगा, राजा जूनकर आदि चरित्र बड़े प्रभावशाली और जीवंत थे।
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अब पुस्तकों के पढ़ने की बारी आई तो ज़ाहिर था कि मुंशी प्रेमचंद का गोदान ही पढ़ा जाना था। इसके बाद तो किताबों की लाइन लग गई। इस श्रृंखला में तमाम रूसी, फ्रांसीसी उपन्यास पढ़ डाले। जिसमें तोल्सतोय का 'पुनरुत्थान' और 'आन्ना कारिनिना' से लेकर गोर्की का 'मां', तुर्गनेव का 'पिता और पुत्र', कामू का 'ला पेस्त' (प्लेग), बालज़ाक का 'ओल्ड गोरियो', चेख़ोव की कहानियां आदि सैकड़ों किताबें पढ़ी गईं। श्रीलाल शुक्ल का 'राग दरबारी' और रेणु का 'परती परिकथा' से लेकर बाबर का 'बाबरनामा' आदि एक लम्बी श्रृंखला बनती चली गई। इतिहास, दर्शन और धर्म मेरे प्रिय विषय बन गए। वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि सब पढ़े।
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मैंने जब भी कोई पुरानी फ़िल्म देखी चाहे वो 25 साल पुरानी हो या 50 से 70 साल पुरानी भी हो हरेक घरेलू-सामाजिक फ़िल्म के कुछ संवाद बंधे-बंधाए होते थे।
  
मेरे लिए जैसे किताब ही जीवन था। सबसे बड़ा मनोरंजन, सबसे बड़ा व्यसन और सबसे बड़ा जुनून, किताब पढ़ना ही हो गया। मैं अपने से बड़ों से अक्सर किताबों के नाम पूछता और फिर दिल्ली में दरियागंज से ख़रीद कर लाता रहा। धीरे-धीर मेरा पुस्तकालय तैयार हो गया जो आज भारतकोश के काम आ रहा है।
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"महंगाई बहुत बढ़ गई है"
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"ज़माना बहुत ख़राब आ गया है"
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"आजकल के लड़के-लड़कियों में शर्म-लिहाज़ नहीं है"
  
किताबों के छपने का सिलसिला व्यवस्थित रुप से कैसे शुरू हुआ इसके बारे में मेरा ही एक पुराना लेख देखें-
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ऊपर लिखे संवाद हमारी फ़िल्मों में ही सदाबहार रहे हों ऐसा नहीं है। हमारे समाज में चारों ओर यही बातें रोज़ाना चलती रहती हैं। ये तीन महावाक्य वे हैं जो हमारे समाज में किसी को भी ज़िम्मेदार या परिपक्व होने का प्रमाणपत्र देते हैं। जब तक लड़के- लड़की बड़े हो कर इन तीनों मंत्रों को अक्सर दोहराना शुरू नहीं करते तब तक उन्हें 'बच्चा' और 'ग़ैरज़िम्मेदार' माना जाता है।
  
1455 में इस दिन गुटिनबर्ग की पहली किताब छपकर दुनिया के सामने आयी थी, जो सचमुच ही इधर उधर जा सकती थी। लोग उसे देख सकते थे, पढ़ सकते थे और उसके पन्ने पलट सकते थे। इस किताब को 'गुटिनबर्ग बाइबिल' कहा गया। सब जानते हैं गुटिनबर्ग ने 'छपाई का आविष्कार' किया था। ऐसा नहीं है कि छ्पाई पहले नहीं होती थी, होती थी लेकिन किताब के रूप में शुरुआत सबसे पहले गुटिनबर्ग ने की और गुटिनबर्ग का नाम इस 'सहस्त्राब्दी के महानतम लोगों की सूची में पहला' है। इस तरह की कोई सर्वमान्य सूची तो कभी नहीं बनी लेकिन फिर भी प्रतिशत के हिसाब से अधिकतम लोग इसी सूची को मानते हैं। इस सूची में गुटिनबर्ग को 'मैन ऑफ़ द मिलेनियम' या 'सहस्त्राब्दी पुरुष' माना गया है। हम सब बहुत आभारी हैं गुटिनबर्ग के कि उसने यह विलक्षण खोज की... 'छापाख़ाना'। दु:ख की बात ये है कि गुटिनबर्ग का जीवन अभावों में गुज़रा उसके सहयोगी ने ही पूरा पैसा कमाया।
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दो हज़ार पाँच सौ साल पहले प्लॅटो ने एथेंस की अव्यवस्था और प्रजातंत्र पर कटाक्ष किया है- "सभी ओर प्रजातंत्र का ज़ोर है, बेटा पिता का कहना नहीं मानता; पत्नी पति का कहना नहीं मानती सड़कों पर गधों के झुंड घूमते रहते हैं जैसे कि ऊपर ही चढ़े चले आयेंगे। ज़माना कितना ख़राब आ गया है।" कमाल है ढाई हज़ार साल पहले भी यही समस्या ?
  
पहली प्रिंटिंग प्रेस शुरू हुई और गुटिनबर्ग के कारण दुनिया के सामने किताबें आ पाईं। किताबें आने से पहले लेखन का कुछ ना कुछ काम चलता रहता था, जो हाथों से लिखा जाता था, कभी भुर्जपत्रों पर लिखा गया, तो कभी पत्थर पर महीन छैनी-हथौड़े से उकेरा गया। दुनिया में लेखन सम्बंधी अनेक प्रयोग होते रहे। 'बोली' को लिखने के लिए लिपि और वर्तनी की आवश्यकता हुई और इस तरह 'भाषा' बन गई। भाषा और लिपि अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह की बनीं। भारत में भी व्याकरण और लिपि का कार्य चल रहा था जो सम्भवत: 500 ईसा पूर्व में पाणिनी द्वारा किया गया माना जाता है। यह समय गौतम बुद्ध के आसपास का ही रहा होगा और सिकंदर के पंजाब पर हमले से पहले का।
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'देविकारानी' भारतीय हिन्दी सिनेमा में अपने ज़माने की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री ही नहीं थी बल्कि बेहद प्रभावशाली भी थीं। अनेक बड़े बड़े अभिनेताओं को हिंदी सिनेमा में लाने का श्रेय उन्हीं को जाता है जिनमें से एक नाम हमारे दादा मुनि यानि अशोक कुमार भी हैं। 'अछूत कन्या' हिंदी सिनेमा की शरूआती फ़िल्मों में एक उत्कृष्ट कृति मानी गयी है। इस फ़िल्म में अशोक कुमार और देविका रानी नायक नायिका थे। देविका रानी ने 1933 में बनी फ़िल्म 'कर्म' में पूरे 4 मिनट लम्बा चुंबन दृश्य दिया। इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि दृश्य में उनके साथ उनके पति हिमांशु राय थे। इसकी आलोचना होना स्वाभाविक ही था, किंतु भारत सरकार ने उन्हें पद्म सम्मान, पद्मश्री और सिने जगत के सर्वोच्च सम्मान 'दादा साहेब फाल्के सम्मान' से राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया।
  
इतिहासकारों के साथ-साथ हम भी यह मानते हैं कि विश्व के एक हिस्से, देश, कुल, झुंड, या क़बीले में क्या हो रहा था, वह सही रूप से जानने के लिए उस समय पृथ्वी के दूसरे हिस्सों में क्या घट रहा था? यह जानना बहुत ज़रूरी है। पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा भी है कि अगर हम किसी एक देश का इतिहास जानना चाहें तो यह जानना बहुत ज़रूरी है कि उस कालक्रम में दूसरे देशों में क्या घट रहा था, अगर हम यह नहीं जानेंगे तो अपने देश का या जिस देश का इतिहास हम जानना चाहते हैं, सही रूप से नहीं जान पायेंगे। भगवतशरण उपाध्याय जी और दामोदर धर्मानंद कोसंबी जी के दृष्टिकोण से भी विश्व की सभी संस्कृतियाँ प्रारम्भ से ही एक दूसरे से बहुत गहरे में मिली-जुली हैं और कोई एक अलग प्रकार का, एक अलग क्षेत्र में, कोई विकास हो पाना सम्भव नहीं है।
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1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में मंच पर जूते फेंके गये जिसमें फ़िरोज़शाह मेहता और सुरेंद्रनाथ बैनर्जी जैसे वरिष्ठ नेता घायल हुए और यह घटना बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक, मोतीलाल नेहरू और सम्भवत: लाला लाजपत राय की उपस्थिति में हुई।
  
'इजिप्ट' यानी मिस्र में बिल्कुल ही दूसरे तरीक़े का कार्य चल रहा था। मिस्री फ़राउन (राजा), मंत्री, धर्माधिकारी या प्रमुख वैद्य के पास एक व्यक्ति बैठा रहता था और वह मुख्य बातों को बड़े सलीक़े से सहेजता था। मिस्र में लेखन 'पेपिरस' पर होने लगा था। पेपिरस पौधे से बनाया गया एक प्रकार का काग़ज़ होता था जो मिस्र के दलदली इलाक़ों में पाया जाता था। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि संस्कृत में काग़ज़ के लिए कोई शब्द नहीं है, हाँ पालि में अवश्य 'कागद' शब्द मिलता है। कालांतर में अंग्रेज़ी में प्रयुक्त होने वाला शब्द 'पेपर' पेपिरस या यूनानी शब्द 'पिप्युरस' से ही बना। मिस्र की भाषा को 'हायरोग्लिफ़िक' कहा गया है जिसका अर्थ 'पवित्र' (हायरो) लेखन (ग्लिफ़िक) है।
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महाभारत काल में युधिष्ठिर अपने भाईयों समेत अपनी पत्नी द्रौपदी को भी जुए में हार गया और द्रौपदी को भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने ही द्रौपदी को निवस्त्र करने का घटनाक्रम चला।
  
इसमें भी एक अजीब रोचक संयोग है कि जिस समय मिस्र में पिरामिड जैसी आश्चर्यजनक इमारत बनी, वहाँ लिपि की वर्णमाला अति दरिद्र थी। 3 हज़ार वर्षों में 24 अक्षरों की वर्णमाला में केवल 'व्यंजन' ही थे 'स्वर' एक भी नहीं। बिना स्वरों के केवल व्यंजन लिख कर ही लोगों के सम्बंध में लिखा जाता था। उसे वो कैसे बाद में पढ़ते थे और किस तरीक़े से उसका उच्चारण होता था, यह बात रहस्य ही बनी रही। सीधे संक्षिप्त रूप में कहें तो 'वर्तनी' लापता थी और सरल करें तो 'मात्राएँ' नहीं थीं। स्वर न होने के कारण शब्द को किस तरीक़े से बोला जाएगा यह जटिल और अस्पष्ट था। स्वरों के लिए अलग से प्रावधान थे, जो बेहद अवैज्ञानिक थे, जबकि भारत में पाणिनी रचित 'अष्टाध्यायी' का व्याकरण अपना पूर्ण परिष्कृत रूप ले चुका था। वर्तनी की इस कमी के चलते मिस्री लिपि को पढ़ना ठीक उसी तरह मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था जैसे कि अमिताभ बच्चन की 'डॉन' फ़िल्म में 'डॉन' को पकड़ना लेकिन बाद में ये लिपि पढ़ ली गई। 'रॉसेटा अभिलेख' और फ़्रांसीसी विद्वान 'शाँपोल्यों' के कारण यह कार्य सफल हो गया।
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1632 में भारत का सम्राट शाहजहाँ ताजमहल बनवाने के लिए चीन, तिब्बत, श्रीलंका, अरब देशों को पैसा भेजता रहा क्योंकि वहाँ पाये जाने वाले ख़ूबसूरत पत्थरों से ताजमहल को सजाया जाना ज़रूरी समझा गया। जिस समय ताजमहल का निर्माण हो रहा था उस समय बंगाल में भीषण दुर्भिक्ष (अकाल) लाखों भारतीयों की बलि ले रहा था। एक रुपया भी अकालग्रस्त क्षेत्र को भेजे जाने का प्रमाण शाहजहाँ के काल में नहीं मिलता।
  
मिस्र में राजवंशों की शुरुआत आज से 5 हज़ार वर्ष पहले ही हो गयी थी। मशहूर फ़राउन रॅमसी ( ये वही रॅमसी या रामासेस है जो मूसा के समय में था) का नाम पढ़ने में भी यही कठिनाई सामने आयी। कॉप्टिक भाषा (मिस्री ईसाइयों की भाषा) में इसका अर्थ है- रे या रा (सूर्य) का म-स (बेटा) अर्थात सूर्य का पुत्र। सोचने वाली बात ये है कि भगवान 'राम' का नाम भी इसी प्रकार का है और वे भी सूर्य वंशी ही हैं। अगर ये महज़ एक इत्तफ़ाक़ है तो बेहद दिलचस्प इत्तफ़ाक़ है। नाम कोई भी रहा हो रेमसी, इमहोतेप या टॉलेमी; स्वरों के बिना उन्हें सही पढ़ना बहुत कठिन था। मशहूर रानी क्लिओपात्रा के नाम में भी दिक़्क़त आयी उसे 'क ल प त र' ही पढ़ा जाता रहा जब तक कि स्वरों की गुत्थी नहीं सुलझी। 'क्लिओपात्रा' कोई नाम नहीं बल्कि रानी की उपाधि थी जिस क्लिओपात्रा को हम-आप जानते हैं वह सातवीं क्लिओपात्रा थी। उस समय मिस्र के राजाओं की उपाधि 'टॉलेमी' हुआ करती थी। उस समय भारत में भी उपाधियाँ चल रही थीं जिन्हें व्यक्ति समझ लिया जाता है जैसे व्यास, नारद, वशिष्ठ आदि।
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इसी तरह के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनसे निश्चित ही यह नहीं लगता है पुराना ज़माना किसी भी संदर्भ में आज से श्रेष्ठ रहा होगा।
  
© आदित्य चौधरी
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ज़रा सोचिए कि जिस पल हम कहते हैं कि अब तो ज़माना ख़राब आ गया तो सहसा हम इस ज़माने के कटे होने की बात ही कह रहे होते हैं और ख़ुद को इस मौजूदा वक़्त से तालमेल न बैठा पाने वाला व्यक्ति घोषित कर रहे होते हैं। यह पूरी तरह नकारात्मक सोच है। निश्चित रूप से यह सोच नई पीढ़ी को हतोत्साहित करने वाली सोच है। हमको नई पीढ़ी को यह कहकर डराना नहीं चाहिए कि जिस 'समय' में वे जी रहे हैं वह पिछले गुज़रे हुए समय से बेकार है बल्कि उनको तो यह बताया जाना चाहिए कि यह समय अब तक के सभी समयों में सबसे अच्छा समय है क्योंकि ये वास्तव में ही सर्वश्रेष्ठ समय है।
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असल में हमारा समाज आदिकाल से ही निरंतर विकासक्रम में है और यह निश्चित ही पूर्ण रूप से सकारात्मक सोच का नतीजा है न कि विध्वंसक सोच का। विकसित समाज में अनेक 'संस्थाओं' ने निरंतर विकास किया है जैसे कि 'विवाह संस्था'। विवाह संस्था आज जितने परिपक्व रूप में है उतनी पहले कभी नहीं थी। गुज़रे समय में अनेक बंधनों के चलते स्त्री ने विवाह को अपने लिए हर हाल में एक घाटे का सौदा ही माना, यहाँ तक कि पति के लिए चिता में सती भी होना पड़ा, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। पढ़े-लिखे और काम-काजी पति-पत्नी गृहस्थ जीवन में लगभग प्रत्येक कोण पर पति-पत्नी समान अधिकारों का आनंद उठाने लगे हैं।
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हम अक्सर अच्छे-बुरे ज़माने को प्रमाण-पत्र देने वाले मठाधीश बनकर अनेक हास्यास्पद उपक्रम और पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यवहार करने लगते हैं। जिससे नई पीढ़ी हमें 'आउट डेटेड' घोषित कर देती है और हम एक ऐसी दवाई बन जाते हैं जिसकी 'एक्सपाइरी डेट' भी निकल चुकी हो।
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ये तीन हानिकारक वाक्य- "महंगाई बहुत बढ़ गई है", "ज़माना बहुत ख़राब आ गया है", "आजकल के लड़के-लड़कियों में शर्म-लिहाज़ नहीं है" असल में पूरी तरह से नकारात्मक दृष्टिकोण वाले हैं और 'विकासवादी' सोच के विपरीत हैं। मैंने 'प्रगतिवादी' के स्थान पर 'विकासवादी' शब्द का प्रयोग किया है, जिसका कारण मेरा 'प्रगति' की अपेक्षा 'विकास' में अधिक विश्वास करना है। 'प्रगति' किसी भी दिशा में हो सकती है लेकिन क्रमिक-विकास सामाजिक-व्यवस्था के सुव्यवस्थित सम्पोषण के लिए ही होता है। प्रगति एक इकाई है तो विकास एक संस्था और वैसे भी विकास, प्रगति की तरह अचानक नहीं होता और क्रमिक-विकास निश्चित रूप से 'प्रगति' से अधिक प्रभावकारी और सुव्यवस्थित प्रजातांत्रिक व्यवस्था का सबसे सहज अंग है।
 
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| 23 अप्रैल, 2016
 
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| 15 जून, 2015
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बहुत कम लोग जानते हैं कि अपने जीवन की वास्तविक स्थिति और अपनी क्षमताओं का वास्तविक ज्ञान होना एक प्रतिभा है।
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मेरे एक लेख का अंश-
यह सभी व्यक्तियों में नहीं होती।
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अधिकतर व्यक्ति काल्पनिक दुनिया में जीते हैं।
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--"आप मोबाइल पर ही बात करते रहेंगे या मेरी भी बात सुनेंगे ?"
इस सब में वे एक नक़ली दुनिया भी बना लेते हैं।
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--"सॉरी मॅम! आप बताइये कैसा 'पति' चाहिए आपको ?"
ऐसे लोग स्वभाव से स्वार्थी भी हो सकते हैं और स्वयं को श्रेष्ठ समझते हैं तो दूसरों को साधारण।
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--"देखिए नया बजट आने वाला है हर चीज़ की क़ीमत बढ़ेगी। बजट से पहले ही मुझे पति लेना है। आपके पास कौन-कौन से प्लान और पॅकेज हैं ?"
अपनी बुद्धि, क्षमता और प्रतिभा के संबंध में अधिकतर लोग भ्रम में जीते हैं।
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--"मॅम! अगर आप अपना बजट बता दें तो मुझे थोड़ी आसानी हो जाएगी, आपका बजट क्या है ? मैं उसी तरह के पति आपको बताऊँगा"
अपनी बुद्धि के संबंध में सही जानकारी होना एक बहुत ही कठिन बात है।
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--"बजट तो ज़्यादा नहीं है... देखिए पहले मेरी प्रॉब्लम समझ लीजिए... मेरा जॉब कुछ ऐसा है कि मुझे बार-बार एक से दूसरी जगह शिफ़्ट होना पड़ता है। इधर से उधर भारी-भारी सामान ले जाना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। कई बार शहर भी बदलना पड़ता है। जब ट्रक में सामान जाता है तो साथ में मैं नहीं जा सकती। अब और भी बहुत से काम हैं जैसे- बल्ब बदलना, सीलिंग फ़ॅन साफ़ करना, बिजली का बिल... बहुत से काम होते हैं यू नो? एक पति रहेगा तो ये सारे काम भी आसान हो जाएंगे।"
यह योग्यता अर्जित की जा सकती है या नहीं, कहना कठिन है।
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--"यस आइ नो मॅम! इसके अलावा भी बहुत काम हैं जैसे- कपड़े धोना-बर्तन धोना, बाज़ार से सामान लाना"
सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे व्यक्ति अति बुद्धिमान भी हो सकते हैं लेकिन ‘वास्तविकता के ज्ञान’ के अभाव में अपने जीवन को सामान्य मनुष्य की तरह नहीं जी पाते। अपने द्वारा की गई भूलों के प्रति वे न तो सचेत रहते हैं और ही उनके प्रायश्चित के संबंध में तत्पर। दूसरों की सफलता भी उन्हें बहुत साधारण लगती है। वे सोचते हैं कि यदि उन्होंने भी प्रयास किया होता तो वे भी सफल हो सकते थे। ऐसे लोग स्वयं को विशेष और विशिष्ट भी माने रहते हैं। जैसे कि पूरे विश्व में ईश्वर ने केवल उन्हें ही विलक्षण बनाया हो।
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--"तो क्या झाड़ू-पोछा भी करेगा ?"
हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम अधिक से अधिक वास्तविकता के क़रीब रहें। इस प्रतिभा को हम अर्जित तो नहीं कर सकते लेकिन विवेक और विनम्रता के अभ्यास से इसके आस-पास अवश्य हो सकते हैं। यहाँ एक बात ग़ौर करने की है कि विनम्रता ‘वास्तविक’ हो न कि ओढ़ी हुई।
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--"बिल्कुल करेगा क्यों नहीं करेगा। आप पैसा ख़र्च कर रही हैं! बस उसे प्यार से रखिए, ढंग से फ़ीड कीजिए एक ट्रेनर लगा दीजिए फिर देखिए एक पति क्या-क्या कर सकता है।"
यदि वास्तविक विनम्रता का अभ्यास करना हो तो अपनों से छोटों, कमज़ोरों और ज़रूरतमंदों के प्रति करें।
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--"तो फिर कम बजट में कोई अच्छा-सा पति बताइये।"
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--"मॅम! 'इकॉनमी पॅकेज' के पति भी बहुत अच्छे होते हैं लेकिन इकॉनमी पति को अपग्रेड करने के लिए हमारे पास कोई अपडेट प्लान नहीं है और ना ही आफ़्टर सेल सर्विस है। इकॉनोमी पति अपग्रेड नहीं हो सकता। आप थोड़ा-सा बजट बढ़ा के डीलक्स प्लान ले सकती हैं और डीलक्स प्लान में तो तमाम कॅटेगरी हैं जैसे दबंग, बॉडीगार्ड, मास्टर ब्लास्टर, माही वग़ैरा-वग़ैरा... सब एक से एक सॉलिड और ड्यूरेबल"
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--"डॉन भी है क्या ?"
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--"सॉरी मॅम 'डॉन कॅटेगरी' तो गवर्नमेन्ट ने बॅन की हुई है"
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--"नहीं-नहीं मैं तो वैसे ही पूछ रही थी... अच्छा ये बताइए कि वो जो उधर... उस हॉल में कई आदमी बैठे हैं वो कौन हैं ?"
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--"ओ नो मॅम! उनमें से कोई आदमी नहीं है सब के सब पति हैं... उनको छोड़िए... सब एक्सचेंज ऑफ़र में आए हैं और ऑक्शन में जाएँगे। बाइ द वे आपको तो एक्सचेंज ऑफ़र में इनट्रेस्ट नहीं है ? पुराने को भी एडजस्ट किया जा सकता है"
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--"एक्सचेन्ज में मेरा कोई इन्टरॅस्ट नहीं है और 'डीलक्स पति' थोड़े महंगे लग रहे हैं 'इकॉनमी' में क्या वॅराइटी है ?"
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--इकॉनमी में तो देवदास, लाल बादशाह, साजन, बालम, सैंया, मेरे महबूब ..."
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--"नहीं-नहीं ये तो नाम से ही बोर लग रहे हैं... मुझे तो डीलक्स पति ही दे दीजिए"
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दहेज़ की कुप्रथा ख़त्म नहीं हुई तो यही हाल होना है दूल्हे राजाओं का... ख़ैर ये 'मॅम' तो बजट आने से पहले ही अ‍पना 'डीलक्स पति' ले कर चली गईं।
 
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| 22 मार्च, 2016
 
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| 15 जून, 2015
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उम्र के बढ़ने के साथ, जिज्ञासाओं के प्रति उदासीनता होना ही जीवित रहते हुए भी मर जाने के समान है।
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यदि आप…
आप जितने अधिक जिज्ञासु हैं, उतने ही अधिक जीवन से भरे हुए हैं अर्थात जीवंत हैं।
+
 
जिसके पास नये-नये प्रश्न नहीं हैं वह कैसे साबित करेगा कि वह जीवित है।
+
ग़ुस्से-नाराज़गी में
छोटे बच्चों में अपार जिझासा होती है, असंख्य प्रश्न होते हैं।
+
रूठने-मनाने में
इसलिए बच्चे जीवन से भरे होते हैं।
+
ज़िद और हैरान करने में
जिझासा का मर जाना, मनुष्य के मर जाने जैसा ही है।  
+
मिलने में
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बिछड़ने में
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डाँटने में
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याद रखने में
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याद आने में
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भूल जाने में
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भुला न पाने में
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छीन लेने में
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त्याग देने में
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उलाहने में
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झुंझलाहट में
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परेशान होने में
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परेशान करने में
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आदि-आदि में छुपा प्यार नहीं देख पाते तो आप प्यार नहीं करते।
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क्योंकि एक प्यार ही तो है जो न जाने किस रूप में आपके दर पर दस्तक दे रहा होता है और आप उसे कभी पहचान पाते हैं और कभी नहीं भी…
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ईश्वर के साथ भी मामला कुछ ऐसा ही है।
 
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| 19 मार्च, 2016
 
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जिस समय हम किसी मुद्दे पर बहस कर रहे होते हैं तो सामने वाले की बात को ‘जितना’ ग़लत साबित करने की कोशिश कर रहे होते हैं उतनी ग़लत उसकी बात होती नहीं है।
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बनावटी जीवन जीते-जीते, यही बनावट ही वास्तविकता लगने लगती है। इससे उबरना बहुत मुश्किल होता है।
इसी तरह हम अपनी बात को जितना सही साबित करने की कोशिश कर रहे होते हैं वह उतनी सही भी नहीं होती।
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इन बहसों में हमारे उत्तेजित हो जाने का कारण भी अक्सर यही होता है।
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तनाव मुक्ति के बहुत से साधन हैं
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ज़िन्दगी और मौत को समझने के प्रयास में लगे रहने का मतलब है कि आप इसके लिए बहुत अधिक गंभीर हैं। इस गंभीरता में समय बहुत बर्बाद होता है और हासिल कुछ नहीं होता। यदि इस गंभीरता को अपने कार्यों (कर्म) की ओर मोड़ दिया जाय तो ज़िन्दगी के मायने समझ में आने लगते हैं।
लेकिन एक बहुत ही चमत्कारिक है
+
आप जिससे नफ़रत करते हैं उसे क्षमा कर दें
+
उसके प्रति भी करुणा का भाव मन में ले आएँ
+
तुरंत मन हलका हो जाता है
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हाँ एक बात का ध्यान रखें कि यह आप अपने लिए कर रहे हैं
+
उस व्यक्ति से कोई उम्मीद न रखें
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सफल होने का तरीक़ा कोई जाने न जाने लेकिन
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इम्तिहान देना, फ़ेल होने की पहली शर्त है।
अपनी असफलता का रहस्य सबको पता होता है
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इसे समझना, सफलता का पहला पाठ है।
और इसी छिपा होता है सफलता का रहस्य
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समझ कर फिर इम्तिहान देना ही अनुभवी होना है।
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इस अनुभव से लाभ उठा लेना ही सफलता का रहस्य है।
 
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ईश्वर की पसंद का बनें या समाज की पसंद का ? यह प्रश्न जीवन भर आपको असमंजस में डाले रखता है। समाज की पसंद का बनने की प्रक्रिया में आप ईश्वर की पसंद को अनदेखा कर देते हैं।
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ये पढ़ने में कुछ अजीब सा लग सकता है और मन में यह सवाल आ सकता है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि आप समाज की पसंद का व्यक्ति बनने में ईश्वर की पसंद को भुला दें?
  
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ईश्वर ने ज़ात-पात नहीं बनाए लेकिन एक समाज विशेष के डर से आप जातिगत भेदभाव करते हैं।
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इसी तरह लोग किसी न किसी धर्म विशेष की धार्मिक प्रक्रिया को मानने में भी आपका मन या तो समाज के भय से प्रभावित रहता है या फिर अपने संस्कारों के अनुसरण से।
  
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पिछले दिनों तीन फ़िल्में आईं ‘ओ माई गॉड’, ‘पी. के’ और ‘धर्मसंकट’। इन फ़िल्मों में यह बताने का भरसक प्रयास किया गया कि धर्म, मज़हब या संप्रदाय कोई भी हो… ईश्वर तो एक है और वह कोई ‘चीज़’ नहीं है जिसे हम प्राप्त कर सकते हैं बल्कि ईश्वर की पसंद के रास्ते पर चलना ही ईश्वर के निकट हो जाना है।
  
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इन फ़िल्मों को प्रशंसा भी मिली और तीखी आलोचना भी, किंतु इतना अवश्य निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कोई भी ऐसा व्यक्ति, जो किसी धर्म विशेष का कट्टर समर्थक न हो, इन फ़िल्मों के लिए एक सहज नज़रिया ही रखेगा।
  
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क्या हम यह नहीं जानते कि मंदिर में अपने नाम का पत्थर लगवाने से ईश्वर को प्रसन्न करने का कोई रिश्ता नहीं है। यह मात्र सामाजिक प्रतिष्ठा की स्पर्धा में किया गया एक सामान्य कार्य है।
  
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मेरा कहना मात्र इतना है कि समाज की पसंद के तो बहुत बन लिए आप… अब आइए ईश्वर की पसंद के भी बनें। किसी धर्म के प्रति कट्टर होने की बजाए कट्टर धार्मिक बन जाइए। यहाँ ज़रा समझ लें कि कट्टर धार्मिकता और धर्म के प्रति कट्टरता में फ़र्क़ क्या है!
  
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किसी धर्म के लिए कट्टर होने का अर्थ है कि आप एक धर्म के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध हो गये और दूसरे धर्मों के लिए आपने सहज ही एक घृणा उत्पन्न कर ली। कट्टर धार्मिक होना बिल्कुल अलग बात है। धार्मिक होने का अर्थ है कि आपमें करुणा और ममत्व भरपूर है, धार्मिक होने का अर्थ है कि आपमें सहिष्णुता और प्रेम भरपूर है।
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सच्चा धार्मिक वह है जो न्याय का पक्ष लेता है, समानता के लिए प्रयासरत रहता है, इंसानियत का पक्षधर है और परम सत्यपथ गामी है।
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| 6 जून, 2015
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13:54, 25 अक्टूबर 2016 का अवतरण

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ऋग्वेद में कहा है:
न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवा: (4.33.11)
देवता उसी के सखा बनते हैं जो परिश्रम करता है

Aditya-Chaudhary-Facebook-Updates-3.jpg
28 जून, 2015

अभी-अभी यूँही दिमाग़ में कोंधा..

मुक़ाबिल उनसे हूँ, आदत है जिनको जीत जाने की
आज ख़्वाइश है उनसे हाथ, दो-दो आज़माने की

27 जून, 2015

बहुत दिनों की पीड़ा थी आज मुखर...

एक गुमनाम किसान गजेन्द्र द्वारा, सरेआम फांसी लगा लेने पर...

हर शख़्स मुझे बिन सुने आगे जो बढ़ गया
तो दर्द दिखाने को मैं फांसी पे चढ़ गया

महलों के राज़ खोल दूँ शायद में इस तर्हा
इस वास्ते ये ख़ून मेरे सर पे चढ़ गया

कांधों पे जिसे लाद के कुर्सी पे बिठाया
वो ही मेरे कांधे पे पैर रख के चढ़ गया

किससे कहें, कैसे कहें, सुनता है यहाँ कौन
कुछ भाव ज़माने का ऐसा अबके चढ़ गया

जब बिक रहा हो झूठ हर इक दर पे सुब्ह शाम
‘आदित्य’ ये बुख़ार कैसा तुझपे चढ़ गया

Aditya-Chaudhary-Facebook-Updates-4.jpg
16 जून, 2015

मेरे ही एक लेख से...

मैंने जब भी कोई पुरानी फ़िल्म देखी चाहे वो 25 साल पुरानी हो या 50 से 70 साल पुरानी भी हो हरेक घरेलू-सामाजिक फ़िल्म के कुछ संवाद बंधे-बंधाए होते थे।

"महंगाई बहुत बढ़ गई है"
"ज़माना बहुत ख़राब आ गया है"
"आजकल के लड़के-लड़कियों में शर्म-लिहाज़ नहीं है"

ऊपर लिखे संवाद हमारी फ़िल्मों में ही सदाबहार रहे हों ऐसा नहीं है। हमारे समाज में चारों ओर यही बातें रोज़ाना चलती रहती हैं। ये तीन महावाक्य वे हैं जो हमारे समाज में किसी को भी ज़िम्मेदार या परिपक्व होने का प्रमाणपत्र देते हैं। जब तक लड़के- लड़की बड़े हो कर इन तीनों मंत्रों को अक्सर दोहराना शुरू नहीं करते तब तक उन्हें 'बच्चा' और 'ग़ैरज़िम्मेदार' माना जाता है।

दो हज़ार पाँच सौ साल पहले प्लॅटो ने एथेंस की अव्यवस्था और प्रजातंत्र पर कटाक्ष किया है- "सभी ओर प्रजातंत्र का ज़ोर है, बेटा पिता का कहना नहीं मानता; पत्नी पति का कहना नहीं मानती सड़कों पर गधों के झुंड घूमते रहते हैं जैसे कि ऊपर ही चढ़े चले आयेंगे। ज़माना कितना ख़राब आ गया है।" कमाल है ढाई हज़ार साल पहले भी यही समस्या ?

'देविकारानी' भारतीय हिन्दी सिनेमा में अपने ज़माने की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री ही नहीं थी बल्कि बेहद प्रभावशाली भी थीं। अनेक बड़े बड़े अभिनेताओं को हिंदी सिनेमा में लाने का श्रेय उन्हीं को जाता है जिनमें से एक नाम हमारे दादा मुनि यानि अशोक कुमार भी हैं। 'अछूत कन्या' हिंदी सिनेमा की शरूआती फ़िल्मों में एक उत्कृष्ट कृति मानी गयी है। इस फ़िल्म में अशोक कुमार और देविका रानी नायक नायिका थे। देविका रानी ने 1933 में बनी फ़िल्म 'कर्म' में पूरे 4 मिनट लम्बा चुंबन दृश्य दिया। इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि दृश्य में उनके साथ उनके पति हिमांशु राय थे। इसकी आलोचना होना स्वाभाविक ही था, किंतु भारत सरकार ने उन्हें पद्म सम्मान, पद्मश्री और सिने जगत के सर्वोच्च सम्मान 'दादा साहेब फाल्के सम्मान' से राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया।

1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में मंच पर जूते फेंके गये जिसमें फ़िरोज़शाह मेहता और सुरेंद्रनाथ बैनर्जी जैसे वरिष्ठ नेता घायल हुए और यह घटना बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक, मोतीलाल नेहरू और सम्भवत: लाला लाजपत राय की उपस्थिति में हुई।

महाभारत काल में युधिष्ठिर अपने भाईयों समेत अपनी पत्नी द्रौपदी को भी जुए में हार गया और द्रौपदी को भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने ही द्रौपदी को निवस्त्र करने का घटनाक्रम चला।

1632 में भारत का सम्राट शाहजहाँ ताजमहल बनवाने के लिए चीन, तिब्बत, श्रीलंका, अरब देशों को पैसा भेजता रहा क्योंकि वहाँ पाये जाने वाले ख़ूबसूरत पत्थरों से ताजमहल को सजाया जाना ज़रूरी समझा गया। जिस समय ताजमहल का निर्माण हो रहा था उस समय बंगाल में भीषण दुर्भिक्ष (अकाल) लाखों भारतीयों की बलि ले रहा था। एक रुपया भी अकालग्रस्त क्षेत्र को भेजे जाने का प्रमाण शाहजहाँ के काल में नहीं मिलता।

इसी तरह के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनसे निश्चित ही यह नहीं लगता है पुराना ज़माना किसी भी संदर्भ में आज से श्रेष्ठ रहा होगा।

ज़रा सोचिए कि जिस पल हम कहते हैं कि अब तो ज़माना ख़राब आ गया तो सहसा हम इस ज़माने के कटे होने की बात ही कह रहे होते हैं और ख़ुद को इस मौजूदा वक़्त से तालमेल न बैठा पाने वाला व्यक्ति घोषित कर रहे होते हैं। यह पूरी तरह नकारात्मक सोच है। निश्चित रूप से यह सोच नई पीढ़ी को हतोत्साहित करने वाली सोच है। हमको नई पीढ़ी को यह कहकर डराना नहीं चाहिए कि जिस 'समय' में वे जी रहे हैं वह पिछले गुज़रे हुए समय से बेकार है बल्कि उनको तो यह बताया जाना चाहिए कि यह समय अब तक के सभी समयों में सबसे अच्छा समय है क्योंकि ये वास्तव में ही सर्वश्रेष्ठ समय है।

असल में हमारा समाज आदिकाल से ही निरंतर विकासक्रम में है और यह निश्चित ही पूर्ण रूप से सकारात्मक सोच का नतीजा है न कि विध्वंसक सोच का। विकसित समाज में अनेक 'संस्थाओं' ने निरंतर विकास किया है जैसे कि 'विवाह संस्था'। विवाह संस्था आज जितने परिपक्व रूप में है उतनी पहले कभी नहीं थी। गुज़रे समय में अनेक बंधनों के चलते स्त्री ने विवाह को अपने लिए हर हाल में एक घाटे का सौदा ही माना, यहाँ तक कि पति के लिए चिता में सती भी होना पड़ा, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। पढ़े-लिखे और काम-काजी पति-पत्नी गृहस्थ जीवन में लगभग प्रत्येक कोण पर पति-पत्नी समान अधिकारों का आनंद उठाने लगे हैं।

हम अक्सर अच्छे-बुरे ज़माने को प्रमाण-पत्र देने वाले मठाधीश बनकर अनेक हास्यास्पद उपक्रम और पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यवहार करने लगते हैं। जिससे नई पीढ़ी हमें 'आउट डेटेड' घोषित कर देती है और हम एक ऐसी दवाई बन जाते हैं जिसकी 'एक्सपाइरी डेट' भी निकल चुकी हो।

ये तीन हानिकारक वाक्य- "महंगाई बहुत बढ़ गई है", "ज़माना बहुत ख़राब आ गया है", "आजकल के लड़के-लड़कियों में शर्म-लिहाज़ नहीं है" असल में पूरी तरह से नकारात्मक दृष्टिकोण वाले हैं और 'विकासवादी' सोच के विपरीत हैं। मैंने 'प्रगतिवादी' के स्थान पर 'विकासवादी' शब्द का प्रयोग किया है, जिसका कारण मेरा 'प्रगति' की अपेक्षा 'विकास' में अधिक विश्वास करना है। 'प्रगति' किसी भी दिशा में हो सकती है लेकिन क्रमिक-विकास सामाजिक-व्यवस्था के सुव्यवस्थित सम्पोषण के लिए ही होता है। प्रगति एक इकाई है तो विकास एक संस्था और वैसे भी विकास, प्रगति की तरह अचानक नहीं होता और क्रमिक-विकास निश्चित रूप से 'प्रगति' से अधिक प्रभावकारी और सुव्यवस्थित प्रजातांत्रिक व्यवस्था का सबसे सहज अंग है।

15 जून, 2015

मेरे एक लेख का अंश-

--"आप मोबाइल पर ही बात करते रहेंगे या मेरी भी बात सुनेंगे ?"
--"सॉरी मॅम! आप बताइये कैसा 'पति' चाहिए आपको ?"
--"देखिए नया बजट आने वाला है हर चीज़ की क़ीमत बढ़ेगी। बजट से पहले ही मुझे पति लेना है। आपके पास कौन-कौन से प्लान और पॅकेज हैं ?"
--"मॅम! अगर आप अपना बजट बता दें तो मुझे थोड़ी आसानी हो जाएगी, आपका बजट क्या है ? मैं उसी तरह के पति आपको बताऊँगा"
--"बजट तो ज़्यादा नहीं है... देखिए पहले मेरी प्रॉब्लम समझ लीजिए... मेरा जॉब कुछ ऐसा है कि मुझे बार-बार एक से दूसरी जगह शिफ़्ट होना पड़ता है। इधर से उधर भारी-भारी सामान ले जाना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। कई बार शहर भी बदलना पड़ता है। जब ट्रक में सामान जाता है तो साथ में मैं नहीं जा सकती। अब और भी बहुत से काम हैं जैसे- बल्ब बदलना, सीलिंग फ़ॅन साफ़ करना, बिजली का बिल... बहुत से काम होते हैं यू नो? एक पति रहेगा तो ये सारे काम भी आसान हो जाएंगे।"
--"यस आइ नो मॅम! इसके अलावा भी बहुत काम हैं जैसे- कपड़े धोना-बर्तन धोना, बाज़ार से सामान लाना"
--"तो क्या झाड़ू-पोछा भी करेगा ?"
--"बिल्कुल करेगा क्यों नहीं करेगा। आप पैसा ख़र्च कर रही हैं! बस उसे प्यार से रखिए, ढंग से फ़ीड कीजिए एक ट्रेनर लगा दीजिए फिर देखिए एक पति क्या-क्या कर सकता है।"
--"तो फिर कम बजट में कोई अच्छा-सा पति बताइये।"
--"मॅम! 'इकॉनमी पॅकेज' के पति भी बहुत अच्छे होते हैं लेकिन इकॉनमी पति को अपग्रेड करने के लिए हमारे पास कोई अपडेट प्लान नहीं है और ना ही आफ़्टर सेल सर्विस है। इकॉनोमी पति अपग्रेड नहीं हो सकता। आप थोड़ा-सा बजट बढ़ा के डीलक्स प्लान ले सकती हैं और डीलक्स प्लान में तो तमाम कॅटेगरी हैं जैसे दबंग, बॉडीगार्ड, मास्टर ब्लास्टर, माही वग़ैरा-वग़ैरा... सब एक से एक सॉलिड और ड्यूरेबल"
--"डॉन भी है क्या ?"
--"सॉरी मॅम 'डॉन कॅटेगरी' तो गवर्नमेन्ट ने बॅन की हुई है"
--"नहीं-नहीं मैं तो वैसे ही पूछ रही थी... अच्छा ये बताइए कि वो जो उधर... उस हॉल में कई आदमी बैठे हैं वो कौन हैं ?"
--"ओ नो मॅम! उनमें से कोई आदमी नहीं है सब के सब पति हैं... उनको छोड़िए... सब एक्सचेंज ऑफ़र में आए हैं और ऑक्शन में जाएँगे। बाइ द वे आपको तो एक्सचेंज ऑफ़र में इनट्रेस्ट नहीं है ? पुराने को भी एडजस्ट किया जा सकता है"
--"एक्सचेन्ज में मेरा कोई इन्टरॅस्ट नहीं है और 'डीलक्स पति' थोड़े महंगे लग रहे हैं 'इकॉनमी' में क्या वॅराइटी है ?"
--इकॉनमी में तो देवदास, लाल बादशाह, साजन, बालम, सैंया, मेरे महबूब ..."
--"नहीं-नहीं ये तो नाम से ही बोर लग रहे हैं... मुझे तो डीलक्स पति ही दे दीजिए"
दहेज़ की कुप्रथा ख़त्म नहीं हुई तो यही हाल होना है दूल्हे राजाओं का... ख़ैर ये 'मॅम' तो बजट आने से पहले ही अ‍पना 'डीलक्स पति' ले कर चली गईं।

15 जून, 2015

यदि आप…

ग़ुस्से-नाराज़गी में
रूठने-मनाने में
ज़िद और हैरान करने में
मिलने में
बिछड़ने में
डाँटने में
याद रखने में
याद आने में
भूल जाने में
भुला न पाने में
छीन लेने में
त्याग देने में
उलाहने में
झुंझलाहट में
परेशान होने में
परेशान करने में
आदि-आदि में छुपा प्यार नहीं देख पाते तो आप प्यार नहीं करते।

क्योंकि एक प्यार ही तो है जो न जाने किस रूप में आपके दर पर दस्तक दे रहा होता है और आप उसे कभी पहचान पाते हैं और कभी नहीं भी…
ईश्वर के साथ भी मामला कुछ ऐसा ही है।

8 जून, 2015

बनावटी जीवन जीते-जीते, यही बनावट ही वास्तविकता लगने लगती है। इससे उबरना बहुत मुश्किल होता है।

7 जून, 2015

ज़िन्दगी और मौत को समझने के प्रयास में लगे रहने का मतलब है कि आप इसके लिए बहुत अधिक गंभीर हैं। इस गंभीरता में समय बहुत बर्बाद होता है और हासिल कुछ नहीं होता। यदि इस गंभीरता को अपने कार्यों (कर्म) की ओर मोड़ दिया जाय तो ज़िन्दगी के मायने समझ में आने लगते हैं।

7 जून, 2015

इम्तिहान देना, फ़ेल होने की पहली शर्त है।
इसे समझना, सफलता का पहला पाठ है।
समझ कर फिर इम्तिहान देना ही अनुभवी होना है।
इस अनुभव से लाभ उठा लेना ही सफलता का रहस्य है।

7 जून, 2015

ईश्वर की पसंद का बनें या समाज की पसंद का ? यह प्रश्न जीवन भर आपको असमंजस में डाले रखता है। समाज की पसंद का बनने की प्रक्रिया में आप ईश्वर की पसंद को अनदेखा कर देते हैं।
ये पढ़ने में कुछ अजीब सा लग सकता है और मन में यह सवाल आ सकता है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि आप समाज की पसंद का व्यक्ति बनने में ईश्वर की पसंद को भुला दें?

ईश्वर ने ज़ात-पात नहीं बनाए लेकिन एक समाज विशेष के डर से आप जातिगत भेदभाव करते हैं।
इसी तरह लोग किसी न किसी धर्म विशेष की धार्मिक प्रक्रिया को मानने में भी आपका मन या तो समाज के भय से प्रभावित रहता है या फिर अपने संस्कारों के अनुसरण से।

पिछले दिनों तीन फ़िल्में आईं ‘ओ माई गॉड’, ‘पी. के’ और ‘धर्मसंकट’। इन फ़िल्मों में यह बताने का भरसक प्रयास किया गया कि धर्म, मज़हब या संप्रदाय कोई भी हो… ईश्वर तो एक है और वह कोई ‘चीज़’ नहीं है जिसे हम प्राप्त कर सकते हैं बल्कि ईश्वर की पसंद के रास्ते पर चलना ही ईश्वर के निकट हो जाना है।

इन फ़िल्मों को प्रशंसा भी मिली और तीखी आलोचना भी, किंतु इतना अवश्य निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कोई भी ऐसा व्यक्ति, जो किसी धर्म विशेष का कट्टर समर्थक न हो, इन फ़िल्मों के लिए एक सहज नज़रिया ही रखेगा।

क्या हम यह नहीं जानते कि मंदिर में अपने नाम का पत्थर लगवाने से ईश्वर को प्रसन्न करने का कोई रिश्ता नहीं है। यह मात्र सामाजिक प्रतिष्ठा की स्पर्धा में किया गया एक सामान्य कार्य है।

मेरा कहना मात्र इतना है कि समाज की पसंद के तो बहुत बन लिए आप… अब आइए ईश्वर की पसंद के भी बनें। किसी धर्म के प्रति कट्टर होने की बजाए कट्टर धार्मिक बन जाइए। यहाँ ज़रा समझ लें कि कट्टर धार्मिकता और धर्म के प्रति कट्टरता में फ़र्क़ क्या है!

किसी धर्म के लिए कट्टर होने का अर्थ है कि आप एक धर्म के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध हो गये और दूसरे धर्मों के लिए आपने सहज ही एक घृणा उत्पन्न कर ली। कट्टर धार्मिक होना बिल्कुल अलग बात है। धार्मिक होने का अर्थ है कि आपमें करुणा और ममत्व भरपूर है, धार्मिक होने का अर्थ है कि आपमें सहिष्णुता और प्रेम भरपूर है।
सच्चा धार्मिक वह है जो न्याय का पक्ष लेता है, समानता के लिए प्रयासरत रहता है, इंसानियत का पक्षधर है और परम सत्यपथ गामी है।

6 जून, 2015


शब्दार्थ

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