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| मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई। “पिछली बार तुम मिले थे तो ठीक-ठाक थे। आज ये तुम्हें क्या हो गया है?” | | मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई। “पिछली बार तुम मिले थे तो ठीक-ठाक थे। आज ये तुम्हें क्या हो गया है?” |
| “दोस्त पहले की बात और थी। वो दिन अब कहाँ। अब तो मैं एक चलता-फिरता अभिभावक बन के रह गया हूँ। बस इससे ज़्यादा और कुछ नहीं”, | | “दोस्त पहले की बात और थी। वो दिन अब कहाँ। अब तो मैं एक चलता-फिरता अभिभावक बन के रह गया हूँ। बस इससे ज़्यादा और कुछ नहीं”, |
− | “लेकिन तुम अभिभावक बने कब?” (शेष भारतकोश पर पढ़ें) | + | “लेकिन तुम अभिभावक बने कब?” [[अभिभावक -आदित्य चौधरी|(शेष पूरा सम्पादकीय पढ़ें)]] |
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11:16, 30 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण
फ़ेसबुक अपडेट्स
- दिनांक- 26 सितम्बर, 2015
प्रिय मित्रो! अर्से बाद कुछ पंक्तियाँ कहीं, तो आपके सामने हाज़िर हैं-
इन मंजिलों को शायद
कुछ रंजिशें हैं मुझसे
जो रास्ते सफ़र के
मुश्किल बता रही हैं
जो मेरा आसमां है
वो मेरा आसमां है
फिर कौन सी ग़रज़ से,
ये हक़ जता रही हैं
ये कौन से तिलिस्मी
आलम की दास्तां है
जो राहते जां होतीं,
वो भी सता रही हैं
गुज़रे हुए ज़माने की
कैसे कैफ़ीयत दूँ
अब और क्या बताऊँ,
क्या-क्या ख़ता रही हैं
क्या ढूंढते हो?
सूरज?
वो यूँ नहीं मिलेगा
सूरज की हर किरन ही,
उसका पता रही हैं
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- दिनांक- 26 सितम्बर, 2015
"सब कुछ
तुम पर नहीं है निर्भर,
भाई सूरज,
यह रज भी एक चीज़ है
सारी सज-धज,
उसी में से अँकुरी है।”
-भवानी प्रासाद मिश्र
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- दिनांक- 26 सितम्बर, 2015
अज्ञेय लिखते हैं-
जो पुल बनायेंगे
वे अनिवार्यतः
पीछे रह जायेंगे ।
सेनाएँ हो जायेंगी पार
मारे जायेंगे रावण
जयी होंगे राम;
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बन्दर कहलायेंगे
~ अज्ञेय
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- दिनांक- 27 जुलाई, 2015
हृदय विचलित हो गया। जिनसे बहुत कुछ सीखा वो नहीं रहे।
कलाम साहब से एक मिसाइल के निर्माण में कुछ कमी रह गई। इस मिसाइल का प्रक्षेपण असफल रहा। कलाम साहब के बॉस ने प्रेस के सामने इस असफल परीक्षण की पूरी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ली और कलाम साहब को साफ़ तौर पर बचा लिया। इसके बाद कलाम साहब को यह अनुभव मिला कि बॉस किसे कहते हैं और वह कैसा होना चाहिए…
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- दिनांक- 10 जुलाई, 2015
एक सौ पच्चीस करोड़ की आबादी, 6 लाख 38 हज़ार से अधिक गाँवों और क़रीब 18 सौ नगर-क़स्बों वाले हमारे देश में क़रीब 35 करोड़ छात्राएँ-छात्र हैं। जो 16 लाख से अधिक शिक्षण संस्थानों और 700 विश्वविद्यालयों में समाते हैं। दु:खद यह है कि विश्व के मुख्य 100 शिक्षण संस्थानों में किसी भी भारतीय शिक्षण संस्थान का नाम-ओ-निशां नहीं है।
इसके बावजूद भी स्कूल कॉलेजों में दाख़िले के लिए जो मारा-मारी होती है उससे हम सभी गुज़र चुके हैं। आइए इस विषय पर एक व्यंग्य पढ़ें जो मैंने 1993 के आस-पास लिखा था ( ऊपर लिखे अाँकड़ों को छोड़कर ) लेकिन लगता है जैसे आज ही लिखा हो…
पुराने समय में, हमारे स्कूल, देश को मेधावी छात्राएँ-छात्र देते थे। आजकल स्कूल देश को मेधावी अभिभावक याने ‘पेरेन्ट्स’ देते हैं। पहले बच्चे को पहली बार स्कूल में एडमीशन के लिए ले जाते वक़्त नए-नए माता-पिता बड़ी ख़ुशी से हाथ में हाथ डालकर सीटी बजाते हुए स्कूल में घुसते हैं और जब वापस लौटते हैं तो बेचारे अभिभावक बन चुके होते हैं। बड़ा ही कारूणिक दृश्य होता है। पिता अभिभावक के बाल बिखरे होते हैं और कमीज़ एक तरफ़ से पैन्ट के बाहर निकली होती है। दोनों कान एल्सेशियनिज़्म से रिक्त देशी कुत्तों की तरह लटक जाते हैं। माता अभिभावक का पर्स पिता अभिभावक के मुँह की तरह खुला रह जाता है। साड़ी के पल्लू से सिर ढँक जाता है, चुटिया मरी साँपिन-सी लटक जाती है। दोनों अभिभावक अबला नारी और निर्बल नर के रूप में लौटते हैं और उनका सारा उत्साह ठण्डा हो जाता है। बच्चे को स्कूल भेजने की सारी ख़ुशी हवा हो जाती है। इसके बाद वे अपना शेष जीवन अभिभावकी में ही गुज़ारते हैं। क्या कमाल है, एक झटके में अच्छा ख़ासा इंसान अभिभावक बन कर रह जाता है।
एक अच्छे स्कूल में आप अपने बच्चे का एडमीशन करा चुके हैं और आपको “कुछ” नहीं हुआ है तो आप बधाई के पात्र हैं। एक से ज़्यादा बच्चों का एडमीशन करा चुके हैं तो आप सहज ही ‘पद्मश्री’ के दावेदार बन गए हैं। आज की दुनिया में शहर में रहने वाले इंसान का सबसे बड़ा सपना होता है, बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना। आप चाहे जहाँ कहीं किसी को भी रास्ते में रोककर पूछ सकते हैं कि “आप के जीवन का उद्देश्य क्या है?” हमेशा एक ही उत्तर मिलेगा “बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना।“ हाँ यह बात अलग है कि इस उत्तर को देने वाला व्यक्ति उत्तर देते वक़्त व्यवहार क्या करता है। मैंने भी यही सवाल एक दोस्त से किया। पहले तो उसने मेरी तरफ़ आश्चर्य से ऐसे देखा जैसे मैंने कोई बेहद निरर्थक क़िस्म का सवाल किया है, फिर सजल नेत्रों से भर्राए गले के साथ बोला-
“जैसे तुम जानते नहीं हो इसका जवाब। एक ही तो उद्देश्य है हम सभी का, बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवाना और इसमें हमारी जान ही क्यों न चली जाए।” इतना कहकर वो मुझसे लिपट कर रोने लगा। मैंने उसे ढाँढस बंधाया और पूछा-
“इसमें रोने की क्या बात है?” वो सुबकते हुए बोला-
“मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। क्या तुम जानते नहीं हो कि औरत की उम्र, मर्द की कमाई और एक अभिभावक से उसके जीवन का उद्देश्य कभी नहीं पूछना चाहिए। ये असभ्यता होती है।“
मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई। “पिछली बार तुम मिले थे तो ठीक-ठाक थे। आज ये तुम्हें क्या हो गया है?”
“दोस्त पहले की बात और थी। वो दिन अब कहाँ। अब तो मैं एक चलता-फिरता अभिभावक बन के रह गया हूँ। बस इससे ज़्यादा और कुछ नहीं”,
“लेकिन तुम अभिभावक बने कब?” (शेष पूरा सम्पादकीय पढ़ें)
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