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00:08, 26 अक्टूबर 2016 का अवतरण

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पोस्ट संबंधित चित्र दिनांक

विकसित होने के क्रम में हमने बहुत कुछ पाया पर कुछ खोया भी...
ज्ञानी बढ़ रहे हैं, विचारक कम हो रहे हैं
व्यापारी बढ़ रहे हैं, उद्यमी कम हो रहे हैं
कलाविज्ञ बढ़ रहे हैं, कलाकार कम हो रहे हैं
परिवार बढ़ रहे हैं, समाज कम हो रहे हैं
विज्ञ बढ़ रहे हैं, वैज्ञानिक कम हो रहे हैं
सम्प्रदायी बढ़ रहे हैं, धार्मिक कम हो रहे हैं
मनुष्य बढ़ रहे हैं, इंसान कम हो रहे हैं

Viksit-kram-facebook-post.jpg
29 अक्तूबर, 2013

महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आंइस्टाइन ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही थी-
"आगे आने वाले समय में, प्रत्येक विषय विज्ञान हो जाएगा"
याने इसे यूँ कहें कि प्रत्येक विषय के प्रश्न का उत्तर, विज्ञान ही देगा और प्रत्येक विषय के अध्ययन का माध्यम भी विज्ञान ही होगा । हम किसी भी विषय का अध्ययन करेंगे तो विज्ञान तक जा पहुँचेंगे ।
बात तो बहुत सही कही उन्होंने लेकिन हुआ कुछ और ही...

आज के समय में प्रत्येक विषय 'व्यापार' हो गया है

Albert einstein-facebook-post.jpg
26 अक्तूबर, 2013

आग का उपयोग सीखने के बाद मनुष्य ने, नर-नारी के बीच, कार्य की प्रकृति के अनुसार बँटवारा किया। नर ने भोजन की तलाश को चुना तो नारी ने भोजन पकाना, संग्रहीत करना और निवास को सुविधाजनक बनाना। नारी के, नौ महीने बच्चे को गर्भ में रखने के दायित्व के चलते, यह बँटवारा एक सामान्य नियम बनने लगा।
  इस बँटवारे से नर-नारी में कार्य और दायित्व की आवश्यकता के अनुसार शारीरिक भेद भी विकसित होने लगे। नर, बलिष्ठ तो नारी सुन्दर और कोमल होने लगी। इससे पहले अन्य प्रजातियों की तरह ही नर-नारी भी समान रूप से सक्रिय होने के कारण शारीरिक रूप से भी लगभग समान शक्तिशाली ही थे और भोजन की तलाश में व्यस्त रहते थे। बँटवारे से दोनों के पास अतिरिक्त समय भी होने लगा। जिसका उपयोग नर-नारी ने अपनी आवश्यकता और रुचि के अनुसार किया।
बच्चों को बोलना सिखाने के कारण नारी की भाषा सीखने-सिखाने क्षमता नर से अधिक हो गयी। नर के अधिक घूमने फिरने के कारण वह गणित, दर्शन और विज्ञान में उलझ गया।
यह एक मुख्य कारण था जिसके कारण मनुष्य अन्य प्रजातियों के मुक़ाबले में बेहतर और सभ्य हो सका जबकि अन्य प्रजातियाँ आज भी नर-मादा में कार्य का बँटवारा करने में अक्षम हैं और विकास क्रम की धारा से वंचित।

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26 अक्तूबर, 2013

सुख की तलाश न होती तो कोई ईश्वर की तलाश भी न करता
सुख की तलाश में ही ईश्वर की स्तुति की जाती है यदि सभी सुखी होते तो भला ईश्वर को कौन याद करता,
लगता है कि इसीलिए ईश्वर ने सबको सुखी नहीं बनाया कि कम से कम उसे याद तो करें।

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24 अक्तूबर, 2013

समय-समय पर समाज सुधारक, विभिन्न धर्मों के कुछ ऐसे संस्कारों का विरोध करते रहे हैं, जो संस्कार, नारी और समाज के प्रति किसी भी अर्थ में उचित नहीं थे जैसे कि सती प्रथा। ये विरोध, समाज में बहुत से अच्छे परिवर्तनों का कारण भी रहे हैं।
मैंने अक्सर यह अनुभव किया है कि आधुनिकता, नारी मुक्ति, नर-नारी समान अधिकार, मानवता वाद आदि जैसे मसलों के चलते कुछ अति उत्साही जन, विभिन्न धर्मों से संबंधित कुछ संस्कारों का विरोध करते रहते हैं जिसकी कोई आवश्यकता शायद नहीं है। ऐसा ही एक संस्कार करवा चौथ है।
अनेक अन्य धर्मों की तरह ही हिन्दू धर्म में भी बहुत से संस्कार काफ़ी हद तक वैज्ञानिक और समाज हितैषी हैं।
कुछ समय पहले तक भारत में सम्मिलित परिवारों का प्रचलन था (वैसे कुछ आज-कल भी है)। किसी भी परिवार में घर की बहू को विशेष महत्व देने के लिए ही यह करवा चौथ का व्रत प्रचलन में आया। कम से कम वर्ष में एक दिन पूरे परिवार का ध्यान बहू पर ही होता है, कि उसने भोजन किया या नहीं या पानी पिया या नहीं कि उसके पास ज़ेवर-नये कपड़े हैं या नहीं...
आज कल तो नये जोड़ो में पति-पत्नी दोनों ही व्रत रखने लगे हैं। यदि गृहस्थ आश्रम के महत्व को हम मानते हैं और विवाह को आवश्यक, तो इससे जुड़े उत्सव को मनाने में बुराई क्या है। हाँ इतना ज़रूर करें कि अपनी समझ से इन त्योहारों में कुछ अच्छे फेर-बदल कर लें जैसे कि हमारे घर में 'अहोई अष्टमी' का व्रत बेटे के लिए ही नहीं बल्कि बेटी के लिए भी रखा जाता है। पता नहीं कि आप क्या सोचते हैं लेकिन मुझे तो करवा चौथ प्रेम का त्योहार लगता है, नारी ग़ुलामी का तो कहीं से नहीं...
...ये बंधन तो प्यार का बंधन है...

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23 अक्तूबर, 2013

महान दार्शनिक श्री जे. कृष्णमूर्ति से किसी ने पूछा "मैं अपने माता पिता को अहसास दिलाना चाहता हूँ कि
मैं उनका सम्मान करता हूँ, मुझे क्या करना चाहिए ?"
कृष्णमूर्ति ने उत्तर दिया "सिर्फ़ इतना करें कि आप अपने माता पिता का अपमान करना बंद कर दें,
वे हमेशा अपने आप को सम्मानित ही महसूस करेंगे।"

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20 अक्तूबर, 2013

जब प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक, कुमार गंधर्व जी से कहा
गया कि शास्त्रीय संगीत के सुनने वाले धीरे-धीरे कम
होते जा रहे हैं लेकिन आपके गायन की लगन में कोई
कमी नहीं आ रही, ऐसा कैसे ? तो उन्होंने उत्तर दिया
कि मैं तो अंतिम बचे हुए एक श्रोता के लिए भी ऐसे ही
गाऊँगा क्योंकि एक अंतिम श्रोता तो अवश्य ही रहेगा
और वही मेरा सबसे पहला श्रोता भी है, मेरा ईश्वर

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19 अक्तूबर, 2013

जिसका आदर हम दिल से करते हैं , गुरु केवल वही होता है । जिसका हम आदर नहीं करते , वह गुरु कैसे हो सकता है ? इसलिए जगह-जगह यह लिखना कि-
"गुरु का आदर करना चाहिए"
कितना अर्थहीन है !
ठीक इसी तरह ‘ममतामयी’ मां अथवा ‘आज्ञाकारी’ पुत्र आदि विशेषण युक्त शब्दों का भी कोई अर्थ नहीं है। यदि मां होगी तो ममतामयी तो होगी ही अन्यथा कुमाता होगी, पुत्र तो वही है जो आज्ञाकारी हो, अन्यथा तो कुपुत्र ही होगा।

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17 अक्तूबर, 2013

यदि आप ‘कुछ अंतराल’ के लिए ख़ुद को व्यस्त बताते हैं, तब तो ठीक है...
यदि आप, अपनी अनवरत व्यस्तता के संबंध में एक व्यापक घोषणा करते रहते हैं
कि आप व्यस्त हैं तो आज के समय में आप उपहास के ही पात्र हैं क्योंकि आज के समय में तो सभी व्यस्त हैं। व्यस्तता तो अब अप्रासंगिक हो गई है।

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6 अक्तूबर, 2013

कुछ दिन पहले गाँधी जी के लेख को लेकर कुछ मुद्दे उठे थे। आज प्रसंग वश मैं इस संबंध में कुछ बातें बता रहा हूँ।...
कुछ लोग गाँधी जी को ही प्रत्येक नकारात्मक घटना के लिए दोषी ठहरा रहे हैं। मैं कुछ बातें बिन्दुवार लिख रहा हूँ।
/).गाँधी जी देश के बँटवारे के ख़िलाफ़ थे। उन्होंने तो यहाँ तक कहा था कि चाहे मेरे शरीर के दो टुकड़े हो जाएँ पर देश के दो टुकड़े नहीं होंगे। इसके लिए उन्होंने चाहा कि जिन्हा को ही प्रधानमंत्री बना दिया जाय। इसके लिए नेहरू जी ने अपना विरोध, पटेल जी के मुख से कहलवाया। पटेल जी ने गाँधी जी को राज़ी किया। यदि गाँधी जी अपनी बात पर अड़े रहते तब भी कांग्रेसी नेता उनकी एक न चलने देते। बहुत कम ही पाठक इस तथ्य को जानते होंगे कि भारत के धार्मिक आधार पर बँटवारे के मुद्दे पर जिन्हा के साथ सारवकर जी भी सहमत थे।
/). जब जिन्हा एक वर्ष में ही चल बसे तब नेहरू जी ने कहा कि मुझे क्या पता था कि ऐसा होगा वरना मैं तो जिन्हा को ही प्रधानमंत्री बनने देता।
/). गाँधी जी की अहिंसा में कहीं कोई कायरता जैसी बात नहीं थी। कश्मीर के लिए उन्होंने कहा कि कश्मीर को बचाने के लिए भारत का बच्चा बच्चा क़ुर्बान हो जाए तब भी मुझे दु:ख नहीं होगा। जबकि पटेल जी ने कहा कश्मीर को पाकिस्तान को देदो। (दोनों ही अपनी-अपनी जगह ठीक थे)।
/). नेताजी सुभाष कांग्रेस में पट्टाभि सीता रमैया (गाँधी जी के उम्मीदवार) को हराकर अध्यक्ष बने। उनकी और गाँधी जी के वैचारिक और नीतिगत मतभेद मूल रूप से थे। गाँधी जी ने सीताभिरमैया की हार को अपनी हार बताया। नेताजी ने इस्तीफ़ा दे दिया। अपना राजनैतिक अस्तित्व बचाने के लिए तो भगवान राम ने सीता को वनवास दे दिया वे सीता के साथ वन नहीं गए जबकि सीता महल के आराम को छोड़कर राम के साथ वनवास गई थी।
/). काँग्रेस में, जिन्हा को बढ़ाने का काम भी गाँधी जी ने किया क्यों कि सर सैयद, अंग्रेज़ों के समर्थन में थे। अंंग्रेज़ों के समर्थक तो गोखले जी भी थे जो कि गाँधी जी के गुरु भी थे। गोपाल कृष्ण गोखले अँग्रेज़ो को विश्व की सर्वश्रेष्ठ जाति मानते थे किन्तु गाँधी जी ने विश्व मंच पर अंग्रेज़ों की इस छवि को धूल-धूसरित कर दिया।
/). किसी भी देश के किसी भी हिंसक आंदोलन को वैश्विक पटल पर समर्थन मिलना मुश्किल होता है। यह बात गाँधी जी अच्छी तरह समझ गए थे। इसीलिए अहिंसक आंदोलन चलाए गये। जैसे कि थॉरो से प्रेरित सविनय अवज्ञा। 1857 में क्राँति की जो असफल कोशिश हुई उसका प्रभाव गाँधी जी पर और सभी तत्कालीन विचारकों पर गहरा था। हमारे हिंसक आंदोलन इतनी ताक़त नहीं रखते थे कि क्रांति हो जाती।
/). चौरी-चौरा काण्ड सन 1922 में हुआ। चौरी-चौरा का समय इंग्लॅन्ड में जॉर्ज पंचम के शासन का समय था, उस समय इंग्लॅन्ड में लिबरल पार्टी का प्रधानमंत्री डेविड लॉयड जॉर्ज था और वॉयसरॉय था लॉर्ड रीडिंग (रफ़स आइज़क)। प्रधानमंत्री जॉर्ज भारत और कनाडा को आज़ाद करने के पक्ष में था लेकिन जॉर्ज पंचम तो पक्के तौर पर भारत में अंग्रेज़ी शासन की नींव को जमा रहा था। इसीलिए राजधानी कोलकाता से दिल्ली कर दी गई थी। वॉयसरॉय कोई प्रभावशाली व्यक्ति नहीं था और प्रधानमंत्री को भी इंग्लॅन्ड में विरोधों का सामना करना पड़ रहा था। यह क्रांति के लिए सही समय नहीं था।
/). द्वितीय विश्व युद्ध को कन्जरवेटिव पार्टी के प्रधानमंत्री चर्चिल ने जीत तो लिया लेकिन चुनाव हार गया। इसके बाद लेबर पार्टी का एटिली प्रधानमंत्री बना। यह भारत के लिए बहुत अच्छा रहा। एटिली भारत की आज़ादी के पक्ष में था। यह सही समय था।
/). सन् बयालीस में जब अंग्रज़ों के ख़िलाफ़ गाँधी जी ने भारत छोड़ो और करो या मरो आंदोलन शुरू किया तो हिन्दू महासभा, मार्क्सवादी पार्टी और जिन्हा की मुस्लिम लीग ने इसका विरोध किया। जिन्हा ने अंग्रेज़ों से समझौता करके फ़ौज में बड़े पैमाने पर मुस्लिमों की भर्ती कराई। भारत छोड़ो आंदोलन के विरोध के कई अलग-अलग कारण थे जिनमें से कोई भी देश हित में नहीं था। जैसे कि छोटी बड़ी रियासतों के राजा अपने राज्य के जाने के भय से इस आंदोलन का विरोध किया।
/). आज जब हम 70-80 साल बाद, स्वतंत्रता आंदोलन को सामान्य रूप से देखते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि उस समय सभी नेता केवल देश हित में लगे थे लेकिन जब बहुत गहराई से जानने का प्रयास करते हैं तो ये जानकर बड़ा सदमा लगता है कि भारत की आज़ादी से अधिक रुचि इस बात में थी कि आज़ाद भारत के शासन में हमारा हिस्सा क्या होगा। जैसे आज़ादी न हुई कोई लूटी हुई जायदाद हो गयी।

2 अक्तूबर, 2013


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