- दिनांक- 29 दिसम्बर, 2014
जाटों के संबंध में प्रशांत चाहल ने नवभारत टाइम्स के लिए एक छोटा सा लेख माँगा। गुज़रे इतवार को छपा।
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- दिनांक- 29 दिसम्बर, 2014
हुस्न औ इश्क़ के क़िस्से तो हज़ारों हैं मगर
उनको कहने या न कहने से फ़र्क़ क्या होगा
कोई तफ़सील से समझाए मुहब्बत का सबब
इसके होने या ना होने से फ़र्क़ क्या होगा
तराश संग को बनते हैं, बुत तो रोज़ मगर
इसके यूँ ही पड़ा रहने से फ़र्क़ क्या होगा
कभी जो फ़ुरसतें होंगी तो इश्क़ कर लेंगे
इसके करने या करने से फ़र्क़ क्या होगा
तुम ही समझाओ मुझे तुम ही इश्क़ करते हो
समझ भी लूँ तो समझने से फ़र्क़ क्या होगा
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- दिनांक- 23 दिसम्बर, 2014
एक ही दिल था, वो कमबख़्त तूने तोड़ दिया
सर तो फोड़ ही दिया था, मिलना भी छोड़ दिया
जब नापसंद हैं तुझे तो भाड़ में जा पड़
तेरी ही ख़ाइशें थी कि हमने रास्ता ही छोड़ दिया
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- दिनांक- 23 दिसम्बर, 2014
क्या कहें तुमसे तो अब, कहना भी कुछ बेकार है
वक़्त तुमको काटना था हमने समझा प्यार है
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- दिनांक- 23 दिसम्बर, 2014
एक दिल है, हज़ार ग़म हैं, लाख अफ़साने
तुझे सुनने का उन्हें वक़्त, कभी ना होगा
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- दिनांक- 23 दिसम्बर, 2014
मर गए तो भूत बन तुम को डराने अाएँगे
डर गए तो दूसरे दिन फिर डराने अाएँगे
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- दिनांक- 23 दिसम्बर, 2014
कुछ एेसा कर देऽऽऽ
सुबह को देखूँ
मैं रोज़ तेराऽऽऽ
हसीन चेहरा
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- दिनांक- 23 दिसम्बर, 2014
एक अपनी ज़िंदगी रुसवाइयों में कट गई
जिसको जितनी चाहिए थी उसमें उतनी बँट गई
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- दिनांक- 24 दिसम्बर, 2014
फूल जितने भी दिए, उनको सजाने के लिए
बेच देते हैं वो, कुछ पैसा बनाने के लिए
बड़ी शिद्दत से हमने ख़त लिखे, और भेजे थे
वो भी जलवा दिए हैं, ठंड भगाने के लिए
हाय नाज़ों से हमने दिल को अपने पाला था
तोड़ते रहते हैं वो काम बनाने के लिए
एक दिन मर्द बने, घर ही उनके पहुँच गए
बच्चा पकड़ा दिया था हमको, खिलाने के लिए
कोई जो जान बचाए, मेरी इस आफ़त से
वक़्त मुझको मिले फिर से ज़माने के लिए
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- दिनांक- 19 दिसम्बर, 2014
तू जुलम करै अपनौ है कैंऽऽऽ
तू जुलम करै अपनौ है कैं
काऊ और की बात करुँ मैं का
अब दिनाउँ तो मो पै कटतु नाय
और रात की बात की करुँ मैं का
तू जुलम करै अपनौ है कैं...
सपने ऐसे तू दिखाय गयौ
और आंखिन मेंऊ बसाय गयौ
आवाज हर एक लगै ऐसी
तू आय गयौ तू आय गयौ
तू जुलम करै अपनौ है कैं...
तू समझ कैंऊँ नाय समझ रह्यौ
तू जान कैंऊँ नाय जान रह्यौ
मोहे सबकी बात चुभैं ऐसी
जैसे तीर कलेजाय फार रह्यौ
तू जुलम करै अपनौ है कैं...
का करूँ तीज त्यौहारी कौ
का करूँ मैं होरी दिवारी कौ
अब कौन के काजें सिंगार करूँ
का करूँ भरी अलमारी कौ
तू जुलम करै अपनौ है कैंऽऽऽ
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- दिनांक- 15 दिसम्बर, 2014
मृत्यु तुझे मैं जीकर दिखलाता हूँ
तेरे पंजे से मुक्त हुअा जाता हूँ
तेरा अपना है अहंकार
मेरा अपना भी
तेरा विराट मैं
फिर से बिखराता हूं
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- दिनांक- 13 दिसम्बर, 2014
नहीं कोई शाम कोई सुब्ह, जिससे बात करूँ ।
एक बस रात थी, ये सिलसिला भी टूट गया ॥
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- दिनांक- 13 दिसम्बर, 2014
मैंने देखा था, ज़िन्दगी से छुप के एक ख़्वाब कोई ।
वो भी कमबख़्त मिरे दिल की तरहा टूट गया ॥
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- दिनांक- 10 दिसम्बर, 2014
मेरे पसंदीदा शायर अहमद फ़राज़ साहब की मशहूर ग़ज़ल का मत्ला और मक़्ता अर्ज़ है…
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें।
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें॥
अब न वो मैं हूँ न तू है न वो माज़ी है “फ़राज़"।
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें॥
10 दिसम्बर, अाज पिताजी की पुण्यतिथि है। मैं गर्व करता हूँ कि मैं चौधरी दिगम्बर सिंह जी जैसे पिता का बेटा हूँ। वे स्वतंत्रता सेनानी थे और चार बार संसद सदस्य रहे। वे मेरे गुरु और मित्र भी थे।
उनके स्वर्गवास पर मैंने एक कविता लिखी थी...
ये तो तय नहीं था कि
तुम यूँ चले जाओगे
और जाने के बाद
फिर याद बहुत आओगे
मैं उस गोद का अहसास
भुला नहीं पाता
तुम्हारी आवाज़ के सिवा
अब याद कुछ नहीं आता
तुम्हारी आँखों की चमक
और उनमें भरी
लबालब ज़िन्दगी
याद है मुझको
उन आँखों में
सुनहरे सपने थे
वो तुम्हारे नहीं
मेरे अपने थे
मैं उस उँगली की पकड़
छुड़ा नहीं पाता
उस छुअन के सिवा
अब याद कुछ नहीं आता
तुम्हारी बलन्द चाल
की ठसक
और मेरा उस चाल की
नक़ल करना
याद है मुझको
तुम्हारे चौड़े कन्धों
और सीने में समाहित
सहज स्वाभिमान
याद है मुझको
तुम्हारी चिता का दृश्य
मैं अब तक भुला नहीं पाता
तुम्हारी याद के सिवा कुछ भी
मुझे रुला नहीं पाता
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- दिनांक- 4 दिसम्बर, 2014
मत करना कोशिश भी
तुम ये,
फिर से हँसू...
बहुत मुश्किल है
तनी भृकुटियाँ
भी थककर अब
साथ छोड़कर
पसर गई हैं
यही सोचता
हरदम तत्पर
क्यों हूँ ज़िंदा ?
मरा नहीं क्यों ?
लड़ क्यों नहीं रहा
अजगर से ?
बार-बार क्यों
जाता हार ?
इसकी गहरी श्वास
मुझे क्यों खींचे लेती ?
कर देती अस्तित्व
शिथिल
मेरा क्यों
हर पल ?
लाल और नीली
मणियों को
धारण करके,
जीभ लपलपाते
औ
चारण गान
सुन रहे,
...मतली लाने वाले स्वर के
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जनता को
उलझाने की
नित कला
सीखते
और जानते
हाँ-हाँ में ना-ना
हो कैसे...
कर जाना है
एक सहज मुस्कान
फेंक के
अपने ऐरावत पर
हो सवार ये,
गिद्ध दृष्टि से युक्त
गिद्ध-भोजों को तत्पर,
षडयंत्रों में रत हैं
सभी 'इयागो' जैसे
सुबह सवेरे पूजा गृह में
स्तुति रत हो
आँख मूँद लेते हैं
सब
अनदेखा करके...
तम से घिरे निरंतर
ढेर अबोधों के स्वर,
कभी कान इनके सुनने
को बने नहीं हैं
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छिनते बचपन की
बिकती तस्वीरों से ये
अपने सभागार को
कब का सजा चुके हैं
रेलों की पटरी पे
सोती तक़्दीरों को
स्वर्ण रथों के पहियों
से दफ़ना देते हैं
बीते हुए जिस्म के
बिकते हुए ख़ून से
और वहीं
मासूम ख़ून के
उन धब्बों को
कब देखोगे?
कुछ तो करो...
रोक लो इनको
हे जन गण मन !
कहाँ छुपे हो ?
कैसे सह लेते हो
यह सब,
कहाँ रुके हो ?
क्योंकर झुका
भाल अपना तुम
सब सहते हो...?
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- दिनांक- 3 दिसम्बर, 2014
"हाँ तो नरेन ! तो क्या खाओगे ? मैं जल्दी से सब्ज़ी बना देती हूँ, तुम भी रसोई में आ जाओ सब्ज़ी काटने में मेरी सहायता करो।”
स्वामी विवेकानंद अमरीका जाने से पहले मां शारदा का आशीर्वाद लेने उनके पास पहुँचे। स्वामी विवेकानंद का नाम नरेन था। संत तो संत होते ही हैं, उनकी पत्नियाँ भी कभी-कभी अपने पतियों से अधिक ऊँचाइयाँ छू लेती हैं। संत रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नी मां शारदा, उनमें से एक थीं।
मां शारदा बोलीं “नरेन ज़रा वहाँ से छुरी उठा कर मुझे देदो।” इतना सुनते ही विवेकानंद ने छुरी उठाई और मां शारदा को देदी।
मां शारदा बोलीं “नरेन अब तुम विदेश में भारत के प्रतिनिधि बनके जाने योग्य हो और जो भी संदेश दोगे वह एक सच्चे भारतीय का संदेश होगा।
विवेकानंद आश्चर्य चकित होकर बोले “आपने तो मुझसे कुछ भी नहीं पूछा ? यह कैसे जान लिया कि मैं भारत का सच्चा प्रतिनिधि बन सकता हूँ ?”
मां शारदा ने कहा "देखो नरेन ! जब मैंने तुमसे छुरी मांगी तो तुमने धार की की ओर से पकड़ कर मुझे छुरी दी जिससे कि मैं हत्थे की ओर से आसानी से उसे पकड़ सकूँ। यदि धार मेरी ओर और हत्था तुम्हारी ओर होता तो मेरी उँगली घायल होने का ख़तरा हो सकता था। इन छोटी-छोटी बातों का ख़याल रखना ही भारतीय संस्कार है, यही सच्ची भारतीयता है नरेन ! अब तुम जाओ और अमरीका में भारत की अहिंसा का पाठ पढ़ाओ…”
मेरे विचार से भारतीय संस्कार का इतना सटीक उदाहरण और पाठ कोई और मिलना मुश्किल है।
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- दिनांक- 3 दिसम्बर, 2014
मैं हूँ स्तब्ध सी
ये देख कर अस्तित्व तेरा
कितना है ये किसका
कितना ये है मेरा
मुझ से तुझको जोड़ा
तुझको मुझसे जोड़ा
ऐसे, इस तरहा से
किसकी ये माया है
कैसे तू आई है
पंखों की रचना है
रिमझिम सी काया है
झिलमिल सा साया है
तू जब भी रोती है
सपनों में खोती है
शैतानी बोती है
तुझको मालुम क्या
ऊधम है तेरा क्या
घर-भर के रहती है
पल भर में बहती है
गंगा और जमना क्या
आखों में रहती है
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जब भी तू कहती है
मम्मा-अम्मा मुझको
जाने क्या सिहरन सी
रग-रग में बहती है
तेरा जो पप्पा है
पूरा वो हप्पा है
दांतो से काट-काट
गोदी में गप्पा है
मैं हूँ अब ख़ुश कितनी
ये किसको बतलाऊँ
समझेगा कौन इसे
किस-किस को समझाऊँ
यूँ ही इक बात मगर
कहती हूँ तुम सबसे
बच्चे ही आते हैं
ईश्वर का रूप धरे
इनकी जो सेवा है
अल्लाह की ख़िदमत है
साहिब का नूर हैं ये
ईश्वर की मेवा है
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इनमें हर मंदिर है
इनमें हर मस्जिद है
गिरजे और गुरुद्वारे
इनके ही सजदे हैं
कोई भी बच्चा हो
कितना भी झूठा हो
कितना भी सच्चा हो
बस ये ही समझो तुम
उसके ही दम से तो
ये सारी दुनिया है
उससे ही रौशन हैं
सूरज और तारे सब
उसकी मुस्कानों में
जीवन की रेखा है
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