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क्या आप किसी का सुख-दु:ख, भीतर का संताप-अवसाद और अच्छा-बुरा...
जानना चाहते हैं? विशेषकर किसी 'अपने' का?
तो जानिए वे बातें जो उसने 'नहीं कहीं', जबकि कह सकता था और जानिए वो काम
जो उसने 'नहीं किए', जबकि कर सकता था।
क्या आप ऐसा कर सकते हैं या ऐसा करने की कोशिश करते हैं ? यदि नहीं तो फिर
दो ही बात हो सकती हैं कि या तो वह आपका अपना नहीं हैं या आप उसके अपने नहीं हैं।
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31 मार्च, 2014
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इस दुनिया में बहुत कुछ बदलता है
बस एक ज़माना ही है
जो कभी नहीं बदलता है
और बदले भी कैसे ?
जब इंसान का
नज़रिया ही नहीं बदलता है
चलो कोई बात नहीं
सब चलता है
बंदर से आदमी बनने की बात तो
झूठी लगती है
वो तो गिरगिट है
जो माहौल के साथ रंग बदलता है
वैसे तो आग का काम ही जलाना है
वो बात अलग है कि
कोई मरने से पहले
तो कोई मरने के बाद जलता है
और दम निकलने से मरने की बात भी झूठी है
कुछ लोग,
मर तो कब के जाते हैं
दम है कि बहुत बाद में निकलता है
वस्त्रों की तरह
आत्मा का शरीर बदलना भी
ग़लत लगता है मुझको
हाँ कपड़ों की तरह इंसान
चेहरे ज़रूर बदलता है
चलो कोई बात नहीं
सब चलता है
सब चलता है
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31 मार्च, 2014
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कभी तू है बादल
कभी तू है सागर
कहीं बनके तालाब पसरा पड़ा है
कभी तू है बरखा
कभी तू है नदिया
कहीं पर तू झीलों में अलसा रहा है
मगर तेरी ज़्यादा
ज़रूरत जहाँ है
उसे सबने अाँखों का पानी कहा है
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31 मार्च, 2014
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चाहे बैठे हों खेत खलिहान में
या हो उड़ान
कहीं ऊँचे विमान में
होता हो
किसी आलीशान मकान में सवेरा
या कहीं किसी
कच्ची मढ़ैया में बसेरा
हों व्यापारी अधिकारी
या कोई
बड़े नेता
खिलाड़ी हों आप
या कोई अभिनेता
घूमते हों सुबह शाम पैदल
या बस में
या गुज़रता हो दिन
ज़िन्दगी के सरकस में
अलबत्ता सबके जीवन में
एक बात तो कॉमन है
वो है
बस दो की तलाश
इक तो ईश्वर
जो कभी दिखता नहीं है
दूजा प्यार
जो कभी मिलता नहीं है
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31 मार्च, 2014
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इविंग स्टोन ने विश्व के महान चित्रकार (पेन्टर) 'वॅन गॉफ़' की जीवनी लिखी है। यह विश्व की महानतम जीवनियों में एक मानी जाती है। इस पुस्तक में अनेकों प्रसंग ऐसे हैं जिन्हें पढ़कर 'वॅन गॉफ़' के अद्भुत व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना रह पाना संभव नहीं है। यह पुस्तक मैंने संभवत: 25 वर्ष पहले पढ़ी होगी।
इसी पुस्तक से कुछ पंक्तियाँ:-
"दुनिया में काम करने के लिए आदमी को अपने ही भीतर मरना पड़ता है। आदमी इस दुनिया में सिर्फ़ ख़ुश होने नहीं आया है, वह ऐसे ही ईमानदार बनने को भी नहीं आया है, वह तो पूरी मानवता के लिए महान चीज़ें बनाने के लिए आया है। वह उदारता प्राप्त करने को आया है। वह उस बेहूदगी को पार करने आया है जिस में ज़्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसटता रहता है।
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23 मार्च, 2014
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कहते हैं प्लॅटो जैसा गुरु और अरस्तु जैसा शिष्य एथेंस, यूनान (ग्रीस) में कभी दूसरा नहीं हुआ। प्लॅटो की यूटोपियन धारणा की अरस्तु ने आलोचना की है। आज विश्व के अधिकतर देशों (विशेषकर पश्चिम) में अरस्तु की दार्शनिक पद्धति का अनुसरण होता है।
'अरस्तु' को भौतिकवादी, साम्राज्यवादी या पूँजीवादी आदि कई विशेषण प्राप्त हैं। कुछ बातें अरस्तु ने बहुत अच्छी कही हैं।
अरस्तु ने कहा है-
"उचित व्यक्ति को
उचित समय पर
उचित मात्रा में
उचित ढंग से
सहायता देना बहुत कठिन है।"
भारतीय दर्शन में भी इसी से मिलती-जुलती स्थिति है-
"कुपात्र को दिया गया दान भी व्यर्थ जाता है।"
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16 मार्च, 2014
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एक लयबद्ध जीवन जीने की आस
एक बहुत ही
व्यक्तिगत जीवन का अहसास
न जाने कब होगा
होगा न जाने कब
एक घर हो दूर कहीं छोटा सा
जहाँ एकान्त की जहाँ माँग हो
सबसे ज़्यादा
बस मिल ना पाये
कभी एकान्त
न खाने को दौड़े अकेलापन
कुछ ऐसे ही भविष्य का आभास
लेकिन झूठ है सबकुछ
ये नहीं होगा कभी भी नहीं होगा
कैसे होगा ये...
कि रहे कहीं ऐसी जगह
जहाँ सभी अपने हों
और छोटे-छोटे
हक़ीक़त भरे सपने हों...
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5 मार्च, 2014
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न नई है न पुरानी है
सच तो नहीं
ज़ाहिर है, कहानी है
एक जोड़ा हंस हंसिनी का
तैरता आसमान में
तभी हंसिनी को दिखा
एक उल्लू कहीं वीरान में
हंसिनी, हंस से बोली-
"कैसा अभागा मनहूस जन्म है उल्लू का
जहाँ बैठा
वहीं वीरान कर देता है
क्या उल्लू भी किसी को खुशी देता है?"
तेज़ कान थे उल्लू के भी
सुन लिया और बोला-
"अरे सुनो! उड़ने वालो !
शाम घिर आई
ऐसी भी क्या जल्दी !
यहीं रुक लो भाई"
ऐसी आवाज़ सुन उल्लू की
उतर गए हंस हंसिनी
ख़ातिर की उल्लू ने
दोनों सो गए वहीं
सूरज निकला सुबह
चलने लगे दोनों तो...
उल्लू ने हंसिनी को पकड़ लिया
"पागल है क्या ?
मेरी हंसिनी को कहाँ लिए जाता है ?
रात का मेहमान क्या बना ?
बीवी को ही भगाता है ?"
हंस को काटो तो ख़ून नहीं
झगड़ा बढ़ा
तो फिर पास के गाँव से नेता आए
अब उल्लू से झगड़ा करके
कौन अपना घर उजड़वाए !
उल्लू का क्या भरोसा ?
किसी नेता की छत पर ही बैठ जाए
तो फ़ैसला ये हुआ
कि हंसिनी पत्नी उल्लू की है
और हंस तो बस उल्लू ही है
नेता चले गए
बेचारा हंस भी चलने को हुआ
मगर उल्लू ने उसे रोका
"हंस ! अपनी हंसिनी को तो ले जा
मगर इतना तो बता
कि उजाड़ कौन करवाता है ?
उल्लू या नेता ?"
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4 मार्च, 2014
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वक़्त बहुत कम है और काम बहुत ज़्यादा है
हर एक लम्हे का दाम बहुत ज़्यादा है
फ़ुर्सत अब किसको है रिश्तों को जीने की
वीकेन्ड वाली इक शाम बहुत ज़्यादा है
चौपालें सूनी हैं, मेलों में मातम है
कहीं पे रहीम कहीं राम बहुत ज़्यादा है
खुल के हँसने की जब याद कभी आए तो
पल भर को झलकी मुस्कान बहुत ज़्यादा है
कोयल की तानें तो अब भी हैं बाग़ों में
लेकिन अब बोतल में आम बहुत ज़्यादा है
जिस्मों के धन्धे को लानत अब क्या भेजें
इसमें भी शोहरत है, नाम बहुत ज़्यादा है
साझे चूल्हे में अब आग कहाँ जलती है
शामिल रहने में ताम-झाम बहुत ज़्यादा है
बस इक मुहब्बत का आलम ही राहत है
लेकिन ये कोशिश नाक़ाम बहुत ज़्यादा है
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4 मार्च, 2014
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फ़ासले मिटाके, आया क़रीब होता
चाहे नसीब वाला या कम नसीब होता
उसे ज़िन्दगी में अपनी, मेरी तलाश होती
मैं उसकी सुबह होता, वो मेरी शाम होता
मेरी आरज़ू में उसके, ख़ाबों के फूल होते
यूँ साथ उसके रहना, कितना हसीन होता
जब शाम कोई तन्हा, खोई हुई सी होती
तब जिस्म से ज़ियादा, वो पास दिल के होता
दिल के हज़ार सदमे, ग़म के हज़ार लम्हे
इक साथ उसका होना, राहत तमाम होता
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4 मार्च, 2014
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शब्दार्थ
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