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; दिनांक- 29 दिसम्बर, 2016
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; दिनांक- 5 फरवरी, 2017
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संस्कार, मान्यताएँ और आस्था एक बार बन जाती हैं तो उनका टूटना बहुत मुश्किल होता है और कभी-कभी तो नामुमकिन। ये हमारी आदत भी बन जाती हैं और जब भी हम इनसे दूर हटने की कोशिश करते हैं, हमको अटपटा सा महसूस होता है।
|| चलो जाने दो ||
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पैसे की माया निराली है। चार दोस्तों में कोई एक ऐसा होता है जिसे हमेशा साथ इसलिए रखना पड़ता है कि वो ख़र्च करता है। ऐसे दोस्त बड़े झिलाऊ भी हो सकते हैं और इनका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर अक्सर बहुत कम होता है। पैसे का सीधा रिश्ता झेलने से भी है। कोई अपने पति को इसलिए झेल रही है कि वो पैसे वाला है तो कोई अपनी बीवी को ठीक इसी वजह से झेलता है कि बीवी ही उसका ख़र्च चलाती है। कोई पैसे वाले जीजा से त्रस्त है तो कोई पैसे वाले साले से।
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पैसा आजकल चर्चा में है और आजकल मुझे ज़बर्दस्ती, रूप विधा का विशेषज्ञ बनाया जा रहा है। रूप विज्ञान, रूप कला और रूप विधा… ये नाम सुन्दरता से संबंधित नहीं हैं बल्कि मुद्रा से संबंधित हैं। प्राचीन काल में मुद्रा संबंधी जानकारी रखने वाले और मुद्राओं को ढालने की प्रक्रिया जानने वाले को रूप विज्ञानी कहा जाता था। इसीलिए आजकल मुद्रा को रुपया कहा जाता है।
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मैं भारतकोश के माध्यम से सारी दुनिया को कंप्यूटर का आधुनिक तकनीकी ज्ञान देने के लिए जाना जाता हूँ, विशेषकर हिन्दी कंप्यूटिंग और विभिन्न सॉफ़्टवेयर, स्मार्ट फ़ोन और सीएमएस ऑपरेटिंग के लिए लेकिन पिछले कुछ दिनों मैं ख़ुद को एक छात्र जैसा महसूस कर रहा हूँ। इस क्रम में सबसे पहले तो मुझे दो हज़ार के नोट में प्रधानमंत्री का भाषण सुनाया गया फिर उसके असली-नक़ली होने की ट्रेनिंग दी गई जो कई लोगों ने अलग-अलग तरह से दी। इसके बाद पुराने नोटों से नयों की तुलना की गई। नेत्रहीनों के लिए क्या सुविधा पुराने-नए नोटों में थी यह सब बताया गया।
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जो भी मिलने आया उसने रुपये से संबंधी विभिन्न प्रकार के रहस्य बताए। मुझे पता ही नहीं था कि जिन लोगों को मैं साधारण व्यक्ति समझता था वे असल में नोटों के रिसर्च स्कॉलर निकले। धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि मैं भारतकोश से नहीं बल्कि भारतीय रिज़र्व बैंक से संबंधित हूँ।
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अब बारी थी, मेरे बैंक जाने की। मैंने किसी भी बैंक और विशेषकर स्टेट बैंक के दर्शन किए, जो पिछले बीसियों साल से नहीं किए थे। चैक काटकर दिया तो मेरे हस्ताक्षर नहीं मिले, मिलते भी कैसे पिछले हस्ताक्षर तक़रीबन पैंतीस साल पहले किए थे जब मेरा नाम आदित्य कुमार था, आदित्य चौधरी नहीं। मुझे बैंक में चैक काटने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी थी। एटीएम से ही काम चल जाता था। ख़ैर… बैंक पहुँच कर मैनेजर से मिला और अपनी समस्या बताई।
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मेरे बग़ल में बैठे सज्जन ने मेरा नाम सुनकर मेरी तरफ़ घूर कर देखा और मुझसे पूछा “आदित्य चौधरी ?… मतलब वोई आदित्य चौधरी ?”
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मैंने कुछ सोचा और कहा “हाँ जी वोई आदित्य चौधरी!” मैं उनका आशय समझ गया था।
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इसके बाद उन सज्जन ने मेरे पिताश्री की बहुत तारीफ़ की और कुछ मेरी भी। फिर दोबारा मेरी तरफ़ देखकर कहा
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“लेकिन आपको हुआ क्या ? आपकी दाढ़ी तो काली थी ?”
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“मैं बालों को रंगता नहीं हूँ। उम्र के साथ सफ़ेद तो होनी थी…”
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ये सुनकर वे सज्जन कुछ उदास हो गए।
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अब तक मैनेजर साहब काफ़ी प्रभावित हो चुके थे, वे ख़ुद ही उठकर मेरी समस्या के हल में लग गए। जब समस्या हल हो गई तो मैंने चाहा कि कुछ पैसा नए हस्ताक्षरों से निकाल कर देखूँ लेकिन बैंक में पैसा ही नहीं था।
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इसके बाद खेल शुरु हुआ ऑनलाइन पेमेन्ट का। मैंने पेटीएम डाउनलोड कर लिया। ऑनलाइन बैंकिंक शुरू कर दी (पहले यह ज़म्मेदारी मेरी श्रीमती जी की थी)। जल्दी ही पेटीएम को इस्तेमाल करने का मौक़ा भी आ गया। असल में पिछले दिनों में चेन्नई गया था। चेन्नई से लौटने की फ़्लाइट दो-तीन घंटे लेट थी। हवाई अड्डे से गुड़गांवा में एक कॉलोनी तक जाने के लिए ‘उबर टैक्सी’ बुलाई। ड्राइवर सामान रखवाने के लिए कार से नहीं उतरा। मैंने ही पिछली सीट पर सामान रखा और टैक्सी में बैठा, रात के बारह बज रहे थे। टैक्सी वाले से नाम पूछा तो उसने अपना नाम बताया ‘बलवान सिंह’ उसकी क़द-काठी देखकर मैंने पूछा
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“जाट हो ?”
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“हाँ”
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“हरयाणा के?”
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“हाँ।”
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“मैं भी जाट हूँ।” मैंने बात बढ़ाने के लिए कहा, लेकिन उस पर कोई असर नहीं हुआ।
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उसके स्मार्टफ़ोन के गूगल मॅप पर मेरे गंतव्य स्थान का रूट दिख रहा था। जब वह कॉलोनी आ गई तो वह बंदा कॉलोनी के अंदर जाने को तैयार नहीं। बोला कि मैं तो वहीं ले जाऊँगा जहाँ गूगल मॅप दिखा रहा है। मैंने कहा कि मुझे कॉलोनी के अंदर जाना है। बड़ी मुश्किल से वह राज़ी हुआ। गाड़ी वापस मोड़ने में उसने पीछे से एक दूसरी कार से टकरा भी दी। ये सोचकर कि वो कार वाला इससे लड़ेगा इसने अपनी कार तेज़ी से भगाई। ये वन वे था।
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मेरे बचपन से ही हमारे घर पर प्रत्येक शनिवार को एक पंडित जी आते थे। जिन्हें कटोरी में सरसों का तेल एक लोहे की कील और सिक्का डालकर दिया जाता था। उस कटोरी में हम सब अपना चेहरा भी देखा करते थे। पंडित जी बहुत भले और सरल स्वभाव के थे। “चौधरी साहब के आनंद हों बहना, पौत्र ख़ुश रहें” पंडित जी की यह आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूंजती है। उनका क़द ऊँचा था (कुछ बचपन की वजह से लगता भी था) छरहरा बदन था और गांधी टोपी पहनते थे।
  
जैसे-तैसे मैं वहाँ पहुँचा जहाँ मुझे जाना था। पेटीएम से उसका भुगतान हो गया। मुझे पता भी नहीं चला। मैंने सोचा कि भुगतान नहीं हुआ है तो उसे नक़द पैसे भी दे दिए। मैंने कहा-
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जब नया संवतसर आता था तो वे संवत सुनाने आते थे। संवत सुनाने में वे बताते थे उस वर्ष में कितनी बारिश होगी कितनी ठंड पड़ेगी और कितनी लू चलेंगी। ज़ोरदार बात ये है कि पिताजी भी संवत सुना करते थे। “ इस बार संवत माली के घर में है बहना, तो बारिश ज़्यादा होगी।” पंडित जी बताते…। इसके साथ ही वर्ष में कितना धर्म कितना अधर्म और कितना पाप कितना पुण्य है यह भी बताते थे। वे कहते “इस संवत में 14 बिस्से पाप और 6 बिस्से पुण्य है। याने पाप ज़्यादा और पुण्य कम है।” इसका अर्थ समझने के लिए पहले उस ज़माने की गणना को समझना होगा। बिस्सा (शुद्ध रूप ‘बिस्वा’) का अर्थ है एक बीघा खेत का बीसवाँ भाग याने कि ‘सौ प्रतिशत’ कहने के लिए कहा जाता था “बात तो पूरे 20 बिस्से सही है” इसी का दूसरा रूप होता था “बात तो पूरे सोलह आने सही है।” उस समय एक रुपये में सोलह आने होते थे। कॅरेट को भी प्रतिशत के लिए इस्तेमाल किया जाता था और आज भी कहते हैं “बात तो 24 कॅरेट सही है”।
“सामान उतारो!”
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“अजी कोई मतलब ही नहीं है ये तो कम्पनी की टॅक्सी है, मैं क्यों सामान उतारूँ।”
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रात के साढ़े बारह बज रहे थे। मुझे नींद अा रही थी। मैंने अपने आप ही सामान उतारा और चला आया। मज़ेदार बात ये कि ‘उबर’ ने पूछा कि सफ़र कैसा रहा और ड्राइवर कैसा था। पहले तो मैंने सोचा कि शिकायत कर दूँ फिर सोचा चलो जाने दो…
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ये ‘चलो जाने दो’ कोई मामूली ‘चलो जाने दो’ नहीं है बल्कि ये हमारे देश के पिछड़ेपन की एक मुख्य वजह है। हम लोग सरकार, नेता, अधिकारी और अन्य भी बहुतों की ग़लत बात को बड़ी सहनशीलता से झेलते हैं। बिजली,पानी,सड़क,सुरक्षा,स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मसलों पर भी हम चुप रहते हैं। रिश्वत, ग़लत क़ानून, पुलिस ज़्यादती आदि को सहकर भी चुप रहते हैं। कोई भी नेता ज़रा सा सपना दिखाकर हमें बहका लेता है और हम बहक जाते हैं जब उसकी असली मंशा पता चलती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है लेकिन फिर भी हम यही सोचकर चुप हो जाते हैं कि चलो जाने दो...
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पंडित जी को स्वर्गवासी हुए बीसियों साल हो गए। उनके बाद उनका दामाद आने लगा और अब उनका धेवता (बेटी का बेटा) आता है। ये लोग कभी संवत नहीं सुना पाए क्योंकि इन्हें जानकारी ही नहीं है। अब फिर नया संवत आने वाला है, बहुत मन करता है कि कोई आए और संवत सुनाए। असल बात यह है कि मैं बिल्कुल भी यह नहीं मानता कि शनिदेव किसी का भला-बुरा कर सकते हैं लेकिन बचपन के संस्कार अभी तक चले आ रहे हैं और उन्हें निबाहने में आनंद भी आता है।
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; दिनांक- 23 दिसम्बर, 2016
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; दिनांक- 18 जनवरी, 2017
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आज ही लिखी कुछ पंक्तियाँ आपकी सेवा में मित्रो!
“अरे छोटूऽऽऽ! जल्दी से सॉस बनाने का सामान ले आ, सॉस बनानी है…”
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ढाबे का मालिक ने आवाज़ लगाई।
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मैं वहीं खड़ा चाय पी रहा था। मैंने पूछा-
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“सॉस ख़ुद ही बनाते हो ?”
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“और क्या… हम बजार वाली टमाटर की सॉस पर भरोसा नहीं करते… ख़ुद अपनी बनाते हैं बिल्कुल शुद्ध”
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तभी छोटू सॉस बनाने का सामान ले आया। मैंने पूछा-
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“कैसे बनाते हो ?”
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ढाबे के मालिक ने इत्मीनान से बताना शुरू किया और सॉस बनाने का कार्यक्रम शुरू कर दिया।
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“देखो साब ! पहले तो इमली को मसल के बीज अलग कर लो फिर इसमें काशीफल याने कद्दू का उबला गूदा मिला दो। गूदा बिना छिलके वाला होना चाहिए इसलिए छीलकर उबालो… फिर गाय छाप लाल रंग मिला लो और बाद में बूरा और थोड़ी लाल मिर्च, हल्का सा नमक और थोड़ा सिरका… बस हो गई तैयार घर की शुद्ध सॉस याने टमैटो कैचअप।”
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मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, मैंने पूछा-
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“टमाटर नहीं मिलाना है?”
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“अजी टमाटर कौन मिलाता है, बहुत महंगे हैं और सॉस जल्दी ख़राब भी हो जाती है। बड़ी-बड़ी कम्पनी भी तो टमाटर नहीं डालतीं…”
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मैं तो दंग रह गया। ढाबे वाले का ‘कॉन्फ़िडेंस’ देखकर। कितने आत्मविश्वास के साथ वो नक़ली टमॅटो कॅचप बना रहा था। मज़ेदार बात ये है कि मैं दिल्ली जाते वक़्त मैं अक्सर उसी के ढाबे पर रुकता था और उसी सॉस के साथ कटलेट्स खाता था।
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; दिनांक- 22 दिसम्बर, 2016
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वैसे तो आजकल सब नोटबंदी से जुड़ी बातों और कामों में ही व्यस्त हैं लेकिन एक बहुत गंभीर मसला है जिस पर ग़ौर किया जाना चाहिए-
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जितना भी इतिहास को खंगालता हूँ तो अपने होने से अधिक अपने न होने का अहसास अधिक होने लगता है। इतिहास किसी न किसी रूप में मुझसे टकरा ही जाता है कभी कोई किताब, कोई पेन्टिग, कोई फ़ोटो, कोई संगीत या कोई इमारत…। हम कितने अकेले हैं यह सोच ही बड़ी अद्भुत है। हो सकता है यह सोच किसी के लिए डर हो और किसी के लिए रोमांच।
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"क्योंकि ये चुनाव है"
  
जन्म, मृत्यु, सृष्टि आदि बहुत सारे शाश्वत प्रश्न मन में आने लगते हैं। विज्ञान की खोजों के जंगल में खो जाता हूँ तो आश्चर्य से भर जाता हूँ। कभी मन करता है कि कहीं किसी पहाड़ पर चलकर रहा जाय जहाँ आधुनिक सुविधाएँ न के बराबर हों। ख़ूब बूढ़े होकर बिना इलाज के मरा जाय… और भी न जाने क्या-क्या विचार मन को भरमाते हैं… ख़ैर ये तो दुनिया है और इस दुनिया में हमें जीने का मौक़ा मिलने का क्या प्रयोजन है ये तो मुझे नहीं मालूम लेकिन ज़िन्दगी को जीना है और हमेशा सार्थक बनाने की कोशिश करते रहना है।
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वादों के पुल पर
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उम्मीदों के कारवाँ
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ज़िन्दगी की कश्मकश की
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उफनती नदी को
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पार करने की कोशिश
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करते नज़र आएँगे
  
तो आइए इस दुनिया के बारे में बात करें… इस दुनिया में कई दुनिया हैं। जेम्स वॉट से पहले और उसके बाद। पेट्रोलियम से पहले और उसके बाद। बिजली से पहले और उसके बाद। न्यूटन से पहले और उसके बाद। आइन्सटाइन से पहले और उसके बाद। कंप्यूटर से पहले और उसके बाद। इंटरनेट से पहले और उसके बाद। स्मार्ट फ़ोन से पहले और उसके बाद।
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मगर अफ़सोस
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सब दिल का बहलाव है
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क्योंकि ये चुनाव है
  
हम पेट्रोल, बिजली, न्यूटन, आइन्सटाइन, कंप्यूटर, इंटरनेट और स्मार्टफ़ोन की दुनिया में रह रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इसमें भारत का योगदान नहीं है। असल में बहुत सी भारतीय खोजों के बल पर ये नई दुनिया टिकी है। जिसमें प्राचीन काल के पिंगल, पाणिनी, आर्यभट्ट और कणाद के नाम प्रमुख हैं। जिन्होंने अणु, पाई, बाइनरी और खगोलीय खोज कीं और आधुनिक काल के जगदीश चंद्र बसु, सी.वी. रमण, हरगोविन्द खुराना आदि के नाम प्रमुख हैं। बहुत सारी खोजें हुईं और उनके तरह-तरह के नतीजे समाज के सामने आए। एक नतीजा पर्यावरण को ख़तरे के रूप में आया।
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अाँखों की झाइयों से
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कंपती उँगलियों की
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ख़ाली अँजली को ताकते
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उसके भरने की चाह में
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नारों से गुँजाते तंबुओं
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में अपने घर का सपना देख आएँगे
  
पर्यावरण अब कोई ऐसा मुद्दा नहीं रह गया है जिस पर कि बार-बार बहस की जाय। पर्यावरण अब एक ऐसी आपत्कालिक स्थिति है जिससे निपटने के प्रयास युद्धस्तर पर करने की आवश्यकता है। जिस तरह जापान, हिरोशिमा-नागासाकी के बम के बाद की विभीषिका से उबरा। चीन बाढ़ और सूखा की स्थिति से उबरा। उसी तरह भारत को इस प्रदूषण की चुनौती से लड़कर उबरना होगा वरना आज की दुनिया में जो जन्म ले रहा है उसका कल कैसा हो सकता है यह सभी समझदार व्यक्ति अच्छी तरह समझते हैं।
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मगर अफ़सोस
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सब दिल का बहलाव है
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क्योंकि ये चुनाव है
  
प्रदूषण के जगत के महानायक बिजली, पेट्रोलियम, डिटरजेंट और पेस्टीसाइड्स हैं लेकिन इनके बिना विकास संभव नहीं माना जाता। जहाँ तक आधुनिक विचारधारा का संबंध है यही माना जाता है। प्लास्टिक और मिनरल वॉटर की ख़ाली बोतलें और नदियों-तालाबों में घुलता डिटरजेंट और पेस्टीसाइड्स एक ख़ौफ़नाक अजेय दैत्य बनकर सामने खड़ा है। विशेषज्ञ बता रहे हैं कि दिल्ली में रहने वालों की उम्र में पिछले दिनों के प्रदूषण से 3 से 5 साल कम हो गए याने वे अपनी सामान्य उम्र से कम जीएँगे।
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झूठ के लबादों से लदे
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ओढ़े नक़ाब
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दिल फ़रेब वफ़ादारी का
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शोर मचाते क़ाफ़िलों
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से बिखेरते जलवा अपना
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करिश्माई ज़ुबान में
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अपना भाषण सुनाएँगे
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कि भई हम जनता के लिए
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जनता की सरकार बनाएँगे
  
क्या तरीक़ा है इस प्रदूषण से लड़ने का और इसे हराने का ?
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मगर अफ़सोस
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सब दिल का बहलाव है
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क्योंकि ये चुनाव है
  
यह प्रश्न ऐसा है जिसका उत्तर; सरकार, पर्यावरणविद् और सामान्य रूप से समझदार व्यक्ति बख़ूबी जानते हैं। इसके लिए किसी नई खोज की आवश्यकता नहीं है। हमारे चारों ओर फैली प्रकृति के प्रत्येक व्यवहार में पर्यावरण रक्षण के उपाय छिपे हैं। हमको ज़रूरत है तो उन उपायों को समझकर प्रयोग में लाने की और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में उन्हें अपनाने की। इनको अपनाकर हम वायु और जल प्रदूषण को सीमित स्तर तक ला सकते हैं।
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न रिश्वत बदलेगी
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न चौथ
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सरकारी अस्पताल चलेंगे
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बिना डॉक्टर-दवाई
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स्कूल चलेंगे बिना पढ़ाई
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जनता रहेगी चुप और गुमसुम
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कुछ भी बदलेगा नहीं
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सिर्फ़ चेहरे बदलते जाएँगे
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शायद नए चेहरे कुछ तो बदल पाएँगे?
  
तो फिर समस्या क्या है ?
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मगर अफ़सोस
 
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सब दिल का बहलाव है
समस्या है व्यवसाय और व्यवसाइयों के जाल में फ़ंसी सरकारें और अदालतें। औद्योगिक क्रांति के चलते बहुत सी असावधानियाँ हुईं और जिसका मुख्य कारण था कमज़ोर प्रशासन। नियम-क़ानून बने लेकिन लागू कराने वालों की लापरवाही से लागू नहीं किए गए। साधारण से साधारण नियमों को भी अनदेखा किया गया और उद्योग, अनियमत रूप से बढ़ते गए साथ ही प्रदूषण भी। ऐसा नहीं है कि यह केवल भारत में ही हुआ। यह समस्या अनेक देशों की रही है। जिनमें विकासशील देश या तीसरी दुनिया के देश मुख्य हैं। विकासशील देशों में विकास हुआ और हो रहा है, यह तो अच्छी बात है लेकिन इस विकास की क़ीमत, आज अपनी नई पीढ़ी से शुद्ध हवा और शुद्ध पानी, छीनकर चुकानी पड़ रही है।
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क्योंकि ये चुनाव है
 
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निकट भविष्य में हमारा स्वस्थ रह पाना ही सबसे बड़ी चुनौती होगी और हमें इसके लिए तैयार हो जाना चाहिए।
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© आदित्य चौधरी
 
© आदित्य चौधरी
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; दिनांक-  26 नवम्बर, 2016
 
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भारत के प्रमुख उद्योगपति श्री रतन टाटा द्वारा सरकार के नाम पत्र का हिन्दी भावार्थ प्रस्तुत है-
 
 
वर्तमान में, पुराने नोटों के चलन पर रोक लगने के कारण ऐसा कहा जा रहा है की इससे सामान्य जन को बहुत कठिनाई हो रही है, ख़ास तौर से छोटे शहरों-क़स्बों में मेडिकल इमरजेंसी, बड़ी सर्जरी और अस्पतालों में दवाइयां ख़रीदने में। नक़दी की कमी के कारण, ग़रीब जनता को रोज़मर्रा की घर की ज़रूरतों को पूरी करने में भी कठिनाई हो रही है।
 
 
हालांकि सरकार अपनी तरफ से नए करंसी नोटों की कमी पूरी करने की पूरी कोशिश कर रही है किंतु ग़रीब जनता के लिये विशेष राहत के उपाय उपलब्ध कराने चाहिए, जैसे कि राष्ट्रीय आपदा के समय किये जाते हैं। जिससे उनकी रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी हो सकें और छोटे अस्पतालों में आपात्कालीन स्वास्थ्य देखभाल और इलाज हो सके। ऐसे राहत उपाय इस ग़रीब जनता द्वारा ख़ूब सराहे जाएँगे क्योंकि इस से यह भी साबित होगा कि इस महत्वपूर्ण विमुद्रीकरण की संक्रान्ति के समय में सरकार आम आदमी के बारे में भी चिंता करती है और उनकी ज़रूरतों को भूली नहीं है।
 
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; दिनांक- 6 अक्टूबर, 2016
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; दिनांक- 8 जनवरी, 2017
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सुरक्षा और संतुष्टि की स्थिति प्राप्त करने के लिए बहुत ज़्यादा पैसा कमाने की इच्छा हो जाती है लेकिन होता कुछ और ही है।
यूँ तो हम अपनी परम्परा और प्राचीनता की दुहाई देते हैं लेकिन अपने त्योहारों तक के नाम और उच्चारण में लापरवाही बरतते हैं जिससे अर्थ का अनर्थ हो जाता है।
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बहुत सारा पैसा कमाने के बाद असुरक्षा और असंतुष्टि का भाव और ज़्यादा बढ़ जाता है।
 
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मुझे नवरात्र की बधाइयाँ आ रही हैं जिनमें से सभी में लिखा होता है नवरात्रि की शुभकामना। यह अनुचित है। नवरात्रि का अर्थ हुआ नई रात। हमारे नौ देवियों के त्योहार का नाम है नवरात्र जिसका अर्थ है नौ रातें। नवरात्रि लिखने से तो अच्छा है लोकभाषा में नौराते ही लिखें या नौदेवी।
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सही यह है "पावन व्रतोत्सव नवरात्र की शुभकामनाएँ"
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;दिनांक- 4 अक्टूबर, 2016
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; दिनांक- 6 जनवरी, 2017
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क़ामयाबी कोई पंछी नहीं है जिसे पिंजरे में क़ैद करके रख लिया जाय। क़ामयाबी तो उड़ती पतंग है जिसे कटने का डर बना रहता है। कभी ‘ढील देकर’ से तो कभी ‘डोर खींच कर’ से इसे आकाश में थामे रहना पड़ता है। पेच लड़ाना भी हर हाल में आना चाहिए वरना हाथ में सिर्फ़ डोर ही रह जाती है।
भारत-पाकिस्तान की दुश्मनी को लेकर काफ़ी लिखा और बोला जा रहा है। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद पूरे भारत में एक जोश और संतुष्टि का माहौल बना है। इस कार्यवाही के बाद पाकिस्तान लगभग चुप है, जिसका कारण है कि इस सर्जिकल स्ट्राइक को अंतरराष्ट्रीय नियमों और क़ानून के मुताबिक़ हॉट पर्सुइट (Hot pursuit) की मान्यता प्राप्त होना।
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हॉट पर्सुइट याने ‘किसी आधिकारिक सशस्त्र दल (जैसे सेना या पुलिस) द्वारा अपराधियों का अपराध करते ही त्वरित पीछा करना। इस पीछा करने और अपराधियों के ख़िलाफ़ कार्यवाही करने में देश या राज्य की सीमा पार कर जाने को अंतरराष्ट्री सीमा उल्लंघन नहीं माना जाता है। इसमें सामान्य रूप से किसी स्वीकृति या सूचना की भी आवश्यकता नहीं होती और इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त है।
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इस मुद्दे पर कुछ विवाद भी सामने आए हैं। जिनमें से एक मुद्दा है नदियों के पानी का। विश्व भर में जलसंधियों के आधार पर नदियों के जल का बँटवारा होता है। जिसे भंग नहीं किया जा सकता, लेकिन अब ऐसा होना मुमकिन है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्सटाइन ने कहा था कि भविष्य में युद्धों के कारण जल-विवाद ही होंगे। अब यह सामने आने लगा है। नदियों के पानी बंटवारे का विवाद हमारे देश में राज्यों के आपसी विवाद का कारण भी है। जैसे फ़िलहाल में कावेरी का विवाद।
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एक बात हमें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि चीन और पाकिस्तान से चाहे रिश्ते कितने भी मधुर हो जाएँ, नदियों के जल का विवाद होना अवश्यम्-भावी है। ब्रह्मपुत्र के पानी को लेकर इस समय चीन जो कुछ कर रहा है उसकी वजह पाकिस्तान नहीं है। पाकिस्तान पर तो वह बेवजह एहसान दिखा रहा है। ब्रह्मपुत्र के पानी को लेकर तो चीन के इरादे बहुत पहले से ही नेक नहीं हैं।
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माओ का शासन प्रारम्भ होते ही चीन ने नदियों का रास्ता बदलना और नहरों का निर्माण शुरू कर दिया था जिसका कारण था आधे चीन में सूखा और रेगिस्तान साथ ही बाक़ी आधे में बाढ़। चीन में कई वर्ष शिक्षा बन्द करके सबको नदियों का बहाव मोड़ने में लगा दिया गया था।
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इसलिए भारत सरकार को यह अभी से तय करना होगा कि भावी योजनाएँ क्या होंगी। इन विवादों को निपटाने में कुर्सी-मेज़ और पेन-काग़ज़ काम नहीं आएँगे बल्कि सशक्त और आधुनिक तकनीक से लैस सेना काम आएगी। सेना की तनख़्वाह में बढ़ोत्तरी, प्रत्येक नागरिक की अनिवार्य रूप से सैन्य शिक्षा, सैन्य शिक्षा में स्त्रियों की बराबर भागेदारी और प्रत्येक नागरिक में राष्ट्रीय भावना का अनवरत संचार जैसे सुधार ही हमें एक सुरक्षित राष्ट्र का गौरवमयी नागरिक बना सकते हैं।
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दूसरा विवाद है, कुछ एक भारतीय फ़िल्मी अभिनेताओं द्वारा पाकिस्तानी कलाकारों का पक्ष लेना। इसमें पहली बात यह है कि इस तरह के अभिनेता कोई ज़िम्मेदार क़िस्म के इंसान नहीं है। इससे पहले भी इनकी ग़ैरज़िम्मेदाराना हरक़तें सामने आई हैं जिनकी चर्चा करना व्यर्थ है।
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समझना तो आम जनता को है जो कि फ़िल्मी कलाकारों को हीरो समझने लगती है और उन्हें असली ज़िन्दगी में भी बढ़िया इंसान मानने लगती है। तमाम एक्टर ऐसे हैं जो पर्दे पर खलनायक की भूमिका करते हैं लेकिन असल ज़िन्दगी में एक बेहतरीन इंसान हैं, ठीक इसका उल्टा नायक की भूमिका करने वाले के साथ भी हो सकता है। इसलिए जनता को अपने हीरो पर्दे से नहीं बल्कि असल ज़िन्दगी से ही चुनने चाहिए।
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कलाकार भी इंसान ही होता है और उसका भी अपना देश और देशभक्ति होती है। पाकिस्तानी कलाकारों की देशभक्ति उनके पाकिस्तान के लिए है। उनसे भारत के लिए वफ़ादारी की उम्मीद करना फ़ुज़ूल की बात है। पाकिस्तानी कलाकार अपनी कमाई को पाकिस्तान ले जाता है और वहीं टॅक्स देता है, संपत्ति ख़रीदता है और ख़र्चा करता है। पाकिस्तान चाहे आतंकी देश हो या अहिंसावादी उस पाकिस्तानी कलाकार के लिए तो वही उसका देश है।
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अब ज़रा सोचिए कि हम पाकिस्तानी आतंकवाद में उस कलाकार का हिस्सा मानें या नहीं। जब सानिया मिर्ज़ा एक पाकिस्तानी से शादी करती है तो भारतवासी ये उम्मीद करते हैं कि वह अब भी भारत के लिए खेले और भारत को ही अपना देश समझे… तो बताइये कि पाकिस्तानी कलाकार भी तो शुद्ध रूप से पाकिस्तानी ही हुआ या नहीं? इस समय किसी पाकिस्तानी कलाकार की कमाई भारत में कराने से हम स्पष्ट रुप से पाकिस्तान की मदद ही कर रहे हैं।
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ऐसी बात नहीं है कि मुझे पाकिस्तान का कभी भी कुछ भी पसंद नहीं रहा। मेरे भी पसंदीदा शायर कुछ पाकिस्तानी रहे हैं जैसे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और अहमद फ़राज़। ग़ज़ल गायकों में मेंहदी हसन मेरे पसंदीदा हैं लेकिन पाकिस्तान के किसी शायर की ग़ज़ल पसंद करना एक अलग बात है और फ़िल्मी और टीवी कलाकारों को भारत में बिठाकर उसकी करोड़ों-अरबों की कमाई करवाना एक बिल्कुल अलग बात है।
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;दिनांक- 1 अक्टूबर, 2016
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; दिनांक- 3 जनवरी, 2017
[[चित्र:Aditya-Chaudhary-Delhi-Akadami.jpg|right|200px]]
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हिन्दी अकादमी दिल्ली में मेरे व्याख्यान का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है ताकि सनद रहे कि मैं कहीं भी मौजूद होता हूँ तो ब्रज को नहीं भूलता…
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“हिन्दी की इमारत लोकभाषाओं के स्तंभों पर टिकी हुई है। लोकभाषाएँ हिन्दी के स्तम्भ हैं उसकी नींव हैं। सारी दुनिया में से लोकभाषाएँ एक-एक करके समाप्त हो रही हैं। विश्व में 6000 भाषा-बोलियों का रंग-बिरंगा संसार है जिसमें से हर पच्चीसवें दिन एक लोकभाषा सदा के लिए विलुप्त हो जाती है और उसके साथ ही एक संस्कृति, एक विज्ञान, एक कला, एक पद्धति, एक परम्परा और एक शब्दावली भी मर जाती है।
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ज़रूरत हिन्दी अकादमी की नहीं बल्कि लोकभाषाओं की अकादमी की है जैसे ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, मागधी आदि की अकादमी बननी चाहिए क्योंकि जब लोकभाषा का ही संरक्षण नहीं होगा तो हिन्दी में प्रयुक्त होने वाले शब्दों का मूल हम कहाँ खोजेंगे। हमारी समृद्ध हिन्दी एक इतिहास रहित खोखली भाषा बनकर रह जाएगी।”
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शायद आप नहीं जानते होंगे कि ब्रजभाषा अकादमी राजस्थान में तो है पर उत्तर प्रदेश में नहीं…
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;दिनांक- 28 अगस्त, 2016
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ओलंपिक मेडल जीतने के बाद जो करोड़ों रुपए की बरसात खिलाड़ियों पर होती है, वह पैसा अगर उन कोच को दिया जाए जिन्होंने उस खिलाड़ी को बनाया तो ज़्यादा बेहतर नतीजे सामने आ सकते हैं। 10 सिंधु मिलकर एक पुलेला गोपीचंद नहीं बना सकतीं हैं जबकि एक पुलेला गोपीचंद 10 सिंधु बना सकता है...
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;दिनांक- 17 अगस्त, 2016
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किसी व्यक्ति का सही मूल्याँकन उसके जीवन के किसी कालखंड से नहीं बल्कि उसके पूरे जीवनकाल से होता है।
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;दिनांक- 14 अगस्त, 2016
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एक विदेशी पत्रकार ने एक आधुनिक नेता का इंटरव्यू लिया
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पत्रकार: सुनने में आया है कि आपके यहाँ बलात्कार की क्लिप 10 से 15 रुपये में मिलती है। यह तो बहुत शर्मनाक है।
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नेता: बिल्कुल झूठ है सर जी! ये सब अफ़वाह है। ऐसा कुछ नहीं है।
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पत्रकार: तो फिर सच क्या है?
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नेता: सच ये है सर कि क्लिप बिल्कुल मुफ़्त मिल रही है। कोई पैसा नहीं देना पड़ता। आप कहें तो आपको वाट्स एप कर दूँ?
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पत्रकार: जी नहीं मुझे नहीं चाहिए।… ये बताइये कि आपके यहाँ बिजली की बहुत समस्या है? आम आदमी के घरों में आपने अंधेरा कर रखा है?
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नेता: ये भी ग़लत सूचना है। घरों में अंधेरा होने की बात झूठी है। घर-घर में इन्वर्टर हैं। ऍल.ई.डी लाइट हैं, बैटरी वाली। साथ ही हम उनको इन्वर्टर चार्ज करने के लिए हर दो घंटे बाद एक घंटा बिजली देते हैं। हम अफ़ग़ानिस्तान से ज़्यादा बिजली की सप्लाई दे रहे हैं। … सर आख़िर हम नेता भी तो इंसान ही हैं। जनता का दुख-दर्द हम नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा।
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पत्रकार: आपकी पुलिस से जनता डरती है। पुलिस के पास जाने में घबराती है। ऐसा क्यों?
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नेता: डरने का क्या है जी… डरते तो लोग भूत-प्रेत से भी हैं पर भूत-प्रेत कोई डरने की चीज़ हैं। जब भूत-प्रेत होते ही नहीं तो उनसे डरना क्या?
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पत्रकार: तो अाप कहना चाहते हैं कि आपके पास पुलिस है ही नहीं ये बस जनता का भ्रम है जैसे कि भूत-प्रेत?
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नेता: असल में हमारी पॉलिसी बहुत ज़बर्दस्त है सर! हम पुलिस को अपनी सीक्योरिटी में लगाए रखते हैं। जिससे पुलिस जनता के पास पहुँचती ही नहीं है तो जनता डरेगी कैसे? दूसरी बात ये है सर कि जब हमारी पुलिस से चोर, डाकू और बलात्कारी जैसे लोग नहीं डरते जबकि वे भी तो इंसान हैं… इसी समाज का हिस्सा हैं … तो फिर जनता को डरने की क्या ज़रूरत है ?
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पत्रकार: आपके यहाँ सड़कों में गड्ढे हैं। बरसात में सड़कों पर पानी भर जाता है। इसका भी कोई जवाब है आपके पास ?
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नेता: हमारे कर्मचारी, दिन और रात गड्ढे भरने में लगे रहते हैं सर! हमारा देश बहुत बड़ा है। लाखों किलोमीटर सड़कें हैं। देश बड़ा होने से ट्रॅफ़िक भी ज़्यादा है। रोड ऍक्सीडेन्ट कम हों इसलिए हमको गड्ढे भी बना कर रखने पड़ते हैं। गड्ढों की वजह से स्पीड कम रहती है और ऍक्सीडेन्ट कम होते हैं।
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पत्रकार: आप अपने बारे में बताइये कि आप कितने पढ़े-लिखे हैं ?
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नेता: देश सेवा से फ़ुर्सत मिलती तभी तो पढ़ता…
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पत्रकार ने मौन धारण कर लिया और वापस चला गया।
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;दिनांक- 28 जुलाई, 2016
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सुसेवायाम्
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नया साल आ गया अब कुछ नसीहतें देदी जायें… न न न आपको नहीं ख़ुद को ही। मतलब ये कि नए साल में क्या-क्या करना है और क्या-क्या नहीं करना है।
परम पिता श्रीमंत प्रजापति ब्रह्मा जी महाराज
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जैसे कि-
  
सिरी पत्री जोग लिखी मथुरा से ब्रह्मलोक कूँ
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कोई डेढ़ सौ बार सुना सुनाया हाथी-चींटी वाला चुटकुला सुना रहा हो तब भी पूरे चुटकुले को पूरे धैर्य से सुनना है जिससे कि सुनाने वाला ‘हर्ट’ न हो। सुनने के बाद हँसी न भी आए तब भी मुस्कुराना ज़रूर है या फिर ‘नाइस जोक’ कह देना है।
हमारी सबकी राम-राम आप सब को मिले।
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अपरंच समाचार ये है कि यहाँ सब कुशल है और आपके यहाँ तो सब कुशल होगा ही…
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यहाँ मौसम बरसात का है झमाझम चौमासे चल रहे हैं तो फिर थोड़ी बहुत तबियत भी ‘नासाज’ चलती है। बाक़ी सब आपकी ‘किरपा’ से ठीक-ठाक और सकुशल है। पिछले दिनों घनघनाती बारिश आई। घरों-चौबारों में तो बच्चे काग़ज़ की नाव चलाने लगे, गाँवों में कच्चे घर गिर गए, शहर में पक्के घरों की छत टपकने लगीं और अब आपसे क्या छुपाना, हमारा भी घर पुराना है तो उसकी छत भी टपकी। हमारे यहाँ कहते हैं ‘जितना नाहर (शेर) का डर नहीं है जितना कि टपके का डर है’। ख़ैर आप तो बादलों से ऊपर रहते हैं आपको क्या पता कि बारिश क्या है और ‘टपका’ क्या है।
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किसी से मिलने पर उसके कपड़ों की तारीफ़ करनी है। कपड़े फटीचर हों तो ये ज़रूर कहना है कि ‘बडे़ फ़्रॅश लग रहे हो’। अगर चार दिन की दाढ़ी बढ़ रही हो तो कहना है ‘वैसे दाढ़ी भी तुम पर सूट करती है, थोड़ा अलग हट के लग रहे हो’ और हाँ, अच्छा कहने के लिए ‘कूल’ कहना है।
  
बरसात से किसान की फ़सल बहुत ही अच्छी होने की संभावना बन रही है ब्रह्मा जी! । सब आपकी माया है… कहीं धूप कहीं छाया है।
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कोई छींके तो ‘गॉड ब्लॅस यू’ या सिर्फ़ ‘गॉड ब्लॅस’ कहना है, भले ही वो हमारे मुँह पर ही छींके। हाँ उसके छींकने से जो बौछार हमारे ऊपर आएगी उसे उसके सामने ही नहीं पौंछना है।इधर-उधर जा कर पौंछना है।
बाक़ी सब आपकी किरपा है। सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा है, कुशल मंगल है। वैसे तो आपको पता ही होगा लेकिन फिर भी बता दूँ कि एक देश है फ्रांस वहाँ एक ट्रक ने जानबूझ कर सैकड़ों लोग कुचल डाले… उस दृश्य को देखकर दिल तो क्या पत्थर का पहाड़ भी पिघल जाता। मगर आपके ब्रह्मलोक में तो न ही सड़कें हैं और न ही ट्रक तो आपको इसका कोई अनुभव नहीं होगा। जब आपको कभी दर्द हुआ ही नहीं तो समझेंगे क्या प्रजापति जी! हमारे यहाँ कहते हैं कि ‘जाके पैर न फटी बिबाई वो कहा जाने पीर पराई’ फिर भी हम तो आपसे ही गुहार करते हैं भले ही आप सुनें न सुनें।
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श्रीमंत! हमारे देश में प्रजातंत्र है आप प्रजापति हैं तो इसके बारे में अच्छी तरह से जानते ही होंगे, अब आपके सामने हम क्या ज्ञानी बनें। प्रजातंत्र में जनता को स्वतंत्रता मिली हुई है, विशेषकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। इस स्वतंत्रता के लाभ क्या हैं हम साधारण जन समझ नहीं पाते लेकिन इसके नुक़सान भी हैं जो हमें बहुत दु:खी करते हैं। यह अभिव्यक्ति बच्चियों से बलात्कार करने में ज़्यादा की जा रही है। बलात्कार की घटनाएँ इतनी सामान्य हो चली हैं कि लोग अपनी दुश्मनी निकालने के लिए झूठे बलात्कार के आरोप लगाने लगे हैं। अभी पिछले दिनों दो पड़ोसियों में ज़मीन को लेकर विवाद हो गया दोनों ने एक दूसरे पर अपनी नाबालिग बेटियों पर यौनशोषण होने का झूठा आरोप पुलिस की उपस्थिति में लगाने की कोशिश की… बाक़ी सब सकुशल है, ठीक-ठाक चल रहा है।
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किसी ग़लती पर या हल्की फुल्की चोट पर ‘ओह’ या ‘अरे’ नहीं कहना है बल्कि ‘आउच’ कहना है। यदि और अधिक सु-संस्कृत होना है तो
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फिर ’ऊप्स’ कहना है। ये भी ध्यान रहे कि’ओ माइ गॉड’ अादि का उपयोग भी समय-समय पर करना है। ‘हे भगवान’ या ‘हे राम’ कहेंगे तो गँवार माने जाएँगे।
  
हमारे प्रदेश में अब चुनाव आने वाले हैं ब्रह्मा जी! तीन-चार पार्टियाँ हैं जो यहाँ दंगल में हिस्सा लेंगी। एक सामाजिक न्याय का बहाना बनाएगी तो दूसरी समाजवाद का, तीसरी अच्छे दिनों का और चौथी के पास तो पता नहीं क्या मुद्दा है। इस चुनाव में जीते कोई भी लेकिन हारेगी हमेशा की तरह जनता ही। चेहरों के अलावा कुछ भी नहीं बदलेगा (अाजकल तो सरकार बदलने पर बहुत से चेहरे भी नहीं बदलते)। विकास कार्यों में कमीशन, पोखर-तालाबों पर क़ब्ज़े, झूठे वादे, व्यक्तिगत लाभ देने की पेशकश, पैसा लेकर नौकरी, नेताओं, ब्यूरोक्रेसी और पुलिस का निरंकुश राज…
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बहुत ज़्यादा सड़ी हुई बदबू को बदबू न कहकर ‘फ़नी स्मॅल’ कहना है। ख़ुद चाहे तीन दिन तक न नहाएँ लेकिन परफ़्यूम से पसीने की गंध को दबाए रखना है।
  
आपके ब्रह्मलोक में प्रजातंत्र नहीं है इसलिए आपको यह सब नहीं भुगतना पड़ता है परमपिता! ऐसा नहीं है कि प्रजातंत्र कोई बुरी पद्धति है बल्कि बहुत से देशों में यह सचमुच में है और अपने सर्वजनहिताय स्वरूप में ही मौजूद है। ज़रा ये बताइये कि हमारा प्रजातंत्र ऐसा क्यों है ? हर गली-मुहल्ले में पार्टियाँ बन रही हैं कुछ ही परिवार राज किए जा रहे हैं। किसी को धर्म, किसी को जाति और किसी को क्षेत्र या भाषा का ही मुद्दा मिलता है। जनहितकारी मुद्दे ग़ायब हैं। व्यक्तिगत हित सर्वोपरि हैं। हमारे देश में तो कुछ ऐसा लगता है कि जैसे प्रजातंत्र वह द्रौपदी है जिसे दु:शासन (कुशासन) से ही ब्याह दिया गया है। बाक़ी सब कुशल है, सब आपकी ‘किरपा’ है।
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सिनेमाहॉल में हँसी की बात पर भी ज़ोर से हँसना नहीं है। सिर्फ़ ‘आइ लाइक इट’ कह देना है। फ़िल्में भी सिर्फ़ हॉलीवुड की देखनी हैं (भले ही अग्रेज़ी समझ में न आए)। चार लोगों में बैठकर हिन्दी फ़िल्मों का मज़ाक़ उड़ाना है। गाने भी अंग्रेज़ी सुनने हैं।
  
आपसे करबद्ध निवेदन है कि थोड़ा सा हमारा दर्द समझने और बाँटने की ‘किरपा’ कीजिए। ज़रा झांककर देखिए बुन्देलखन्ड में कितने किसान भूखे मरे और कितने आत्महत्या करके। हमारे पड़ोस की उस औरत के घर में जिसका पति कुछ कमाता नहीं और फिर भी जुअा खेलता है और शराब पीकर अपनी बीवी-बच्चों की पिटाई करता है। बीवी अपने पति से पिट-पिट कर भी घरों में चौका-बर्तन करके अपने बच्चों को पाल रही है। अपने बच्चों को पानी पिलाने के लिए भी उसे किसी धनाड्य के घर से आर.ओ. का पानी ले जाना पड़ता है। शेष सब कुशल मंगल है। आपकी किरपा बनी हुई है।
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रिक्शे-ऑटो वालों तक से अंग्रेज़ी में बात करनी है या फिर हर एक वाक्य में कम से कम चार शब्द अंग्रेज़ी के बोलने हैं। जैसे कि "भैया प्लीज़ मुझे ना वो नॅक्स्ट क्रॉसिंग पे ड्राप कर दोगे क्या? वोई रॅड बिल्डिंग के जस्ट बग़ल में… अॅक्चुली मैं लेट हो रहा हूँ जॉब के लिए”।
  
कभी-कभी हम सोचते हैं ब्रह्मा जी! कि धरती का सारा धुँआ उड़कर असमान की तरफ़ जाता है। आपको अखरता तो होगा। पर्यावरण की हालत का अन्दाज़ा आपको ज़रूर होगा। हमारे खेतों से होकर जो नहर गुज़र रही हैं उनमें पानी का रंग काला होने लगा है। बाग़ों को काटकर दुक़ाने बनाई जा रही हैं। जब कोई बड़ा पेड़ काटा जाता है तो हमें लगता है कि किसी बज़ुर्ग की हत्या हो गई। क्या आपको भी ऐसा लगता है? हमारे घर में भी एक नीम का पेड़ है वो बूढ़ा हो गया है और हमारे घर की ओर बहुत ज़्यादा झुक गया है। डर है कि कहीं घर पर न गिर पड़े। कई बार सोचा कि इसे कटवादें लेकिन हिम्मत नहीं पड़ती। जब हमारा एक पेड़ के पीछे ये हाल है तो दुनियाँ में न जाने कितने पेड़ रोज़ाना काटे जा रहे हैं। किसी का दिल नहीं पसीजता? आपका भी नहीं?
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खाना खाने के लिए किसी दाल-रोटी वाले भोजनालय की बजाय किसी इटॅलियन, मॅक्सिकन या जापानी रेस्त्रां में जाना है। वहाँ के खाने के अजीब-अजीब नामों को याद करना है जैसे ब्लॅकबीन साल्सा, पास्ता, टॉरटिला सूप, सुशी आदि। खाना कितना भी बेस्वाद हो (वो तो होगा ही) लेकिन उसे बहुत तारीफ़ करते हुए खाना है। यम्मी-यम्मी भी कहते रहना है।
  
हमने तो जो मन में आया लिख दिया है अब आप जानें कि क्या ‘एक्सन’ लेंगे। कोई भूल-चूक हुई हो तो ‘छिमा’ कीजिएगा।
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इतना सब करके देखा जाय, बाक़ी बाद में।
 
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इस तरह नया साल भी आराम से कट जाएगा।
सबको यथायोग्य
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अापको नववर्ष की शुभकामनाएँ।
आपका अाज्ञाकारी
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आदित्य चौधरी
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;दिनांक- 4 जुलाई, 2016
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महत्वपूर्ण यह नहीं कि आप अपने ज्ञान के प्रति कितने सतर्क हैं ! महत्वपूर्ण तो यह कि आप अपने अज्ञान के प्रति कितने सतर्क हैं।
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अपनी अज्ञानता का सही रूप में ज्ञान होना और निरंतर बने रहना ही किसी भी ज्ञानी की सही पहचान है।
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अक्सर हमारा ज्ञान ही हमें विचारवान होने से रोकने लगता है। स्वयं को ज्ञानी मानकर जीते जाना, हमारे भीतर न जाने कितनी अज्ञानता पैदा करता है और नए विचारों से वंचित कर देता है।
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07:49, 9 फ़रवरी 2017 का अवतरण

फ़ेसबुक अपडेट्स

दिनांक- 5 फरवरी, 2017

संस्कार, मान्यताएँ और आस्था एक बार बन जाती हैं तो उनका टूटना बहुत मुश्किल होता है और कभी-कभी तो नामुमकिन। ये हमारी आदत भी बन जाती हैं और जब भी हम इनसे दूर हटने की कोशिश करते हैं, हमको अटपटा सा महसूस होता है।

मेरे बचपन से ही हमारे घर पर प्रत्येक शनिवार को एक पंडित जी आते थे। जिन्हें कटोरी में सरसों का तेल एक लोहे की कील और सिक्का डालकर दिया जाता था। उस कटोरी में हम सब अपना चेहरा भी देखा करते थे। पंडित जी बहुत भले और सरल स्वभाव के थे। “चौधरी साहब के आनंद हों बहना, पौत्र ख़ुश रहें” पंडित जी की यह आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूंजती है। उनका क़द ऊँचा था (कुछ बचपन की वजह से लगता भी था) छरहरा बदन था और गांधी टोपी पहनते थे।

जब नया संवतसर आता था तो वे संवत सुनाने आते थे। संवत सुनाने में वे बताते थे उस वर्ष में कितनी बारिश होगी कितनी ठंड पड़ेगी और कितनी लू चलेंगी। ज़ोरदार बात ये है कि पिताजी भी संवत सुना करते थे। “ इस बार संवत माली के घर में है बहना, तो बारिश ज़्यादा होगी।” पंडित जी बताते…। इसके साथ ही वर्ष में कितना धर्म कितना अधर्म और कितना पाप कितना पुण्य है यह भी बताते थे। वे कहते “इस संवत में 14 बिस्से पाप और 6 बिस्से पुण्य है। याने पाप ज़्यादा और पुण्य कम है।” इसका अर्थ समझने के लिए पहले उस ज़माने की गणना को समझना होगा। बिस्सा (शुद्ध रूप ‘बिस्वा’) का अर्थ है एक बीघा खेत का बीसवाँ भाग याने कि ‘सौ प्रतिशत’ कहने के लिए कहा जाता था “बात तो पूरे 20 बिस्से सही है” इसी का दूसरा रूप होता था “बात तो पूरे सोलह आने सही है।” उस समय एक रुपये में सोलह आने होते थे। कॅरेट को भी प्रतिशत के लिए इस्तेमाल किया जाता था और आज भी कहते हैं “बात तो 24 कॅरेट सही है”।

पंडित जी को स्वर्गवासी हुए बीसियों साल हो गए। उनके बाद उनका दामाद आने लगा और अब उनका धेवता (बेटी का बेटा) आता है। ये लोग कभी संवत नहीं सुना पाए क्योंकि इन्हें जानकारी ही नहीं है। अब फिर नया संवत आने वाला है, बहुत मन करता है कि कोई आए और संवत सुनाए। असल बात यह है कि मैं बिल्कुल भी यह नहीं मानता कि शनिदेव किसी का भला-बुरा कर सकते हैं लेकिन बचपन के संस्कार अभी तक चले आ रहे हैं और उन्हें निबाहने में आनंद भी आता है।

दिनांक- 18 जनवरी, 2017

आज ही लिखी कुछ पंक्तियाँ आपकी सेवा में मित्रो!

"क्योंकि ये चुनाव है"

वादों के पुल पर उम्मीदों के कारवाँ ज़िन्दगी की कश्मकश की उफनती नदी को पार करने की कोशिश करते नज़र आएँगे

मगर अफ़सोस सब दिल का बहलाव है क्योंकि ये चुनाव है

अाँखों की झाइयों से कंपती उँगलियों की ख़ाली अँजली को ताकते उसके भरने की चाह में नारों से गुँजाते तंबुओं में अपने घर का सपना देख आएँगे

मगर अफ़सोस सब दिल का बहलाव है क्योंकि ये चुनाव है

झूठ के लबादों से लदे ओढ़े नक़ाब दिल फ़रेब वफ़ादारी का शोर मचाते क़ाफ़िलों से बिखेरते जलवा अपना करिश्माई ज़ुबान में अपना भाषण सुनाएँगे कि भई हम जनता के लिए जनता की सरकार बनाएँगे

मगर अफ़सोस सब दिल का बहलाव है क्योंकि ये चुनाव है

न रिश्वत बदलेगी न चौथ सरकारी अस्पताल चलेंगे बिना डॉक्टर-दवाई स्कूल चलेंगे बिना पढ़ाई जनता रहेगी चुप और गुमसुम कुछ भी बदलेगा नहीं सिर्फ़ चेहरे बदलते जाएँगे शायद नए चेहरे कुछ तो बदल पाएँगे?

मगर अफ़सोस सब दिल का बहलाव है क्योंकि ये चुनाव है

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 8 जनवरी, 2017

सुरक्षा और संतुष्टि की स्थिति प्राप्त करने के लिए बहुत ज़्यादा पैसा कमाने की इच्छा हो जाती है लेकिन होता कुछ और ही है। बहुत सारा पैसा कमाने के बाद असुरक्षा और असंतुष्टि का भाव और ज़्यादा बढ़ जाता है।

दिनांक- 6 जनवरी, 2017

क़ामयाबी कोई पंछी नहीं है जिसे पिंजरे में क़ैद करके रख लिया जाय। क़ामयाबी तो उड़ती पतंग है जिसे कटने का डर बना रहता है। कभी ‘ढील देकर’ से तो कभी ‘डोर खींच कर’ से इसे आकाश में थामे रहना पड़ता है। पेच लड़ाना भी हर हाल में आना चाहिए वरना हाथ में सिर्फ़ डोर ही रह जाती है।

दिनांक- 3 जनवरी, 2017

नया साल आ गया अब कुछ नसीहतें देदी जायें… न न न आपको नहीं ख़ुद को ही। मतलब ये कि नए साल में क्या-क्या करना है और क्या-क्या नहीं करना है।
जैसे कि-

कोई डेढ़ सौ बार सुना सुनाया हाथी-चींटी वाला चुटकुला सुना रहा हो तब भी पूरे चुटकुले को पूरे धैर्य से सुनना है जिससे कि सुनाने वाला ‘हर्ट’ न हो। सुनने के बाद हँसी न भी आए तब भी मुस्कुराना ज़रूर है या फिर ‘नाइस जोक’ कह देना है।

किसी से मिलने पर उसके कपड़ों की तारीफ़ करनी है। कपड़े फटीचर हों तो ये ज़रूर कहना है कि ‘बडे़ फ़्रॅश लग रहे हो’। अगर चार दिन की दाढ़ी बढ़ रही हो तो कहना है ‘वैसे दाढ़ी भी तुम पर सूट करती है, थोड़ा अलग हट के लग रहे हो’ और हाँ, अच्छा कहने के लिए ‘कूल’ कहना है।

कोई छींके तो ‘गॉड ब्लॅस यू’ या सिर्फ़ ‘गॉड ब्लॅस’ कहना है, भले ही वो हमारे मुँह पर ही छींके। हाँ उसके छींकने से जो बौछार हमारे ऊपर आएगी उसे उसके सामने ही नहीं पौंछना है।इधर-उधर जा कर पौंछना है।

किसी ग़लती पर या हल्की फुल्की चोट पर ‘ओह’ या ‘अरे’ नहीं कहना है बल्कि ‘आउच’ कहना है। यदि और अधिक सु-संस्कृत होना है तो
फिर ’ऊप्स’ कहना है। ये भी ध्यान रहे कि’ओ माइ गॉड’ अादि का उपयोग भी समय-समय पर करना है। ‘हे भगवान’ या ‘हे राम’ कहेंगे तो गँवार माने जाएँगे।

बहुत ज़्यादा सड़ी हुई बदबू को बदबू न कहकर ‘फ़नी स्मॅल’ कहना है। ख़ुद चाहे तीन दिन तक न नहाएँ लेकिन परफ़्यूम से पसीने की गंध को दबाए रखना है।

सिनेमाहॉल में हँसी की बात पर भी ज़ोर से हँसना नहीं है। सिर्फ़ ‘आइ लाइक इट’ कह देना है। फ़िल्में भी सिर्फ़ हॉलीवुड की देखनी हैं (भले ही अग्रेज़ी समझ में न आए)। चार लोगों में बैठकर हिन्दी फ़िल्मों का मज़ाक़ उड़ाना है। गाने भी अंग्रेज़ी सुनने हैं।

रिक्शे-ऑटो वालों तक से अंग्रेज़ी में बात करनी है या फिर हर एक वाक्य में कम से कम चार शब्द अंग्रेज़ी के बोलने हैं। जैसे कि "भैया प्लीज़ मुझे ना वो नॅक्स्ट क्रॉसिंग पे ड्राप कर दोगे क्या? वोई रॅड बिल्डिंग के जस्ट बग़ल में… अॅक्चुली मैं लेट हो रहा हूँ जॉब के लिए”।

खाना खाने के लिए किसी दाल-रोटी वाले भोजनालय की बजाय किसी इटॅलियन, मॅक्सिकन या जापानी रेस्त्रां में जाना है। वहाँ के खाने के अजीब-अजीब नामों को याद करना है जैसे ब्लॅकबीन साल्सा, पास्ता, टॉरटिला सूप, सुशी आदि। खाना कितना भी बेस्वाद हो (वो तो होगा ही) लेकिन उसे बहुत तारीफ़ करते हुए खाना है। यम्मी-यम्मी भी कहते रहना है।

इतना सब करके देखा जाय, बाक़ी बाद में।
इस तरह नया साल भी आराम से कट जाएगा।
अापको नववर्ष की शुभकामनाएँ।

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